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कोयले की किल्लत और बिजली कटौती : संकट की असल वजह क्या है?

मौजूदा संकट, बिजली क्षेत्र में सुधारों की बुनियादी विचारधारा का ही नतीजा है, जहां 400 गीगावाट की स्थापित बिजली क्षमता के होते हुए भी, इससे आधी शीर्ष मांग पूरी करना भी संभव नहीं हो रहा है।
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Image courtesy : FT

गर्मी अभी पूरे जोर पर आयी भी नहीं थी, लेकिन देश के कई राज्यों में बिजली कटौती शुरू भी हो चुकी थी। 26 अप्रैल को बिजली की मांग 201 गीगावाट पर पहुंच गयी और 8.2 गीगावाट यानी 4 फ़ीसद की कमी रह गयी। और बिजली की यह कमी तो तब थी जब गर्मियों के शीर्ष पर हम पहुंचे भी नहीं हैं, जब बिजली की मांग बढक़र करीब 220 गीगावाट हो जाने का अनुमान है।

बिजली की वर्तमान कमी कोई इस वजह से नहीं है कि हमारे यहां बिजली उत्पादन की क्षमता हमारी जरूरत के मुकाबले कम है। उल्टे इस समय हमारे यहां बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता 400 गीगावाट की है, जबकि हमारी बिजली की अधिकतम मांग भी इस समय इससे आधी ही बैठेगी। लेकिन, इतनी फालतू बिजली उत्पादन क्षमता देश में होने के बावजूद, अनेक राज्यों को गंभीर बिजली कटौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

झारखंड को 22.3 फ़ीसद कटौती का सामना करना पड़ रहा है, तो राजस्थान को 19 फ़ीसद का और जम्मू-कश्मीर व लद्दाख को, 16 फ़ीसद का। बिजली कटौती के ये आंकड़े, राज्यों द्वारा आंकी गयी अपनी बिजली की मांग तथा वास्तव में उन्हें हासिल हुई बिजली के अंतर से निकाले गए हैं और इंडियन एक्सप्रैस के 28 अप्रैल के अंक में प्रकाशित लेख के आंकड़ों से थोड़े से अधिक हैं।

बिजली की हमारी उच्चतम मांग की पूर्ति करने वाली हमारी ज्यादातर बिजली क्षमता कोयले पर आधारित है और इसमें पूरक के तौर पर पनबिजली, नाभिकीय, गैस तथा अक्षय ऊर्जा की भी मदद ली जाती है। और बिजली की मौजूदा कमी का असली कारण है, बिजलीघरों में कोयले की कमी हो जाना। इसका नतीजा यह होता है कि जैसे-जैसे अपने शीर्ष की ओर पहुंचते हुए बिजली की मांग बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे और ज्यादा कोयला जलता है और इसका नतीजा यह होता है कि बिजली घरों में जमा कोयले के भंडार, 30 फ़ीसद की न्यूनतम आवश्यक जरूरत से भी नीचे खिसक जाते हैं।

बारिश आने से पहले, बिजली की मांग में बढ़ोतरी के साथ, बिजली की आपूर्ति का संकट और बदतर ही होने जा रहा है। ताप बिजलीघरों के लिए कोयला आपूर्ति बढ़ाने के लिए तत्काल कुछ कदम उठाने से ही इस संकट के बढऩे को टाला जा सकता है।

अब जो बिजली का भारी संकट हमारे सिर पर मंडरा रहा है, उसकी पूर्व-चेतावनी तो पिछले साल सितंबर के महीने या फिर त्योहार के मौसम में, तब भी मांग अपने शीर्ष पर पहुंचती है, ऐसे ही हालात पैदा होने के रूप में पहले ही मिल गयी थी। इस समय जो हो रहा है उसकी ही तरह उस समय भी, बिजलीघरों में कायले के भंडार आवश्यकता के मुकाबले काफी कम रह गए थे और इसके चलते उस समय भी इसी की नौबत आयी थी कि या तो गंभीर बिजली कटौती झेली जाए या फिर बिजली के स्पॉट मार्केट से अनाप-शनाप दाम पर बिजली खरीद कर, इस कमी की भरपाई की जाए।

बहरहाल, भाजपा की सरकार तो सच्चाई को नकारने की ही कोशिशें कर रही है। उसका दावा है कि  देश में न तो कोयले की आपूर्ति का कोई संकट और न ही इसके चलते बिजली की आपूर्ति का ही कोई संकट है। और कोयले की आपूर्ति की मौजूदा किल्लत तथा बिजली में भारी कटौती का जिम्मा या तो बाहर के हालात या रूस-यूक्रेन युद्ध पर डाला जा रहा है या फिर जैसा कि इस सरकार का कायदा ही है, इसका ठीकरा अपने को छोडक़र दूसरे सभी के सिर पर फोड़ा जा रहा है—कि रेलवे कोयले की ढुलाई के लिए जरूरी मात्रा में रैक मुहैया नहीं करा रही है, कि राज्य सरकारें कोयले के दाम नहीं चुका रही हैं, कि कोल इंडिया पर्याप्त कोयला नहीं दे रही है, आदि, आदि।

जब यह पता ही था कि सबसे ज्यादा गर्मी पडऩे का समय ही बिजली क्षेत्र के लिए सबसे मुश्किल समय होता है, इसके लिए बिजली मंत्रालय, रेलवे तथा राज्यों के बीच तालमेल कर, पहले से तैयारियां क्यों नहीं की गयीं? रेलवे में कोयला ढुलाई के लिए रैकों की तंगी का अब बहाना
क्यों बनाया जा रहा है? क्या बिजली मंत्रालय तथा रेलवे ने इसका अंदाजा ही नहीं लगाया था कि बिजलीघरों को पर्याप्त मात्रा में कोयला पहुंचाने के लिए कितने रैकों की जरूरत होगी?

विभिन्न मंत्रालयों के बीच तालमेल, स्वस्थ नियोजन और मुश्किल गर्मियों को ध्यान में रखते हुए राज्यों की बिजली तथा आपूर्ति की हालत को हिसाब में लेते हुए उनके साथ पहले से संवाद के जरिए, आज जो हालात पैदा हो गए हैं, उनसे बचा जा सकता था।

कोयला-आधारित बिजली की आपूर्ति अब भी भारत के बिजली क्षेत्र का मुख्य सहारा है। स्थापित बिजली क्षमता का 50 फ़ीसद से ज्यादा इसी क्षेत्र में है और इस समय के बिजली उत्पादन का 70 फ़ीसद इसी स्रोत से आता है।

29 मार्च से 24 अप्रैल के बीच, किसी भी दिन बिजली की अधिकतम मांग का औसतन 77 फ़ीसद हिस्सा, कोयले से चलने वाले बिजलीघरों से ही आ रहा था, जबकि 2 फ़ीसद हिस्सा ही गैस-आधारित बिजलीघरों से, 9 फ़ीसद पनबिजली से और 10 फ़ीसद हिस्सा ही अन्य अक्षय ऊर्जा स्रोतों से आ रहा था, जिसमें ज्यादातर हिस्सा पवन और सौर ऊर्जा का ही था। इसलिए, यह तो एक जानी-मानी अनिवार्यता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि कोयले से चलने वाले बिजलीघर बिना किसी रुकावट के और खासतौर पर गर्मियों के दौरान, कोयले की पूरी आपूर्ति के साथ अबाध रूप से चलते रहें।

पिछली गर्मियों में बिजलीघरों के पास कोयले का कुल भंडार, निर्धारित मानक के 60 से 70 फ़ीसद के बराबर ही था। लेकिन, इस साल यह भंडार निर्धारित मानक के 30-33 फ़ीसद के बराबर ही रह गया है। इससे भी बुरा यह कि 173 कोयला-आधारित बिजलीघरों में से 105 में कोयले का भंडार, नाजुक स्थिति से भी नीचे चला गया है यानी निर्धारित मानक के 25 फ़ीसद से भी नीचे चला गया है। तो बिजलीघरों के पास कोयले के भंडारों में इस साल हुई गिरावट की वजह क्या है? नियोजन तथा विभिन्न प्राधिकारों के बीच तालमेल के सिवा दूसरी वजह हो ही क्या सकती है?

बेशक, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। कोयले की बढ़ी हुई अंतर्राष्ट्रीय कीमतों का असर कोयले के आयात पर पड़ रहा है। इसके चलते आयातित कोयले पर निर्भर बिजलीघरों से बिजली का उत्पादन कम हो रहा है। लेकिन, भारत के ताप बिजलीघरों में से ज्यादातर में तो घरेलू कोयले का ही उपयोग होता है। देश में कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन में से सिर्फ़ 8 फ़ीसद आयातित कोयले के भरोसे है। इसलिए, आयातित कोयले के बढ़े हुए दामों से बिजली उत्पादन में थोड़ी सी गिरावट की तो व्याख्या की जा सकती है, लेकिन इससे देश के अनेक राज्यों में एक साथ बिजली की गंभीर कटौतियों को नहीं समझा जा सकता है।

एक और बात यह है कि अगर कोयले की ढुलाई के लिए रेलवे के पास रैकों की वैसी ही कमी है, जैसा कि दावा किया जा रहा है, तो यह मंत्रालयों के बीच के तालमेल के गंभीर अभाव को ही दिखाता है। इसके अलावा, इससे भी कम से कम पिट हैड बिजलीघरों यानी कोयला खदानों की ही जगह पर बनाए गए ताप-बिजलीघरों में कोयला भडारों के बहुत नीचे खिसक जाने की व्याख्या नहीं की जा सकती है।

बहुत सारी खबरें बताती हैं कि केंद्र सरकार ने राज्यों से कहा है कि अपने बिजलीघरों के लिए विदेशी महंगे कोयले के आयात की व्यवस्था करें और आयातित कोयले को 10 फ़ीसद तक के अनुपात में, घरेलू कोयले के साथ मिलाकर इस्तेमाल किया जाए। इसके अलावा, केंद्र सरकार ने इसका भी इशारा किया है कि राज्यों के लिए दिए जा रहे कोयले का एक हिस्सा निजी बिजली उत्पादकों की ओर मोड़ा जा सकता है, जिससे ऐसे ताप बिजलीघरों से बिजली का उत्पादन बढ़ाया जा सके, जो आयातित कोयले के बढ़े हुए दाम के चलते इस समय ठप्प पड़े हुए हैं।
निजी बिजली उत्पादकों ने अगर बंदरगाहों पर तथा बड़ी मांग वाले केंद्रों के ही नजदीक, आयातित कोयले पर आधारित अपने बिजलीघर लगाए हैं, तो उन्होंने आयातित कोयले की आपूर्ति तथा उसकी कीमतों के जोखिम को हिसाब में लेते हुए अपने बिजलीघर लगाए हैं। ऐसे में राज्यों की बिजली उपयोगिताओं से आयातित कोयला खरीदने के लिए कहना, ताकि बंदरगाह-आधारित बिजलीघरों को—जो अडानी तथा टाटा के बिजलीघर हैं--घरेलू कोयला मिल सके, राज्यों से निजी पूंजी को सब्सिडी देने की मांग करने के सिवा और कुछ नहीं है।

दूसरे, यह समझना जरूरी है कि केंद्र सरकार के उक्त आग्रह का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है:

1) कोयले का आयात करना तथा बंदरगाहों से, रेलवे के सहारे इस कोयले की ताप बिजलीघरों तक ढुलाई करना; और 2) रेलवे का ही सहारा लेकर, कोयला खदानों से बंदरगाह-आधारित बिजलीघरों के लिए कोयला पहुंचाना। इससे, कोयले की ढुलाई के लिए रेलवे के रैकों की तंगी की और कोयला खदानों से देश के भीतरी हिस्सों में स्थित बिजलीघरों तक कोयला ढोकर पहुंचाने में रेलवे की असमर्थता की समस्याओं का, कैसे कोई हल निकलेगा?

और अगर सरकारी बिजलीघर 10 फ़ीसद आयातित कोयले का इस्तेमाल करते हैं तो, उससे उन पर कितना फालतू बोझ पड़ेगा? अब जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें पिछले साल के मुकाबले करीब 3-4 गुनी हो गयी हैं, इसका सीधा सा अर्थ यह है कि 10 फ़ीसद आयातित कोयले का उपयोग करने से, राज्य बिजली उपयोगिताओं के लिए ईंधन की लागत 30-40 फ़ीसद बढ़ जाएगी। आखिरी बात यह है कि राज्यों तथा उनके बिजली उपभोक्ताओं को बिजली उत्पादन की कीमतों के तेजी से बढऩे का बोझ झेलना पड़ेगा। और अगर, लागत में इस बढ़ोतरी का पूरा का पूरा बोझ बिजली की दरों में बढ़ोतरी के जरिए, उपभोक्ताओं पर नहीं डाला जाता है, तो राज्य सरकारों को अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इस नुकसान की भरपाई के लिए खर्च करना पड़ेगा और वह भी सिर्फ इसलिए कि निजी क्षेत्र ने आयातित कोयले का इस्तेमाल कर बिजलीघर लगाने का फैसला लिया था!

इसके अलावा ऐसे गिने-चुने ही अंतर्राष्ट्रीय कोयला आपूर्तिकर्ता हैं, जिनके हमारे देश में घरेलू ताप बिजलीघरों के साथ संपर्क हैं और जो कोयले की आपूर्ति तथा मांग की इस खाई को आयातित कोयले के सहारे घटाने में मदद कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय कोयला आपूर्तिकर्ताओं को केंद्र सरकार के इस निर्देश से बेहिसाब मुनाफा मिलने जा रहा है कि राज्य सरकारें अपने बिजलीघरों के लिए 10 फ़ीसद आयातित कोयले का इस्तेमाल करें।

पिछले कुछ महीनों में ताप बिजलीघरों के लिए कोयले की उपलब्धता में पैदा हुई कमी, जिसके चलते बिजली कटौती करनी पड़ रही हैं, मौजूदा सरकार की एक गंभीर चूक है। बिजली कटौती से जनता की तथा खासतौर पर एमएसएमई क्षेत्र से जुड़े लोगों की आय और आजीविकाओं पर, जो पहले ही महामारी की मार भुगत रहे थे, गंभीर दुष्प्रभाव पडऩे जा रहा है। दूसरी ओर, इस संकट के बीच स्पॉट बाजार से महंगी बिजली खरीदने के चलते, या फिर मौजूदा ताप बिजलीघरों से ही सही, पर पहले से ज्यादा दाम पर बिजली खरीदने के चलते क्योंकि घरेलू कोयले की कमी की भरपाई करने के लिए 10 फ़ीसद आयातित कोयले का प्रयोग करने के चलते इन बिजलीघरों की भी बिजली की उत्पादन लागत बढ़ जाएगी, बिजली की कीमतें बढ़ जाएंगी और घरेलू उद्योगों तथा निजी उपभोक्ताओं पर इसकी भी मार तो पड़ेगी ही पड़ेगी।

बिजली की आपूर्ति की तंगी की एक और समस्या यह है कि जब बिजली की मांग अपने शिखर पर पहुंचती है, स्पॉट बाजार में बिजली की कीमतें बहुत ऊपर चढ़ जाती हैं। ऐसे में राज्यों के सामने बहुत ही दुविधापूर्ण स्थिति पैदा हो जाती है—या तो बिजली में कटौती थोपें या फिर अनाप-शनाप दाम पर बिजली खरीद कर कमी की भरपाई करें। इस समय कुछ राज्य बिजली उपयोगिताएं तो 12 से 20 रुपये तक दाम में एक बिजली इकाई खरीदने पर मजबूर हैं और इसके चलते राज्य बिजली उपयोगिताओं को भारी घाटे उठाने पड़ रहे हैं, जबकि मुट्ठीभर बिजली व्यापारी, अंधाधुंध मुनाफे बटोर रहे हैं।

इस सबको देखते हुए, यह समझना जरूरी है कि मौजूदा संकट, बिजली क्षेत्र में सुधारों की बुनियादी विचारधारा का ही नतीजा है, जहां 400 गीगावाट की स्थापित बिजली क्षमता के होते हुए भी, इससे आधी शीर्ष मांग पूरी करना भी संभव नहीं हो रहा है। तथाकथित बाजारवादी सुधार, सब के सब बिजली का उपभोग करने वाली जनता की कीमत पर और राज्यों की कीमत पर ही किए गए हैं, जिनके सिर पर बिजली की आपूर्ति करने की जिम्मेदारी है, जबकि उनके हाथों में बिजली उत्पादन की बहुत थोड़ी क्षमता है है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Coal Shortages and Power Cuts: Mismanaged Electricity Supplies

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