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झारखंड : द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बावजूद आदिवासी समाज की आशंकाएं बरकरार!

“आदिवासी राष्ट्रपति के कार्यकाल में देखना होगा कि जल-जंगल-ज़मीन की लूट, आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन व संविधान एवं लोकतंत्र का उल्लंघन थमेगा या बढ़ेगा?”
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देश के भावी राष्ट्रपति के तौर पर द्रौपदी मुर्मू के निर्वाचित होने से देशभर के आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ-साथ उड़ीसा और झारखंड प्रदेश के आदिवासी भी खुश हैं। झारखंड प्रदेश जहां का व्यापक आदिवासी समाज आज भी भाजपा का प्रबल विरोधी है वहां भी एक खुशी के लहर जरूर है। लेकिन यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि एक आदिवासी महिला के रूप में द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने की भाजपा रणनीति का उन्हें मजबूरी में समर्थन करना पड़ा। काफी समय तक सोशल मीडिया में इस मामले को लेकर आदिवासी ऐक्टिविस्टों में इस मुद्दे पर थोड़ी टकरार हुई। लेकिन जब ये तर्क सामने आया कि आज तक कांग्रेस समेत बाकी राजनितिक दलों ने एक आदिवासी को इस तरह के शीर्ष पद पर क्यों नहीं बिठाया, तो अधिकांश को निरुत्तर होना पड़ गया।

हालांकि, आदिवासी समाज और जल जंगल ज़मीन के सवालों पर सक्रिय रहने वाले के कई वरिष्ठ आदिवासी आंदोलनकारी व एक्टिविस्टों की राय अभी भी अलग-अलग हैं। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए अपना पूरा समर्थन एवं शुभकामनाएं देते हुए भी कईयों का यह कहना है कि विगत दिनों जब द्रौपदी मुर्मू झारखंड प्रदेश की राज्यपाल रहीं थीं, तो उनकी भूमिका सिर्फ आश्वासन देने तक ही सीमित रही थी। जबकि प्रदेश के राज्यपाल के रूप में उनके आने से झारखंड का आदिवासी समाज काफी आशान्वित था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका और भाजपा सरकार की किसी भी आदिवासी विरोधी कार्यों पर वे कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं कर सकीं थीं।

झारखंड प्रदेश के आदिवासी समुदाय के जल-जंगल-ज़मीन और उनके पारम्परिक स्वशासन के अधिकारों के संरक्षण हेतु संविधान की पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को सख्ती से लागू किये जाने के मामले में रघुवर दास सरकार की आदिवासी विरोधी नीतियों और आदिवासियों पर राज्य-दमन रोकने में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं दिखी। इतना ही नहीं, वषों पूर्व अंग्रेजी हुकुमत से लड़ कर लिए गए सीएनटी/एसपीटी जैसे कानूनों में भी भाजपा सरकार द्वारा किये गए जबरिया संशोधन और जन विरोधी ‘लैंड बैंक’ कानून लागू कर आदिवासियों की परम्परागत ज़मीनें छीने जाने के खिलाफ आदिवासी समुदाय के हुए व्यापक विरोध पर भी वे सरकार पर कोई दबाव नहीं डाल सकीं थीं। 

उक्त सन्दर्भों में ही आदिवासी सवालों पर निरंतर सक्रिय रहनेवाली जानी-मानी आंदोलनकारी दयामनी बारला का भी कुछ ऐसा ही मानना है, जो देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति के लिए देश के इतिहास में पहली बार एक आदिवासी प्रतिनिधि के रूप में द्रौपदी मुर्मू के निर्वाचित होने पर अपनी व्यक्तिगत ख़ुशी जाहिर करती हैं।  इसके लिए उन्हें अपानी ओर से बधाई सन्देश भी प्रेषित करतीं हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहतीं हैं कि अब उनके सामने कई जटिल चुनौतियां होंगी। मसलन, वर्तमान केंद्र की सरकार जिस तेजी से आदिवासियों के संविधान प्रदत्त पांचवी अनुसूची के प्रावधानों का आये दिन उल्लंघन कर आदिवासियों के जिन बचे खुचे जल जंगल ज़मीन और प्राकृतिक-खनिज संसाधनों पर देशी-विदेशी कॉर्पोरेट घरानों व कंपनियों की नज़रें गड़ी हुई हैं, उनके लिए नए-नए कानून व नीतियां लागू कर रही हैं, एक आदिवासी होने के नाते द्रौपादी क्या करेंगी देखने वाली बात होगी। 

आदिवासियों के मानवाधिकारों के खुलेआम हनन व उनपर किये जा रहे राज्य दमन पर रोक उनके समक्ष एक चुनौती होगी। देश का राष्ट्रपति ही संविधान के प्रावधानों को लागू किये जाने का सर्वोच्च संरक्षक होता है। ऐसे में आदिवासियों के संरक्षण हेतु बनाए गए सभी संविधानिक प्रावधानों को ज़मीन पर लागू कराने की सर्वोच्च जवाबदेही अब इन्हीं के कन्धों पर होगी। इन दिनों प्रधानमंत्री स्वामित्व कार्ड योजना के नाम पर आदिवासी बाहुल्य खूंटी ज़िले के आदिवासी गावों में जबरन हो रहे ‘ड्रोन सर्वे’ का व्यापक विरोध हो रहा है।  साथ ही केंद्र सरकार के निर्देश से ‘नेशनल लैंड मोनेटराईजेशन कॉर्पोरेशन’ एजेंसी के जरिये आदिवासी ज़मीनों के दस्तवेज़ डिजिटल किये जाने के नाम पर खूब हेराफेरी कर आदिवासियों की परम्परागत ज़मीनें छीन ली जा रही हैं। इन संवेदनशील मुद्दों पर उनसे  संज्ञान लेने की सबकी आशाएं हैं।

आदिवासी मामलों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले एआईपीऍफ़ से जुड़े वरिष्ट आदिवासी एक्टिविस्ट-बुद्धिजीवी प्रेमचंद मुर्मू का भी लगभग ऐसा ही मानना है। एक आदिवासी के तौर पर द्रौपदी मुर्मू को देश का राष्ट्रपति बनाए जाने से वे भी खुश हैं, लेकिन उनकी भी ऐसी कई आशंकाएं हैं। उनके अनुसार भाजपा द्वारा एक महिला आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया जाना, एक विशेष रणनीति के तहत ही सब किया गया है। 

जंगल बचाओ आन्दोलन से जुड़े झारखंड जन संस्कृति मंच के प्रदेश सचिव जेवियर कुजूर का कहना है कि “आदिवासी राष्ट्रपति के कार्यकाल में देखना होगा कि जल-जंगल-ज़मीन की लूट, आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन, संविधान एवं लोकतंत्र का उल्लंघन थमेगा या बढ़ेगा?”

हमेशा की भांति राज्य की मीडिया चर्चाओं में उपरोक्त सभी बातों को सिरे से गायब कर भाजपा नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा जगह-जगह सड़कों पर खुशियां मनाये जाने की ख़बरें भरी पड़ी हैं। लेकिन मीडिया के राजनितिक विश्लेषणों में फोकस यही है कि राष्ट्रपति चुनाव प्रदेश में कीस तरह यूपीए गठबंधन पूरी तरह से बिखर गया। आंकड़े देकर बताया जा रहा है कि किस तरह से आदिवासी कार्ड के साथ भाजपा की ‘विशेष रणनीति’ सफल हुई। बताया जा रहा है कि कैसे एनडीए अपने आंकड़े बढ़ाने के लिए लगातार काम करता रहा। केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने झामुमो नेताओं के साथ संवाद कायम किया। वे द्रौपदी मुर्मू को लेकर झामुमो नेताओं से मिलने के साथ-साथ दिसोम गुरु शिबू सोरेन से आशीर्वाद लेने पहुंचे। वे अपने पुराने संपर्कों को भुनाते हुए अन्य आदिवासी विधायकों को लाइनअप करने में लगे रहे। 

ख़बरों की सुर्ख़ियों में यह भी है कि राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए गठबंधन बिखर गया। अपनी घोषणा के अनुसार झामुमो ने द्रौपदी मुर्मू का साथ दिया। उसने अपने राजनितिक एजेंडे को देखते हुए ऐसा किया। भाकपा माले विधायक समेत यूपीए के पास जो 20 वोट बचे हुए थे, वह भी नहीं बच सका और कांग्रेस-राजद के आधे विधायक टूटकर चले गए।

मीडिया में ही आई झारखंड के भाकपा माले विधयक की टिपण्णी जिसमें उन्होंने कहा है झामुमो की सोच हो सकती है कि एक आदिवासी व्यक्ति सत्ता व संविधान के उच्च स्तर पर पहुंचे, लेकिन अभी के समय में इससे भी ज्यादा ज़रूरी है कि उस राजनीति को रोका जाए जो आदिवासियों और वंचित समाज के अधिकारों पर कुठाराघात कर रही है। इसलिए आदिवासी व वंचित समाज पर कुठाराघात करने वालों के खिलाफ खड़ा होना ज़रूरी है।

बहरहाल, अभी का परिदृश्य यही है कि झारखंड प्रदेश के आदिवासी समाज के लोग द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से खुश हैं, लेकिन जिस राजनीतिक दल ने ‘पहली बार एक आदिवासी को सर्वोच्च सम्मान देने’ के ऐलान के साथ उन्हें इस पद पर आसीन किया है, आदिवासी समाज के प्रति उसकी अब तक की कारगुजारियों को देखकर सभी काफी आशंकित हैं। और इसे बखूबी सोशल मीडिया के बयानों में भी देखा जा सकता है

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