Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बेहतर नगरीय प्रशासन के लिए नई स्थानीय निकाय सूची का बनना ज़रूरी

74वां संविधान संशोधन पूरे भारत में स्थानीय नगरीय निकायों को मज़बूत करने में नाकाम रहा है। आज जब शहरों की प्रवृत्तियां बदल रही हैं, तब हमें इस संशोधन से परे देखने की ज़रूरत है।
urban

तमिलनाडु, ओडिशा, पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों में नगरीय प्रशासन के हालिया चुनावों, जिन्हें नगर निकाय कहा जाता है, उन्होने साबित किया है कि नगरीय प्रशासन, राज्य सरकार के सहायक से ज़्यादा कुछ नहीं है।

इन सभी राज्यों में जहां चुनाव हुए, उसके साथ-साथ, अन्य स्थानीय निकायों के चुनावों में आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करने की प्रवृत्ति रही है। खराब शहरी नीतियों के तले कुचले शहरी मतदाता को लगता है कि अगर नगरीय प्रशासन, राज्य सरकार के साथ अच्छी तरह से संबद्ध रहेगा, तो उसे कुछ राहत मिल सकेगी। एक आम समझ यह है कि शहर को ज़्यादा पैसा मिलेगा और ज़्यादा विकास कार्य हो पाएगा। लेकिन ऐसा नहीं होता।

मशहूर आर्किटेक्ट चार्ल्स कोरिया, जो 80 के दशक के मध्य में बनाए गए नगर आयोग के पहले अध्यक्ष थे, उन्होंने कहा: नगर और राज्य प्रशासन को स्वस्थ्य विकास के लिए प्रतिस्पर्धी होना चाहिए। चुनी हुई परिषद या महापौर बमुश्किल ही शहरों को चलाते हैं। इसके बजाए, मुख्यमंत्री नगर प्रशासन के मामलों को देखते हैं और नीतिगत मामलों पर पूरा नियंत्रण रखते हैं।

दिल्ली में केंद्र सरकार, राज्य सरकार और नगर निगम के द्वि-स्तरीय ढांचे को धता बताकर खुद शहर का नियंत्रण लेना चाहती है। दिल्ली में योजना बनाने का काम पहले ही केंद्र सरकार के पास है। दिल्ली विकास प्राधिकरण ही शहर-राज्य के लिए मास्टर प्लान बनाने का काम करता है, यह प्राधिकरण केंद्र सरकार के अंतर्गत है। 

 अब केंद्र तीनों नगर-निगम को एक ही निकाय में मिलाकर पूर्ण नियंत्रण करना चाहता है, केंद्र को आशा है कि संगठित नगर निगम में बीजेपी की ही जीत होगी। खैर यह तो जनता तय करेगी। लेकिन एक से तीन, फिर तीन से वापस एकीकृत नगर निगम करने फ़ैसले में लोगों की राय नहीं लेना, बताता है कि सरकारों को फ़ैसले लेन की प्रक्रिया में जन-भागीदारी का सम्मान नहीं है। 

ऐसा क्यों है कि नीतिगत मामलों में बमुश्किल ही जनता को विश्वास में लिया जाता है, इस तरह उन्हें और दूर कर दिया जाता है? प्रशासनिक ढांचे में ऐसा होने की कई वजह हो सकती हैं। लेकिन मैं यहां सबसे प्रमुख वज़ह बताता हूं। नगर योजना राज्य का विषय है। भारतीय संविधान में तीन सूचियां हैं- केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। राज्य सूची का मतलब है कि इसके विषय पर राज्य सरकार काम करेगी। 

राज्य सरकार प्रत्यक्ष ढंग से नगर योजना को नियंत्रित करती है क्योंकि यह एक राज्य सूची का विषय है। 1980 से नगर योजना की अहमियत पर एक विमर्श शुरू हो गया। पहले नगर आयोग कुछ सुझाव दिए। फिर 74वां संविधान संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा 18 विषय नगर प्रशासन को स्थानांतरित कर दिए गए। 

इनमें शामिल हैं: नगर योजना, भूमि उपयोग का नियमन, आर्थिक विकास के लिए योजना बनाना, सड़क औऱ पुल, जल आपूर्ति, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अग्नि शमन सेवा, नगर वनकऱण, कमज़ोर तबकों के हितों को सुरक्षित करना, शमशान और कब्रगाह के मैदान, पशुओं के तालाब, गरीबी उन्मूलन, पार्क जैसी कई शहरी सुविधाएं, सांस्कृतिक पक्ष को प्रोत्साहन, पशुओं के खिलाफ़ क्रूरता को रोकना, जन्म और मृत्यु का पंजीकरण, लाइट-पार्किंग-बस स्टॉप जैसी सार्वजनिक सुविधाएं, कसाईखानों का नियमन आदि।  

इन्हें तीन "एफ" कार्यप्रणाली (वित्त, कार्य और कर्मचारियों) के ज़रिए चलाया जाना था। लेकिन हैरान करने वाला तथ्य यह है कि पूरे भारत में नगर प्रशासनों को सिर्फ़ तीन या चार कार्य ही हस्तांतरित किए गए। ज़्यादातर कार्य अब भी राज्य सरकारों के पास हैं और चुनी हुई परिषदें पूरी तरह राज्य सरकार के रहमो-करम पर काम करती हैं।

शहर बहुत ज़्यादा संपदा का सृजन करते हैं। देश की 66 फ़ीसदी से ज़्यादा जीडीपी शहरों से उत्पादित होती है। शहर ऊर्जा के सबसे बड़े हिस्से की खपत करते हैं और उनके पास एक बहुत बड़ा ग्राहक वर्ग है। हाल के दशकों में बड़ी पू्ंजी, भारतीय शहरों को अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के क्षेत्रों के तौर पर देख रही है। ऐसा करने के क्रम में सबसे अहम उपकरण नगर योजना है। यही प्रक्रिया एक शहर में भूमि के उपयोग को और यह तय करती है कि रियल एस्टेट आदि से उपजने वाले आर्थिक पहलू के साथ पूंजी किस तरह गमन करेगी। 

दूसरा क्षेत्र, उन सुविधाओं का निजीकरण है, जो हाल के वक़्त में बेतहाशा बढ़ी हैं। इनमें जल, सफ़ाई, स्वास्थ्य, विद्युत, शिक्षा और ऐसे विषय शामिल हैं, जिनमें निजी पूंजी अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए प्रवेश करती है। और यह सब बेहतर प्रदर्शन और कुशलता की आड़ में किया जाता है। राज्य इन अहम प्रशासनिक क्षेत्रों को खोना नहीं चाहता, इसकी आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही वज़हें हैं।  

जब 74वें संविधान संशोधन का 2012 से 2014 के बीच परीक्षण किया जा रहा था, तो एक दिलचस्प वास्तविकता सामने आई (यह काम के सी शिवरामकृष्णन, पूर्व शहरी विकास सचिव के नेतृत्व में किया जा रहा था, मैं भी इस टीम का हिस्सा था)। मुंबई के महापौर अपने कार्यकाल के बाद विधायक बनना चाहती थीं। मुंबई शहर में शायद पांच सांसद और करीब़ 30 विधायक हैं। सोचिए एक महापौर अपने कार्यकाल के बाद विधायक बनना चाहती हैं। यह क्रम साफ़ बताता है कि शहरी प्रशासन के मौजूदा ढांचे में बदलाव करने की जरूरत है। 

स्थानीय निकायों की सूची बनाएं

अब वक़्त आ गया है कि हम 74वें संविधान संशोधन के दायरे से बाहर जाकर सोचें। अब इसे लागू करवाने के लिए जोर लगाने का फायदा नहीं है। अब मौजूदा ढांचे में जरूरी है कि उन विषयों को अलग किया जाए, जिन्हें शहरी प्रशासन को स्थानांतरित किया जाना अनिवार्य है। 74वें संशोधन द्वारा दिशाहीन ढंग से इन विषयों को आवंटित करने का प्रबंध किया गया था, जहां यह आवंटन राज्य सरकार के लिए अनिवार्य नहीं बनाया गया था। अब जरूरी है कि शहरी तंत्र को संभालने के लिए इन विषयों की नई सूची बनाई जाए। क्यों?

पिछले कुछ दशकों में शहरी परिदृश्य में बेहद तेज बदलाव आया है। अब करीब़ 40 फ़ीसदी लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। प्रशासन के कई स्तर, अब सीधी-सीधी चीजों को भी जटिल बना रहे हैं और शहर में उपलब्ध करवाई जाने वाली सेवाओं को प्रभावित कर रहे हैं। श्रम ढांचे में पूर्णत: बदलाव आ चुका है। अब बड़े निर्माण केंद्र होने के बजाए, पूंजी का सामाजिक उत्पादन शहरों में ज्यादा प्रभावशाली है। 

सीधे शब्दों में कहें, तो जो चीजें पारिवारिक स्तर पर हो जानी चाहिए थी, अब वे सामाजिक उत्पादन में अलग आकार ले रही हैं। अब नए प्लेटफॉर्म वाली अर्थव्यवस्था है, जो ज़्यादातर शहरों में देखी जा सकती है। अनौपचारिक क्षेत्र के कर्मचारियों की संख्या बेतहाशा बढ़ चुकी है, जबकि मोलभाव करने की उनकी क्षमता में बेहद कमी आई है। 90 के दशक की शुरुआत में प्रवास बड़ा मुद्दा नहीं था, लेकिन आज यह है। 

शहरों में पर्यावरण परिवर्तन का प्रभाव साफ़ दिखाई दे रहा है। हमारे यहां दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहर मौजूद हैं। नगरीय सार्वजनिक स्त्रोतों और जैव विविधताओं को शहरीकरण ने अपने सबसे खराब प्रारूप में जमकर लूटा है।

यहां तक कि नगरीय प्रशासन भी फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में लोगों को और दूर कर रहा है। अपने नगरीय भविष्य को तय करने में बमुश्किल ही लोगों की कोई भागीदारी है। स्मार्ट सिटी-एसपीवी मॉ़डल को अफ़सरशाही नियंत्रित करती है, जिसमें लोगों की कोई भागीदारी नहीं होती। 

यह कैसे होना चाहिए?

राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की तरह, स्थानीय निकाय के अधिकारियों के लिए भी अलग से कैडर होना चाहिए। स्वास्थ्य, जल, सफ़ाई, शिक्षा, अग्नि शमन, आवास और सामाजिक क्षेत्र जैसे विषय पूरी तरह स्थानीय निकायों के पास होने चाहिए। इसी तरह नगरीय योजना भी नगरीय प्रशासन के पास होना चाहिए। मौसम परिवर्तन, जैव विविधता, आपदा प्रबंधन और अनुकूलन जैसे विषय भी स्थानीय निकायों को दिए जाने चाहिए। 

यहां कुछ मुद्दों के साथ चुनौती हो सकती है, जिनकी प्रवृत्ति परिधीय (शहर के आसपास) है। इसके लिए एक तंत्र बनाया जाना चाहिए, जो शहर और उसके आसपास के इलाकों के बीच संवाद का प्रबंध करे और आपस में उनका समन्वय करवाए। नगरीय प्रशासन को तुरंत वित्त मुहैया कराया जाना चाहिए और ऐसा जीएसटी से लेकर आयकर तक होना चाहिए। किसी नगरीय प्रशासन की परिधि से जितना आयकर इकट्ठा किया गया है, उसका 10 फ़ीसदी उन्हें दिया जाना चाहिए। यह अच्छी शुरुआत हो सकती है। 

शहरों और उनके लोगों को एक सुरक्षित और रहने लायक भविष्य देने के लिए जरूरी है कि नगर योजना को उनके सुपुर्द किया जाए, ना कि इसे पेशेवर लोगों तक सीमित किया जाए। यह शहरी विकास के सबसे सृजनात्मक पहलुओं को भी बाहर लाएगा। बाद में ऐसा करने से बेहतर है कि अभी यह किया जाए। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

For Better City Governance, Local Body List is a Must

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest