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जनसंख्या नियंत्रण तो केवल बहाना है योगी जी को हिंदू मुस्लिम दीवार को तीखा बनाना है!

हम सभी को अपने पूर्वाग्रह छोड़कर उन सरकारी आंकड़ों के सहारे सबसे पहले यह जानने की कोशिश करनी चाहिए आबादी के लिहाज से भारत और उत्तर प्रदेश की क्या स्थिति है?
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राजनीति के अंदर इतना अधिक घुन लग चुका है कि राजनीति करते हुए लिए जाने वाले अधिकतर फैसले जीवन की जरूरी परेशानियों को हल नहीं करते बल्कि और बड़ी परेशानियां पैदा कर देते हैं। जनसंख्या की बहस को ही देख लीजिए। भारत के सामने मौजूद किसी भी गंभीर परेशानी का जुड़ाव जनसंख्या से नहीं है। लेकिन राजनीति ने इसे मुद्दा बना दिया है।

 उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2021 से लेकर 2030 तक के लिए जनसंख्या नीति का ऐलान कर दिया है। राज्य के कानून आयोग ने भी उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण बिल पर रायशुमारी करने के लिए 19 जुलाई तक जनता को दावत दी। लेकिन जनता की राय का इंतज़ार भी नहीं किया गया और इससे पहले ही उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंप दी।

 इस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार लोगों के बीच एक ऐसा मुद्दा फेंकने में सफल हुई है जिसका जीवन के जरूरी परेशानियों से कोई लेना देना नहीं है। जिस पर जानकारों का कहना है कि जिस गति से भारत की जनसंख्या आगे बढ़ रही है अगर उस पर किसी भी तरह का जबरन रोक लगाई गई तो भविष्य में स्थिति जनसंख्या संकट की हो सकती है।

 तो चलिए सबसे पहले इस प्रश्न का ही उत्तर खोज लेते हैं कि यह कहा जाना क्यों बिल्कुल सही है कि भारत और उत्तर प्रदेश की जनसंख्या कोई इतनी बड़ी परेशानी नहीं है कि सरकार को उसके लिए कानून लाने और नीति बनाने की जरूरत पड़ जाएक्योंकि मामला किसी एक कस्बे गांव और शहर से जुड़ा नहीं है बल्कि एक पूरे राज्य से जुड़ा है तो हम सभी को अपने पूर्वाग्रह छोड़कर उन सरकारी आंकड़ों के सहारे सबसे पहले यह जानने की कोशिश करनी चाहिए आबादी के लिहाज से भारत और उत्तर प्रदेश की क्या स्थिति है?

 आबादी के बारे में आधारभूत तौर पर पहले हमें यह समझना चाहिए कि एक निश्चित समय में कुछ लोग जन्म लेते हैंकुछ लोग मरते हैं और ढेर सारे लोग जिंदा रहते हैं। यह तीनों प्रक्रिया हर समय चलती रहती है। कहने का मतलब यह है कि आबादी बढ़ेगी या घटेगी इसका ठीक-ठाक अंदाजा एक पीढ़ी के अंतराल के बाद चलता है। जैसे अगर भारत की आबादी साल 2000 में तकरीबन 100 करोड़ थी। तब से लेकर साल 2020 तक बढ़ते आ रही है लेकिन तकरीबन 80- 90 साल बाद जब एक पूरी पीढ़ी अपना जीवन सफर तय कर चुकी होगी उसके बाद भारत की आबादी की स्थिति क्या हो सकती है। इससे तय होता है कि आबादी बढ़ रही है या नहीं।

 इसे पढ़ें न भारत की आबादी में भयंकर बढ़ोतरी हो रही है और न ही मुस्लिमों की आबादी में

इस तरह से देखा जाए तो आबादी बढ़ रही है या घट रही है इसे तय करने का पैमाना प्रजनन दर कहलाता है। मोटे तौर पर समझे तो इसका यह मतलब होता है कि एक औरत अपने प्रजनन काल में कितने बच्चे पैदा कर सकती है। 15 साल से लेकर 49 साल को औरत का प्रजनन काल माना जाता है।

 इसी पैमाने के आधार पर अगर किसी क्षेत्र में कुल प्रजनन दर 2.1 से कम है तो इसका मतलब होता है कि आबादी नियंत्रित अवस्था में है। इस 2.1 के स्थिति को रिप्लेसमेंट दर भी कहा जाता है। इससे कम और करीब की स्थिति को कहीं से भी पापुलेशन एक्सप्लोजन यानी जनसंख्या विस्फोट की स्थिति नहीं कहा जा सकता। 

 कहने का मतलब यह है कि अगर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कोई भी भारत की जनसंख्या को जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बताकर संबोधित कह रहा है तो वह पूरी तरह से गलत संबोधन कर रहा है। भ्रम फैलाने वाला संबोधन कर रहा है।

साल 1971 में यह दर करीबन 5.3 फीसद थी। साल 2016 ( नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) में यह दर घटकर 2.3 फीसद हो गई। इसका नतीजा यह हुआ है कि 18 राज्यों में टोटल रिप्लेसमेंट दर 2.1 फीसद से भी कम हो चुकी है।

जहां तक बात रही उत्तर प्रदेश की तो साल 1981 में उत्तर प्रदेश का कुल प्रजनन दर 5.8 था। यानी उत्तर प्रदेश में उस दौरान एक औरत तकरीबन से लेकर बच्चों को जन्म देती थी। साल 2016 में यह आंकड़ा घटकर 2.7 रह गया है। उत्तर प्रदेश के शहरों में कुल प्रजनन दर 2.1 है यानी टोटल रिप्लेसमेंट दर के बराबर है और गांव में है। यानी मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश की हर एक औरत से लेकर बच्चों को ही जन्म देना चाहती है। यह टोटल रिप्लेसमेंट दर 2.1 की बिल्कुल नजदीक है। साल 2011 से लेकर 2016 तक भारत की कुल आबादी में वृद्धि दर 1.3 की आंकी गई है। इस आधार पर विशेषज्ञों का कहना है कि बिना किसी छेड़छाड़ के 2030 से पहले ही उत्तर प्रदेश की आबादी टोटल रिप्लेसमेंट दर 2.1 से कम हो जाएगी।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2016 का आंकड़ा है उत्तर प्रदेश में 75% हिंदू महिलाएं तीसरे बच्चे की चाहत नहीं रखती हैं और तकरीबन 54 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाएं भी बच्चों से अधिक बच्चों को जन्म देना नहीं चाहती हैं।

तकरीबन 18% उत्तर प्रदेश की महिलाएं ऐसी हैं जो किसी गर्भनिरोधक उपाय के न होने की वजह से गर्भवती हो जाती हैं। वह अनचाहे गर्भधारण का शिकार हो जाती है। अगर उन्हें किसी भी गर्भ निरोधक उपाय का पता होता या वहां तक उनकी पहुंच होती तो वह ऐसा कदम न उठाती।

इन सब आंकड़ों के अलावा एक और आंकड़ा है जिस पर गौर करना चाहिए। दुनिया भर की वैश्विक संस्थाओं का कहना है की पूरी दुनिया जनसंख्या के संकट से गुजरने लगी है। यहां पर आबादी बढ़ना नहीं बल्कि भविष्य में आबादी कम होने को आबादी का संकट कहा गया है। विश्व की प्रतिष्ठित विज्ञान की पत्रिका लांसेट और वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि भारत की आबादी 2046 तक बढ़ेगी। यह बढ़कर 160 करोड़ तक पहुंच सकती है। लेकिन इस सदी के अंत में यानी साल 2100 तक भारत की कुल आबादी महज 109 करोड़ होगी। तकरीबन 100 करोड़ के आसपास रह जाएगी।

 इन आंकड़ों से साफ है कि न तो भारत में और ना ही उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है। इसलिए ना ही ऐसी नीति और कानून की जरूरत है जहां पर दो या दो से कम बच्चे होने पर राज्य द्वारा प्रोत्साहन दिया जाए और दो से अधिक बच्चे होने पर राज्य द्वारा प्रोत्साहन हटा लिया जाए।

 जनसंख्या और परिवार नियोजन के विषय पर पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया नाम की एक संस्था काम करती है। इसकी निदेशक पूनम मुथरेजा का बयान कई अंग्रेजी के मीडिया प्रतिष्ठानों में छपा है। इनके मुताबिक जो गलती चीन ने की वही गलती हम करने जा रहे हैं। चीन की साल 2020 में प्रजनन दर 1.3 पर पहुंच चुकी है। यानी उसकी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा गैर कार्यबल से जुड़ा हुआ है। वहां पर जनसंख्या नियंत्रण से जुड़े सारे प्रतिबंध हटा लिए गए हैं। तीसरा बच्चा पैदा करने के लिए अनुमति दे दी गई है। यानी वहां पर कानून ने काम नहीं किया। इंटरनेशनल डेवलपमेंट ऑन पॉपुलेशन के साथ दुनिया के तकरीबन 189 देशों ने जनसंख्या नियंत्रण से जुड़े कार्यवाही से जुड़े समझौते पर हस्ताक्षर किया है। इसमें भारत भी शामिल है। इसमें साफ शब्दों में कहा गया है कि जनसंख्या नियंत्रण को लेकर किसी भी तरह की प्रोत्साहन और प्रोत्साहन न देने वाली नीति नहीं बनाई जाएगी। इसकी बड़ी वजह यह है कि ऐसी नीतियों से लिंग अनुपात पूरी तरह से गड़बड़ हो जाता है। परिवारों के बीच परिवार नियोजन से जुड़े उपाय और औरतों के बीच गर्भ निरोधक उपाय पहुंचाने की ज्यादा जरूरत है। जितना अधिक जोर कानून पर लगाया जा रहा है उतना अधिक जोर शिक्षा पर लगाने की जरूरत है।

 देशभर में जनसंख्या नियंत्रण के लिए दो बच्चों की नीति अपनाने वाली याचिका इसी सरकार के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में पहले भी दायर की जा चुकी है। जिस याचिका के खिलाफ परिवार और स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय ने एफिडेविट दायर कर अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि भारत में परिवार नियोजन की प्रकृति स्वैच्छिक है। यानी पति पत्नी पर परिवार नियोजन के लिए कोई बाहरी दबाव नहीं होगा। उन्हें अपने स्वविवेक से जो अच्छा लगेगा उसे वह अपना सकते हैं।

 यूपीए सरकार के दौरान से कई राज्यों में यह नियम बना है कि जिनके दो बच्चों से अधिक बच्चे होंगे वह पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। ठीक इसी तरह से और भी नियम पहले से मौजूद हैं। जैसे व्यक्तिगत टैक्स की गणना करते समय तीसरे बच्चे की ट्यूशन फीस और हॉस्टल फीस पर छूट नहीं दी जाएगी। अब सवाल उठता है कि क्या नियमों का कुछ फायदा पहुंचता हैतो जानकारों का कहना है कि यह आबादी का बहुत छोटा हिस्सा होता है। फ़ीसदी से कम लोग सरकारी नौकरी करते हैं। मुश्किल से चार-पांच फ़ीसदी लोग ही इनकम टैक्स फाइल करते हैं। यह आबादी का वह हिस्सा है, जो पढ़ा लिखा हैजागरूक है। इसे कोई प्रोत्साहन मिले या ना मिले। फिर भी इस आबादी का अधिकतर हिस्सा हम दो और हमारे दो की नीति पर ही चलता है।

 जहां तक पंचायत चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की बात है तो यह बड़ी गड़बड़ स्थिति है। मध्य प्रदेश में आईएएस रह चुकी निर्मला बुच का अध्ययन बताता है कि कई दफे तो ऐसा देखा गया कि पंचायती चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों ने तलाक दे दिया। स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने से जुड़े योग्यता के संदर्भ में ऐसी नीतियां बड़ी गंभीर परिणाम भी दिखाती हैं।

 इन सबके अलावा दो बच्चों की नीति का सबसे बड़ा असर औरतों और गरीब परिवारों पर पड़ता है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के 2016 के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में पिछले सालों का लिंग अनुपात मात्र 903 है। यानी 1000 मर्दों पर केवल 903 औरतें हैं। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली तकरीबन आधी महिलाएं साक्षर नहीं है।

 ऐसी स्थिति में बिना महिलाओं को उनका हक बताएंमहिलाओं की चेतना का विकास किए और महिला सशक्तिकरण किए बिना जब दो बच्चों की नीति अपनाई जाएगी तब इसका भयंकर परिणाम निकल कर सामने आएगा। भारतीयों परिवारों के भीतर लड़का पाने की चाह की कोई सीमा नहीं है। हिंदी पट्टी में तो स्थिति और बदतर है। अब भी कई परिवार मिल जाएंगे जहां पर एक लड़के की चाह में 6,7 बच्चे हो जाया करते हैं। लड़का जन्मा तो वही सर्वे सर्वा हो गया बाकी सब की सब लड़कियां बिना परिवार के ही रह गई। हिंदुस्तानी मानस की यह सोच बड़ी खतरनाक स्थिति पैदा कर सकती है।

 इंडिया स्पेंड पर छपी श्रेया खेतान की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 22 राज्यों में 19 राज्य में लिंगानुपात की स्थिति गड़बड़ है। ऐसे में दो बच्चों की नीति की कोई जरूरत नहीं है। जमीनी हकीकत यह है कि पहला बच्चा लड़का हो या लड़की इसकी परवाह परिवार को कम होती है। लेकिन जैसे ही पहला बच्चा लड़की हो जाती है तो अधिकतर परिवार लड़का होने को लेकर दबाव बनाने लगते हैं। भारत जैसे देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति पहले से ही बहुत लचर है। ऐसे में जब मामला भ्रूण हत्या तक पहुंचता है जिसकी इजाजत सरकार भी नहीं देती है तब सोचिए क्या होता होगा। असुरक्षित अबॉर्शन की शिकार तकरीबन आधी महिलाएं होती हैं। उनके शरीर पर बहुत गंभीर असर पड़ता है।

 नसबंदी के बारे में सबको पता है। मर्द और औरत दोनों नसबंदी करा सकते हैं। लेकिन हमारे समाज में नसबंदी कराएगी तो केवल औरत। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में  तकरीबन 0.1 फ़ीसदी मर्द ही नसबंदी कराने के लिए तैयार हुए। नसबंदी कराने वाली 77% महिलाओं को यह पता तक नहीं होता कि उनके शरीर के साथ क्या होने जा रहा है। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ से एक रिपोर्ट आई थी कि बिलासपुर के किसी हॉस्पिटल में एक ही दिन में किसी डॉक्टर ने 83 औरतों की नसबंदी की। जिसमें से 13 औरतें मर गई। बताया जाता है कि यह असुरक्षित ढंग से नसबंदी करने से हुआ।

 अब सवाल उठता है कि जब सारी स्थितियां जनसंख्या नियंत्रण के कानूनी उपाय की तरफ जोर नहीं देती तो योगी सरकार यह कानून लेकर क्यों आई हैइस सवाल का जवाब देते हुए राजनीतिक विश्लेषक आशीष रंजन कहते हैं कि महीने बाद चुनाव होने वाले हैं। गवर्नेंस के नाम पर दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है। मुस्लिमों को लेकर हमारा समाज कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। यह पूर्वाग्रह तो और जोरों पर है कि मुस्लिम लोग खूब बच्चे पैदा करते हैं। चुनावी रणनीति के लिहाज से इसे ही भुनाने की कोशिश है। भाजपा के पास राष्ट्रवाद राम मंदिर जैसे मुद्दे पहले से थे। अब उसका हथियार जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे बनने वाले हैं।

 अशीष रंजन कहते हैं कि जहां तक मेरी समझ है संवैधानिक तौर पर यह उचित नहीं दिखता कि किसी से उस से बच्चा जन्म देने का अधिकार छिना जाए। यह परिवार का व्यक्तिगत फैसला होना चाहिए। एक लिहाज से ठीक लगता है कि अगर कोई जनसंख्या नियंत्रण में भागीदारी बन रहा है तो उसे राज्य प्रोत्साहित करें लेकिन यह पूरी तरह से गलत है कि अगर कोई जनसंख्या नियंत्रण में भागीदार नहीं बन रहा है तो राज्य उसे दंडित करे। बच्चा पैदा करना अपराध नहीं है। इसके लिए सरकारी नौकरी न दी जाए। आरक्षण वापस ले लिया जाए। राशन न दिया जाए। राज्य को ऐसा कदम उठाना उचित नहीं लगता। इसका सबसे बड़ा असर गरीब निचली जातियों और मुस्लिमों पर ही पड़ेगा। सरकारी जगहों पर पहले से ही इनकी उपस्थिति कम है। अगर ऐसे नियम कानून बना दिए जाएं तब तो और अधिक कम हो जाएगी। जनसंख्या अपने आप नियंत्रित अवस्था में चल रही है तो 2030 के पहले उत्तर प्रदेश की जनसंख्या भी नियंत्रित हो जाएगी। ऐसे में यह केवल हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिहाज से उठाया गया फैसला लगता है। अब देखने वाली बात यह होगी कि विपक्ष और जनता इसे कैसे बेअसर करती है।

 इसे देखें- खोज ख़बर: जनसंख्या की आड़ में ज़हर क्यों योगी जी

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