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गृह मंत्रालय 2020 की समीक्षा: धूर्तता और सत्तावादी अहंकार की मिसाल?

कैपिटल हिल और भारत के गृह मंत्रालय में दंगाइयों के स्वत:स्फूर्त होने के इर्द-गिर्द घुमड़ते कुछ सवाल।
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फ़ोटो: साभार: द हंस इंडिया

7 जनवरी को गृह मंत्रालय (MHA) ने साल 2020 की अपनी समीक्षा रिपोर्ट जारी की। इसमें ज़्यादातर बातें गृहमंत्री, अमित शाह से जुड़ीं ऐसी नियमित घोषणाएं थीं, जिसमें ख़ुद की पीठ थपथपाने की बातें थीं।

जैसा कि अब पूरी दुनिया वाकिफ़ है, अपने पद से कुछ ही दिनों में विदाई लेने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति, डोनाल्ड ट्रम्प की तरफ़ से सक्रिय रूप से उकसाये गये एक भीड़ ने कैपिटल हिल पर हमला कर दिया और वहां घुसपैठ की।उनकी इस कार्रवाई से भले ही उन्हें ख़ुशी मिली हो, मगर इससे बहुत नुकसान पहुंचा है। हल्के अंदाज़ में विद्रोह कही जा रही इस तोड़-फोड़ के एक दिन बाद ट्रम्प ने एक वीडियो जारी किया, जिसमें उन्होंने 20 जनवरी को एक व्यवस्थित सत्ता हस्तांतरण का वादा करते हुए घटना को लेकर खेद जताया। लेकिन,जिस दिन दंगाइयों ने वोटों की अंतिम गिनती करने और बाइडेन को विजेता घोषित किये जाने से रोकने के लिए कैपिटल हिल पर धावा बोला था,उस दिन ट्रम्प अपने "समर्थकों" को कुछ इस तरह प्रोत्साहित करते रहे थे-"हम जी-जान और एकजुट होकर लड़ते हैं। और अगर आप इस तरह नहीं लड़ते हैं, तो आपके पास अब कोई देश नहीं बचेगा।”

उस "बलवे" को ख़त्म कर दिये जाने के बाद गिनती फिर से शुरू हुई और अजीब संयोग है कि उसी दिन नई दिल्ली में इसी तरह से प्रेरित एक मामला भी सामने आया, जिस समय 7 जनवरी के शुरुआती घंटों में बाइडेन की जीत की पुष्टि की जा रही थी, हालांकि, 6 जनवरी को जिस समय स्थिति पर क़ाबू पाने की कोशिश की जा रही थी, ट्रम्प ने उसी दरम्यान दावा किया था कि उन्होंने ही ऑपरेशनों की मदद के लिए नेशनल गार्ड्स को लामबंद किया था। हालांकि जिस बेकार की चीज़ों में ट्रंप लगे हुए थे, वह जल्द ही ख़त्म हो गयी, उस दरम्यान उपराष्ट्रपति माइक पेंस ने आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये थे।

ट्रम्प का वाशिंगटन में हिंसा का उकसाया जाना और इस समय के सबसे चहेते आदमी होने के उनके दावों वाली घटनाओं के इस परिशिष्ट का बारीक सम्बन्ध पहली ही नज़र में साल के अंत में जारी होने वाली गृह मंत्रालय की समीक्षा से है। 19 पन्नों के इस दस्तावेज़ का तक़रीबन एक पूरा का पूरा पृष्ठ (पृष्ठ 6-7) शाह के पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए उन दंगों से निपटने पर रौशनी डालता है, जो 23 फ़रवरी 2020 को शुरू हुआ था और लगभग एक सप्ताह तक चला था। इस दरम्यान नौकरशाहों ने हमेशा की तरह इस पर पर्दा डालने की कोशिश की है, लेकिन तमाम कोशिश बेकार साबित होती दिखी। "दिल्ली दंगे-गृह मंत्री के क़दम" शीर्षक वाले इस दस्तावेज़ में दावा किया गया है कि जिस समय दंगे ज़ोरों पर थे, उसी दरम्यान शाह ने 25 फ़रवरी को पार्टियों और अधिकारियों की एक बैठक की अध्यक्षता की थी, उन्होंने उस बैठक में पार्टियों से "ऐसे भड़काऊ भाषणों और बयानों से बचने का आग्रह किया था, जिससे कि सांप्रदायिक हिंसा भड़क सकती है", ऐसा कहने के पीछे हिंसा को स्वत:स्फूर्त दिखाने की कोशिश थी। रिपोर्ट में इस बात का भी दावा किया गया है कि उन्होंने अतिरिक्त बलों की तैनाती का निर्देश दिया था, हालांकि ज़मीन पर जो कुछ भी किया गया था, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अंजाम दिया था। किसी भी कार्रवाई में शाह नज़र नहीं आये थे।

12 मार्च को राज्यसभा में हुई एक बहस में जवाब देते हुए शाह ने जान-माल के नुकसान पर दुख व्यक्त किया था; देश को आश्वस्त किया था कि जाति, पंथ, राजनीतिक जुड़ाव,आदि-आदि की परवाह किये बिना अपराधियों को दंडित किया जायेगा; संपत्ति को होने वाले नुकसान की भरपाई इन दंगों में शामिल बदमाशों से वसूली जायेगी; दंगों से ठीक पहले बनाये गये कई सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को बंद कर दिया गया था; भड़काने वालों को दंडित किया जायेगा; और राजनीतिक दलों से अनुरोध किया गया था कि वे लोगों के भीतर से डर को निकालें।

अगर इन बयानों में गोल-मोल बातें है, तो शाह ने एक और बयान दिया था, जो ख़ुद संघ परिवार के रूढ़िवादी होने के बावजूद चकित करने वाला बयान था, यह बयान था-निहित स्वार्थ "भारतीय मुसलमानों में इस बात का भ्रम और भय पैदा कर रहे थे कि सीएए (नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019) उनकी नागरिकता को छीन लेगा "और" पिछले दो महीनों से सीएए के विरोध प्रदर्शन के बहाने जो नफ़रत भरे भाषण दिये जा रहे थे, उसी वजह से दिल्ली में दंगे हुए।

ये सभी बयान ट्रम्प के उस बयान से अलग नहीं थे, जिसमें दावा किया गया था कि उग्र भीड़ से हालात बिगड़ने के बाद ही वाशिंगटन को नियंत्रण लाया गया था। सवाल है कि यहां क्या चल रहा था। सबसे पहले तो पार्टियों को ऐसे भड़काऊ भाषण देने से रोकने के लिए कहना, जो दंगों के तीसरे दिन भी हिंसा पैदा कर सकते हैं, जबकि उनकी ही पार्टी के नेता, ख़ासकर कपिल मिश्रा ऐसे बयान दे रहे थे, जिससे दंगे को हवा मिली थी। इससे पहले भी दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने नेताओं को जानबूझकर ऐसी बयानबाज़ी करने में लगाया था, जिसमें गोली मारने तक की बात की गयी थी, ऐसे लोगों में अन्य नेताओं के साथ-साथ केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री, अनुराग ठाकुर भी शामिल थे। शाह के चुनावी अभियान में की गयी बयानबाज़ी आग भड़काने वाली थी और जो कुछ हुआ, उसकी ज़मीन तैयार करने में भी वह बयानबाज़ी मददगार थी। 27 जनवरी 2020 को उन्होंने मतदाताओं से इतने गुस्से में वोटिंग मशीन का बटन दबाने की मांग की थी कि इससे सीएए के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध कर रहे प्रदर्शन स्थल, शाहीन बाग़ में इसकी "करंट" महसूस किया जा सके। इस तरह, दंगों के स्वत:स्फूर्त बताये जाना सवाल के घेरे में है।

दूसरा,अतिरिक्त बलों को तैनात किये जाने का मुद्दा अब भी बना हुआ है, क्योंकि यह बात सबूतों के साथ दर्ज है कि हिंदुत्व की हिंसक फ़ौज के द्वारा उन मुसलमानों के मारे जाने और उनकी संपत्ति को नुकसान पहुचाये जाने को देखते हुए भी दिल्ली पुलिस के कई जवान वहां मूकदर्शक बने खड़े थे, जबकि उस दरम्यान मारे जा रहे लोगों की संलग्नता किसी भी तरह की हिंसात्मक गतिविधि में बिल्कुल नहीं थी।

तीसरा मुद्दा उस आश्वासन का है, जिसमें कहा गया है कि दंगे भड़काने के दोषियों को दंडित किया जायेगा। दिल्ली पुलिस द्वारा की गयी जांच और कार्रवाई की जटिलता में इसकी सच्चाई बेपरदा हो जाती है, क्योंकि तक़रीबन एक साल बीतने वाला है, लेकिन हिंदुत्व ब्रिगेड के कुछ ही वास्तविक अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की गयी है। मिश्रा, जिन्हें दंगा भड़काने वाले अहम लोगों में गिना जाना चाहिए था, वह आज़ाद घूम रहे हैं। इसके विपरीत, गृह मंत्रालय के आदेशों के तहत दिल्ली पुलिस जिन दंगा पीड़ितों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की नीति अपना रही है, उनमें बड़े पैमाने पर मुसलमान और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी हैं, हालांकि इसमें ख़ास तौर पर मुसलमान नहीं हैं। कोविड-19 महामारी के बीच मुस्लिम नौजवान को बिना किसी औपचारिक कार्रवाई किये जेल में डाल दिया गया है। एक गर्भवती महिला (अब ज़मानत पर रिहा) सहित सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को सामूहिक तौर पर सख़्त और मनगढ़ंत आरोप लगाकर क़ैद में रखा गया है।

जो दो अधिताकी इस पूरे मामले की जांच की अगुवाई कर रहे हैं, उनकी विश्वसनीयता लेशमात्र  की नहीं है। एक को तो चुनाव आयोग ने ही सेंसर किया हुआ है, दोनों ही दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई हिंसा और पुलिस की बर्बरता से जुड़े मामलों में भाजपा और उसके सहयोगियों के पक्ष में "जांच" कर रहे हैं। भारत में क़ानून के शासन को लेकर जितना कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शाह की तरफ़ से कहा जाता रहा है, वह भाजपा और उसके सहयोगियों के बिल्कुल अनुरूप है।

आख़िर में सीएए के मामले पर आते हैं। केंद्रीय गृह मंत्री ने ऊपरी सदन में जो कुछ दावा किया, वह छलावे के अलावा कुछ भी नहीं है। सीएए-विरोधी प्रदर्शन काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण था, इसमें भाग लेने वाले ज़्यादातर लोग छात्र और ग़ैर रानजीतिक नागरिक थे, जिनमें से ज़्यादातर किसी भी तरह के सार्वजनिक प्रदर्शनों में पहली बार भागीदारी कर रहे थे, इनमें कई मुस्लिम गृहणियां और बुज़ुर्ग भी थे। व्यावहारिक रूप से नफ़रत फ़ैलाने वाले भाषणों का कोई सुबूत तब तक नहीं सामने आयेंगे, जब तक कि आप मौजूदा अप्रगतिशील, बहुसंख्यकवादी और ज़हरीली शासन व्यवस्था और इस व्यवस्था को चलाने वाली पार्टी की तरफ़  से एक असंवैधानिक क़ानून पारित किये जाने को लेकर नफ़रत फ़ैलाने वाले उत्तेजक भाषणों को चिह्नित करते हुए उसकी आलोचना नहीं करते हैं। ये वे आलोचनात्मक भाषण थे, जो लोकतंत्र में वैध माने जाने वाली असहमति के तौर पर आम लोगों को अच्छी तरह से समझ में आते हैं।

दिल्ली के दंगों को भड़काने में सीएए विरोधी प्रदर्शनों की कोई भूमिका नहीं थी। हक़ीक़त यह है कि मिश्रा जैसे लोगों का दिल्ली विधानसभा चुनाव में बतौर उम्मीदवार मिली ज़बरदस्त हार का बदला लेने के बहाने के तौर पर इन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों का इस्तेमाल दंगों को भड़काने के लिए किया गया। असली बात तो यही है।

दिल्ली दंगों के सिलसिले में 2020 की यह रिपोर्ट झूठ का एक पुलिंदा है। इस तरह, सच की कई ग़लत व्याख्यायें हैं, मसलन-कोविड-19 महामारी से निपटने, ख़ास तौर पर प्रवासी श्रमिकों के साथ होने वाले बर्ताव के सिलसिले में केंद्र के अख़्तियार किये गये रुख की व्याख्या और अनुच्छेद 370 की संकीर्ण व्याख्या। लेकिन अब, हिंसा की जांच के सिलसिले में क़ानून के शासन के मुद्दे पर उस फुटनोट के तौर पर आये एक दूसरी घटना का उल्लेख किया जाना चाहिए, जिसे लगता है कि गृह मंत्रालय की इस समीक्षा में कोई जगह नहीं मिली है। 24 दिसंबर को दिल्ली पुलिस ने दंगा पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील, महमूद प्राचा के दफ़्तरों पर छापा मारा था और वहां से कंप्यूटर और अन्य डिजिटल उपकरणों को ज़ब्त कर लिया था। वकीलों के कई संगठनों-बार एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने खुले तौर पर इस छाप मारे जाने की निंदा की है, ख़ास तौर पर इस आधार पर कि यह एक मुवक्किल और एक वकील के बीच के गोपनीय सम्बन्धों का उल्लंघन है।

मुमकिन है कि गृह मंत्रालय अपनी उपलब्धियों की सूची में इस प्रकरण का उल्लेख करना भूल गया हो, जिसकी सूची में पिछले छह वर्षों से सक्षम सत्तावादी शासन और संस्थानों और संवैधानिक प्रक्रियाओं की तोड़फोड़ दर्ज होती रही है। एक रिपोर्ट कार्ड के तौर पर गृह मंत्रालय की यह समीक्षा इन दोनों ही मायने में शिक्षाप्रद है कि अहंकार में चूर होकर लोकतंत्र और मज़बूत अर्थव्यवस्था, दोनों को ध्वस्त किया जा रहा है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

https://www.newsclick.in/MHA-2020-review-exemplar-fabrication-authoritarian-pride

 

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