बात बोलेगी : प्लेटफॉर्म पर दम तोड़ती भारत निर्माता ‘भारत माता’
भारत निर्माता, भारत माता दम तोड़ रही है। प्लेटफॉर्म पर मरी मां को सोया जान उसके कपड़ों से खेलता नन्हा मासूम 2020 के विकसित भारत का आईना है और देश का भविष्य है। हमने दरअसल, अपने लोकतंत्र को ऐसे ही लावारिस छोड़ दिया है।
श्रमिक ट्रेनों से लाशों के आने का सिलसिला देश की जनता के दुख भरे दिनों की तरह थमने का नाम नहीं ले रहा है। जो बच रहे हैं, वे भी अपने आप में एक चमत्कार है। उन्हें मारने का इंतजाम तो पूरा पक्का किया है हुक्मरानों ने। तपती गर्मी में बिना पर्याप्त पानी-खाने के हजारों किलोमीटर का सफर तय करते ये भारतीय नागरिक दम तोड़ रहे हैं। ट्रेनें सिर्फ 20-20 घंटें लेट नहीं चल रही हैं, बल्कि मजदूरों को लेकर रास्ता भटक रही हैं। रास्ता तो वाकई ये देश भूल ही गया है।
गुजरात के `विकास का मॉडल’ कैसे देश भर में पसर गया है, सरकारें किस कदर आपराधिक निष्क्रियता का लबादा ओड़कर आत्मनिर्भरता का जयगान कर सकती हैं---ये हमें कोरोना काल में, लॉकडाउन के दौरान होने वाली एक-एक मौत चीख़-चीख़ कर बता रही है। इन मौतों का न तो इन सरकारों के पास कोई ब्योरा है और न ही कभी होगा---वे रहेंगी अदृश्य। सिर्फ़ इतना ही नहीं, सत्ता तंत्र की नापाक साठगांठ ट्वीट करके बताएगी कि ऐसी कोई मौत तो हुई ही नहीं। कोई मरा ही नहीं, क्योंकि ये लोग तो मरने के लिए ही बने हैं! कीड़े-मकौड़ों की तरह नामालूम से, इनका गायब हो जाना ही देश के लिए हितकारी है। गुजरात के सूरत से घर को लौटती ‘भारत माता’ की जो ये लाश है, इस पर ऐसी ही प्रतिक्रिया आ रही होगी। इससे पहले भी हम देख-सुन रहे हैं कि गुजरात के सूरत में जो कामगार हैं, वे कैसे बिलबिला रहे हैं, घर जाने को सड़कों पर उतरे हुए हैं, लेकिन उनकी मदद के लिए कोई साहेब, कोई योगी, कोई नीतीश नहीं उतरे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में जब श्रमिक ट्रेन से दो भारतीय नागरिकों की लाशें निकाली गईं, तो वाकई बनारस क्योटो (जापान का शहर) की तरह ‘जगमग’ हो गया होगा। याद दिला दें, प्रधानमंत्री ने बनारस को क्योटो की तरह चमकाने का वादा किया था।
27 मई को मुंबई से निकली श्रमिक स्पेशल ट्रेन जब बनारस के मंडुआडीह स्टेशन पर पहुंची, तो मानो हडकंप मच गया।
फोटो साभार : अमर उजाला
इस स्पेशल ट्रेन से दो लाशें निकलीं—मृतक जौनपुर और आज़मगढ़ के हैं, एक नौजवान करीब 20 साल के, जो विकलांग हैं और दूसरे 63 वर्षीय बुजुर्ग। 20 साल के यात्री जिनकी मौत हुई, उनका नाम दशरथ प्रजापति है और वह जौनपुर के बदलापुर स्थित लालापुरा गांव के रहने वाले बताये जाते हैं। वह गुजरात के सूरत में काम करते थे। लॉकडॉउन से तबाह मजदूरों में से दशरथ भी एक थे, जो किसी भी तरह से जीते-जी गांव पहुंचना चाहते थे। लेकिन वे इतनी यातना झेल न पाए। दूसरे मृतक की शिनाख़्त आज़मगढ़ के रामरतन रघुनाथ के रूप में हुई है, जो मुंबई में जोगेश्वरी में रहते थे।
ऐसे अनगिनत भारत निर्माताओं के मरने की लगातार हृदयविदारक खबरें आ रही हैं। ये सूची लगातार लंबी होती जा रही है। निश्चित तौर पर ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत होगी, जो घर-द्वार पहुंचते-पहुंचते बीमार हुए होंगे या जिनके जीवन की डोर ख़ामोशी से टूट गई होगी—बिना ख़बर बने। इन लाखों लोगों, मजदूरों की मदद करने के बजाय वे अपने-अपने जश्न में मशगूल हैं। 30 मई को मोदी सरकार के दूसरे कार्य़काल का पहला साल पूरा हो रहा है, तो केंद्र सरकार उस जश्न की तैयारियों में है, और उधर कोरोना संकट-लॉकडाउन के बीच उत्तर प्रदेश के अयोध्या में भव्य-दिव्य राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया है।
ऐसे में मान ही के चलना चाहिए कि प्लेटफॉर्म पर मरी मां के आंचल से खेलता बच्चा हमारे दौर की सबसे बड़ी-ख़ौफ़नाक सच्चाई है, जो लंबे समय तक मानवता की मौजूदगी पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती रहेगी।
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