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डूबे हुए कर्ज़ के कारणों पर रघुराम राजन की रिपोर्ट

भविष्य में सावधानी बरतने के लिए राजन सलाह देते हैं कि पब्लिक सेक्टर के बैंकों के गवर्नेंस में सुधार और प्रशासनिक पदों की नियुक्ति की प्रक्रिया से राजनीति को दूर करने की जरूरत है। ऐसी नियुक्तियां बैंक बोर्ड ब्यूरो द्वारा की जानी चाहिए।

raghuram rajan
image courtesy : financial express

तकरीबन नौ लाख करोड़ के डूबे हुए कर्जे यानी नॉन परफार्मिंग असेट्स (एनपीए) के लिए जिम्मेदार कारणों को जानने के लिए सांसद मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में संसदीय समिति गठित की गयी थी। इस मसले पर पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने अपनी राय रखते हुए एक विस्तृत रिपोर्ट संसदीय समिति को सौंपी है। इस रिपोर्ट को लेकर अब राजनीति तेज़ हो गई है। और पक्ष और विपक्ष दोनों ने एक-दूसरे पर निशाना साधा है।

इस रिपोर्ट को जानने से पहले हम यह समझ लेते हैं कि आखिरकार नॉन परफॉर्मिग असेट्स का मतलब क्या होता है?  जैसा कि नाम से ही साफ़ है कि वैसी सम्पतियाँ जो नॉन परफार्मिंग हो चुकी हैं। दरअसल बैंक के जरिये दो तरह के कर्ज दिए जाते हैं- एक हम जैसे आम नागरिकों को और दूसरा कॉरपोरेट को। इन कर्जों पर मिलने वाले ब्याज से ही बैंकों की कमाई होती है। जब कर्ज और ब्याज की राशि बैंक को वापस नहीं मिलती है तो बैंक की सम्पतियाँ नॉन परफॉर्मिंग हो जाती हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि देश की अर्थव्यवस्था और विकास की गाड़ी धीमी हो जाती है।

नॉन परफॉर्मिंग असेट्स पर संसदीय समिति को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में रघुराम राजन कहते हैं "इस समय डूबे हुए कर्ज की बहुत बड़ी राशि साल 2006 से लेकर साल 2008 में बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज से संबंधित है। इस समय आर्थिक विकास की हालत मजबूत थी और पॉवर सेक्टर से जुड़े कई सारे प्रोजेक्ट पूरे हो चुके थे। इस समय बैंकों ने चूक करनी शुरू कर दी। पहले से चले आ रहे आर्थिक वृद्धि के  हालात के तहत ही भविष्य को भी देखना शुरू कर दिया। कर्जा मांगने वाले उद्योगपतियों को बिना जरूरी जांच परख के पैसा दिया। प्रमोटर इन्वेस्टमेंट बैंक द्वारा जारी किए गए प्रोजेक्ट रिपोर्ट को ही अंतिम मान लिया। इस लापरवाही की प्रक्रिया का उदहारण देते हुए राजन कहते हैं कि एक प्रमोटर ने उन्हें बताया कि किस तरह से उसके पास बैंक कर्जा देने के लिए चेकबुक हवा में लहराते हुए आते थे। ऐसे लापरवाहियों में ही साल 2008 के वैश्विक मंदी का भी दौर आ गया और घरेलू बाजार की हालत खराब होने लगी। अब प्रोजेक्ट बहुत धीमी गति से आगे बढ़ने लगे, पैसा डूबने लगा। ऐसे समय में मौजूदा प्रोजेक्ट को फिर से डिजाइन किया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रोजेक्ट के प्रमोटरों ने प्रोजेक्ट बचाने के डर से नया कर्ज लेना शुरू कर दिया। इसका कोइ फायदा नहीं हुआ। 

यहां समझने वाली बात यह है कि पब्लिक सेक्टर बैंकों का नॉन परफॉर्मिंग असेट्स का तकरीबन 73 फीसदी हिस्सा कॉरपोरेट घरानों से जुड़ा है और केवल 12 कम्पनियों की हिस्सेदारी इस डूबे हुए कर्ज में अकेले तकरीबन 25 फीसदी है। इस तथ्य से ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म (कॉरपोरेपट और सत्ता का गठजोड़) का खेल इसमें जमकर खेला गया है।

लेकिन इस पर राजन की राय है कि ''जब तक हम बैंकरों के पास मौजूद बेनामी सम्पत्ति का पता नहीं लगा लेते हैं, तब तक मुझे इसमें भ्रष्टाचार जैसी किसी  संभावना की बात करने में हिचकिचाहट होगी। किसी विशेष तरह के कर्जे के लिए बैंकरों को दोषी ठहराने के बजाय मैं यह सोचता हूं कि बैंक बोर्ड और इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को  बैड लोन के पैटर्न  का पता लगाना चाहिए, जिसके लिए बैंक के मुख्य कार्यकारी अफसर जिम्मेदार होते हैं। कुछ बैंकों में तो मुख्य कार्यकारी अफसर के तौर पर केवल एक व्यक्ति की ही तैनाती थी। इन पैटर्नों के आधार पर बेनामी संपति की जांच की जानी चाहिए और तब जाकर कोई कह सकेगा कि तब भ्रष्टाचार हुआ था या नहीं।''

इसके साथ राजन कहते हैं ''भारत में अगला बैंकिंग संकट मुद्रा लोन के तहत असंगठित क्षेत्र और किसान क्रेडिट योजना के तहत किसानों को दिए जाने वाले कर्जे से आएगा।" मुद्रा योजना की वेबसाइट के तहत अभी तक पब्लिक, प्राइवेट, रीजनल और माइक्रो फाइनेंस संस्था द्वारा तकरीबन 6 लाख 37 हजार कर्ज दिया गया है। इसलिए राजन कहते हैं कि इस  पर बड़े करीब से निगरानी रखने की जरूरत है।

राजन कहते हैं कि दिवालिये के समय प्रमोटरों को बैंकरों की सहायता करनी चाहिये। अगर प्रमोटर बैंकरों की सहायता नहीं करते हैं तो बैंकरों को 2016 में बने दिवालिये कानून के हिसाब से अपना काम करना चाहिए। भविष्य में सावधानी बरतने के लिए राजन सलाह देते हैं पब्लिक सेक्टर बैंकों के गवर्नेंस में सुधार और प्रशासनिक पदों की नियुक्ति की प्रक्रिया से राजनीति को दूर करने की जरूरत है। ऐसी नियुक्तियां बैंक बोर्ड ब्यूरो द्वारा की जानी चाहिए।  

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