शाहीन बाग़ : सीएए विरोध के बीच बच्चों को मिल रही है इंक़लाबी तालीम
देश भर में नागरिकता क़ानून का विरोध जारी है। हालांकि सरकार के ऐलान के मुताबिक़ 10 जनवरी से नागरिकता क़ानून यानी सीएए प्रभावशाली हो चुका है, लेकिन इसके बावजूद देश के कई हिस्सों में इस क़ानून को असंवैधानिक क़रार देते हुए लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इन्हीं विरोध प्रदर्शनों में से एक प्रदर्शन है दिल्ली के शाहीन बाग़ का, जहाँ क़रीब एक महीने से इलाक़े की महिलाओं के नेतृत्व में 24 घंटे इस क़ानून का विरोध हो रहा है।
शाहीन बाग़ के प्रदर्शन में एक अनोखी चीज़ है यहाँ बनी बच्चों के लिए एक 'ओपन लाइब्रेरी'। जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों और इलाक़े के युवाओं द्वारा शुरू की गई यह एक अनोखी पहल है जहाँ सड़क के कोने में प्रदर्शन में आ रहे बच्चों के लिए एक ओपन लाइब्रेरी बनाई गई है। चूंकि प्रदर्शन में ज़्यादातर महिलाएं हैं, तो उनके साथ बच्चे भी आ रहे हैं। इस सोच से कि बच्चे इन प्रदर्शनों में इधर-उधर भटकने की जगह थोड़ी तालीम पा सकें, इस ओपन लाइब्रेरी का एहतमाम किया गया है। इसका नाम दिया गया है "इंडिया रीड्स, इंडिया रेसिस्ट्स" यानी "भारत पढ़ता है, भारत विरोध करता है।" इसी को अब 'रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' का भी नाम दे दिया गया है। दो तीन दुकानों के सामने बनाई गई इस लाइब्रेरी में आसपास के इलाक़ों से हर वर्ग के बच्चे आते हैं, पेंटिंग करते हैं, कहानियाँ सुनते-पढ़ते हैं, गाने गाते हैं, कविताएँ सुनते हैं। बच्चों के लिए रोज़ अलग-अलग तालीम के तरीक़ों के साथ दिल्ली के अलग अलग क्षेत्र से कलाकार आते हैं, और इन बच्चों को कुछ सिखा कर जाते हैं। ग़ौरतलब है कि अभी इलाक़े में स्कूल बंद हैं, और बच्चों की पढ़ाई का नुक़सान हो रहा है, इसी को सोचते हुए यह जगह बनाई गई है जहाँ बच्चे चीज़ों को, कला को जान सकें और समझ सकें।
इन बच्चों में ज़्यादातर की उम्र 15 साल से कम है। यही वो उम्र होती है, जब शिक्षा और शख़्सियत दोनों के बनने-सँवरने का वक़्त होता है। ऐसे में सरकार की यह कैसी योजना है, जिसकी वजह से इन बच्चों को रात में, शोर में, तालीम पाने पर मजबूर होना पड़ रहा है, यह भी एक बड़ा सवाल है। इसपर विचार कीजिये।
कहाँ से शुरू हुआ रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन?
जामिया में 13 दिसम्बर को हुई हिंसा और 15 दिसम्बर से शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों में सबसे पहले ऐसे स्टॉल लगाने शुरू किए गए थे। इस जगह पर लोग किताबें लेकर आते थे, साथ बैठ कर पढ़ते थे और विचार साझा करते थे। विरोध करने का यह एक और तरीक़ा था, जिसका मक़सद शायद यह दिखाना ही था कि तालीम जारी रहेगी, और विरोध भी जारी रहेगा। इसी सोच को आगे ले जाते हुए 1 जनवरी से शाहीन बाग़ में इस ओपन लाइब्रेरी की शुरुआत की गई। इस पहल के आयोजकों में से एक हैं उसामा ज़ाकिर। उसामा जामिया के रिसर्च स्कौलर हैं। इस ओपन लाइब्रेरी के बारे में वो बताते हैं, कि इसका मक़सद बच्चों में सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना नहीं है, बल्कि उनकी कलात्मत्क प्रतिभा को सँवारने की कोशिश करना है। उसामा ने कहा कि प्रदर्शन में अपने माँ-बाप के साथ आए बच्चों को सीएए एनआरसी के बारे में जानकारी नहीं है, ऐसे में उन्हें नारेबाज़ी में ना लगाकर उनको देश और समाज के बारे में जागरुक करना ही 'रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' का मक़सद है।
न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उसामा ने कहा, “हमने यहाँ पर संस्कृति, धर्म, ज़िंदगी, साहित्य अलग-अलग क्षेत्र की किताबें हैं। हमारे यहाँ 5 साल से लेकर 70 साल तक के लोग आते हैं। जब यह प्रदर्शन ख़त्म हो जाएगा, तो इन बच्चों के पास नारों के अलावा कुछ नहीं बचेगा, इसलिए हमने ये तरक़ीब निकाली कि ऐसा कुछ किया जाए, जिसमें बच्चों को शामिल किया जाए। हम यहाँ रोज़ बच्चों को एक थीम देते हैं, जिस पर बच्चे पेंटिंग बनाते हैं। इन बच्चों ने जेएनयू हिंसा, ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग, शाहीन बाग़, सब पर पेंटिंग बनाई हैं। जब हमने बच्चों को ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग के बारे में बताया, दसियों बच्चे रोने लगे।"
बच्चों ने जो हर विषयों पर पेंटिंग बनाई हैं, पोस्टर बनाए हैं, उनसे दिखता है कि उनके पास कितना कुछ कहने और बताने को मौजूद है। 'रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' जैसी ख़ूबसूरत पहल में शाहीन बाग़ इलाक़े के अलावा, पड़ोसी इलाक़ों और दिल्ली-एनसीआर के अलग अलग इलाक़ों के बच्चे, युवा शामिल होते हैं। उसामा बताते हैं कि इस स्टॉल पर एक 70 साल के बुज़ुर्ग रोज़ आते हैं, और बैठ कर किताब पढ़ते हैं। सांस्कृतिक विरोध या कल्चरल रेसिस्टेंस का ये नज़ारा जो शाहीन बाग़ में दिख रहा है, वो ज़ाहिर तौर पर एक ख़ूबसूरत और सकारात्मक पहल है।
10 साल की अफ़रा अपनी अम्मी-अब्बू के साथ हर रोज़ शाहीन बाग़ के प्रदर्शन में शामिल होने आती हैं। वो 1 तारीख़ से रोज़ 'रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' के स्टॉल पर आ रही हैं। अफ़रा बताती हैं कि उनकी अम्मी ने कहा है कि जब तक सीएए-एनआरसी-एनपीआर की योजनाएँ वापस नहीं ली जातीं, वो लगातार यहाँ आती रहेंगी। यहाँ आ कर पढ़ने के बारे में अफ़रा ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, "हमें यहाँ बहुत अच्छा लगता है। हम देश के बारे में पेंटिंग बनाते हैं, पोस्टर बनाते हैं। हमने वंदे मातरम गाया है, उसके साथ और भी गाने गाये हैं। 15 तारीख़ से स्कूल खुलेंगे, उसके बाद भी हम यहाँ आते रहेंगे।"
बच्चों के अलावा यहाँ आने वाले युवाओं को संविधान की प्रस्तावना, देश की धर्मनिरपेक्षता के बारे में बताया जाता है, उनसे बातें की जाती हैं। उसामा ने बताया कि युवाओं को प्रस्तावना और सीएए के ड्राफ़्ट को एक साथ पढ़ने को कहा जाता है, और उनसे कहा जाता है कि इसमें फ़र्क़ पता करें।
12वीं क्लास में पढ़ने वाली शान्या ने बताया कि वो क़रीब एक महीने से इस प्रदर्शन में आ रही हैं। उन्होंने कहा, ""हम यहाँ आते हैं, बाहर से आए लोगों से बात करते हैं उसमें बहुत मज़ा आता है। यह हमारे लिए ऐतिहासिक लम्हा है। हम चाहते हैं कि यह तब तक चलता रहे जब तक सरकार हमारी माँगें नहीं मान लेती हैं।"
यह बात लिखनी बेहद ज़रूरी है कि इस जगह पर लोगों के मन में सीएए-एनआरसी-मोदी सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने का काम नहीं हो रहा है, बल्कि कला और संस्कृति के माध्यम से उनके मन में देश के विचार, देश की भावना और संविधान की प्रस्तावना की समझ को बढ़ाया जा रहा है।
रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' की यह सकारात्मक पहल उन सभी के मुँह पर एक मीठा सा तमाचा साबित हो रहा है, जो इस विरोध प्रदर्शनों को नफ़रत की निगाहों से देखने का कर रहे हैं।
शाहीन बाग़ के बच्चे ना चाहते हुए भी एक इतिहास का हिस्सा बन रहे हैं। यह प्रदर्शन एक मिसाल है कि संस्कृति को साथ लेकर, शायरी और साहित्य की बात करते हुए विरोध कैसे किया जाता है। यह बच्चे इस वक़्त को ता-ज़िंदगी याद रखेंगे और उनकी शख़्सियत में इस इंक़लाबी तालीम का असर ज़रूर दिखेगा।
लेकिन दूसरी तरफ़ यह सवाल और चिंता भी सामने आती है कि बच्चों को सड़कों पर, रातों को पढ़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ रहा है। क्यों वो एक साधारण ज़िंदगी नहीं जी रहे हैं, क्यों सरकारें इतनी बेबस और कठोर हैं कि सबसे युवा देश के बच्चे इस तरह की तालीम पाने पर मजबूर हैं।
शाहीन बाग़ के प्रदर्शन की तरह ही गया के शांति बाग़, दिल्ली के जाफ़राबाद जैसी जगहों पर भी महिलाओं के नेतृत्व में प्रदर्शन हो रहे हैं।
नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे इस विरोध का अंत क्या होगा, यह किसी को मालूम नहीं है। लेकिन एक बात जो ज़ाहिर तौर पर सच है, वो यह है कि जिस दिन इन प्रदर्शनों की तारीख़ मुरत्तब की जाएगी, तब 'रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' के इन युवाओं का नाम ज़रूर शामिल किया जाएगा। यह ज़रूर लिखा जाएगा कि एक दौर में जब सरकार अपने हर विरोधी को देशद्रोही और आतंकवादी कह रही थी, उस वक़्त ये लोग बच्चों को साथ लेकर एक तालीमी इंक़लाब को जन्म दे रहे थे।
‘रीड फ़ॉर रेवोल्यूशन' यह काम बग़ैर किसी आर्थिक मदद के कर रहा है। आप चाहें तो यहाँ जा कर हर तरह की किताबें डोनेट कीजिये, और बच्चों को जागरुक करने में इनकी मदद कीजिये।
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