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क्या प्रेस की आज़ादी से सरकार को ख़तरा है!

पत्रकारों के एक बड़े समूह ने सड़क से सोशल मीडिया तक सरकार और पुलिस के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है। उनका कहना है कि पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के इस्तेमाल का बढ़ता चलन और एक के बाद एक दर्ज होते आपराधिक मामले इस ओर इशारा करते हैं कि सरकार प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंट देना चाहती है।
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Image Courtesy: Social Media

“स्वतंत्र विचारों को कभी बेड़ियों में नहीं जकड़ा जा सकता”

पत्रकारों के ख़िलाफ़ लगातार गंभीर धाराओं में दर्ज होते मामलों के बीच रविवार, 31 जनवरी की शाम सोशल मीडिया पर तमाम पत्रकारों द्वारा अलग-अलग भाषाओँ में ‘ये पंक्ति’ लिखकर सरकार को एक संदेश देने की कोशिश की गई।

इससे पहले दिन में स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया की गिरफ़्तारी के विरोध में बड़ी संख्या में पत्रकारों ने जय सिंह रोड स्थित दिल्ली पुलिस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन करते हुए प्रेस क्लब तक मौन मार्च निकाला।

इस दौरान पत्रकारों ने कहा कि शासन-प्रशासन पत्रकारों की आवाज़ दबाने का काम कर रहा है। जो लोग गलत नैरेटीव का खंडन कर, सच्चाई दिखाने की कोशिश करते हैं, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है, लेकिन जो लोग खुलेआम गलत करते हैं, उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं होता।

दिल्ली, यूपी और एमपी में पत्रकारों पर कई आपराधिक मामले दर्ज

आपको बता दें कि 26 जनवरी को हुई किसान ट्रैक्टर रैली के घटनाक्रम के बाद दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश पुलिस द्वारा पत्रकारों पर एक के बाद कई आपराधिक मामले दर्ज किये गए हैं। इस कार्रवाई को लेकर कई पत्रकार संगठनों ने साझा प्रेस मीटिंग भी की।

इस बैठक में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, प्रेस एसोसिएशन, इंडियन वूमन प्रेस कॉर, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन शामिल थे।

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने अपने बयान में कहा, "कोई स्टोरी जब घटित हो रही होती है तो चीज़ें अक्सर बदलती रहती हैं। उसी तरह जो स्थिति है, वही रिपोर्टिंग में दिखती है, जब इतनी भीड़ शामिल हो और माहौल में अनुमान, शक और अटकलें हों तो कई बार पहली और बाद की रिपोर्ट में अंतर हो सकता है। इसे मोटिवेटिड रिपोर्टिंग बताना आपराधिक है जैसा कि किया जा रहा है।"

बैठक में मौजूद पत्रकार सीमा मुस्तफ़ा ने कहा, “इस तरह के दौर में पत्रकारिता कैसे की जा सकती है। ये आरोप सिर्फ पत्रकारों को डराने के लिए नहीं हैं बल्कि अपना काम करने वाले हर व्यक्ति को डराने के लिए हैं।”

किसानों की रिपोर्टिंग को लेकर किन पत्रकारों पर मुकदमे हुए?

इन तमाम विरोध प्रदर्शनों के बीच ही रविवार को उत्तर प्रदेश की रामपुर पुलिस ने न्यूज़ वेबसाइट 'द वायर' के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ एक और एफ़आईआर दर्ज कर ली है।

द वॉयर के मुताबिक गणतंत्र दिवस की किसान रैली में एक किसान की मौत को लेकर किए गए ट्वीट पर ये रिपोर्ट दर्ज की गई है। उन पर भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 153बी और 505(2) के तहत मामला दर्ज हुआ है।

इससे पहले शनिवार, 30 जनवरी की शाम कारवां और जनपथ के लिए लिखने वाले स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया को सिंघु बॉर्डर से पुलिस के काम में बाधा पहुंचाने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। रविवार दोपहर उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। उनके वकील ने बताया कि उन्हें 14 दिन की न्याययिक हिरासत में भेज दिया गया है।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक मनदीप की गिरफ्तारी उस समय हुई जब वो सिंघु बॉर्डर से रिपोर्टिंग कर रहे थे। न्यूज़ लॉन्ड्री की रिपोर्ट के अनुसार रविवार सुबह करीब 16 घंटे बाद ये जानकारी मिली की पुलिस ने मनदीप के खिलाफ आईपीसी की चार धाराओं के तहत केस दर्ज किया है। पुलिस की इस एफआईआर में मनदीप को पत्रकार नहीं माना गया है, बल्कि उनका नाम प्रदर्शनकारी को तौर पर नाम दर्ज किया गया है।

पत्रकारों का कहना है कि मनदीप ने अपने फेसबुक लाइव के जरिए स्थानीय लोगों की आड़ में बीजेपी और आरएसएस कार्यकर्ताओँ की कथित गुड़ागर्दी और पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे। इसलिए उनकी गिरफ्तारी हुई है।

राजदीप सरदेसाई समेत कई पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला

इससे पहले उत्तर प्रदेश पुलिस ने गुरुवार, 28 जनवरी को इंडिया टुडे के पत्रकार राजदीप सरदेसाई, नेशनल हेराल्ड की वरिष्ठ सलाहकार संपादक मृणाल पांडे, क़ौमी आवाज़ के संपादक ज़फ़र आग़ा, द कारवां पत्रिका के संपादक और संस्थापक परेश नाथ, द कारवां के संपादक अनंत नाथ और इसके कार्यकारी संपादक विनोद के. जोस के ख़िलाफ़ राजद्रोह क़ानून के तहत मामला दर्ज किया।

शिकायतकर्ता का कहना है कि इन लोगों ने जानबूझकर गुमराह करने वाले और उकसाने वाली ग़लत ख़बरें प्रसारित कीं और अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया। सुनियोजित साज़िश के तहत ग़लत जानकारी प्रसारित की गई कि आंदोलनकारी को पुलिस ने गोली मार दी।

यूपी पुलिस के बाद शनिवार, 30 जनवरी की रात दिल्ली पुलिस ने भी इन पत्रकारों के ख़िलाफ़ ऐसा केस दर्ज किया। यही केस मध्य प्रदेश पुलिस भी दर्ज कर चुकी है।

गौरतलब है कि देश में पिछले काफ़ी वक़्त से पत्रकार इस तरह के मामले अपने ऊपर झेल रहे हैं। हाल ही में द फ्रंटियर मणिपुर के दो एडिटर्स और एक रिपोर्टर पर देशद्रोह और यूएपीए का मामला दर्ज किया गया। पुलिस का कहना था कि लेख लिखने वाले ने मणिपुर के लोगों को सच्चा क्रांतिकारी बनने के लिए उकसाया है।

पत्रकारों के संगठन एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी उनकी रिहाई की मांग करते हुए कहा था कि कहना था कि पुलिस मौलिक अधिकारों और आज़ादी की सुरक्षा पर सुप्रीम कोर्ट के कई फ़ैसलों को लेकर जागरूक नहीं है और इसलिए कोई मीडिया संस्थान इन क़ानूनों के अतार्किक इस्तेमाल से सुरक्षित नहीं है।

प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने लिखा पीएम को पत्र

बीते साल गुजरात के धवल पटेल का मामला अंतर्राष्ट्रीय सुर्खी बना। "फेस ऑफ नेशन" वेबसाइट चलाने वाले धवल ने अपनी वेबसाइट पर एक खबर छापी थी, जिसमें कहा गया कि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी द्वारा राज्य में कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम में हुई खामियों की वजह से बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा सकती है।

अहमदाबाद पुलिस ने इस खबर को छापने के लिए खुद ही पटेल के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में एफआईआर दर्ज की और उन्हें हवालात में भी रखा। बाद में हाईकोर्ट से पटेल को जमानत मिली। इस संबंध में और 55 मामलों का उल्लेख करते हुए मीडिया की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा।

ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) और बेल्जियम-स्थित इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे) ने प्रधानमंत्री से कहा था कि पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह और दूसरे आरोप लगा कर प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है और यह बहुत ही विचलित करने वाली बात है। 

संगठनों ने यह भी कहा था कि कोरोना वायरस महामारी के फैलने के बाद इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ गई है, जो की यह दिखाता है कि महामारी की रोकथाम करने में सरकारों की कमियों को उजागर करने वालों की आवाज़ को महामारी का ही बहाना बना के दबाया जा रहा है।

यूपी में पत्रकारों पर बढ़ते मुकदमे

उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर के कई मामले सुर्खियों में आए। वहां पिछले डेढ़ साल में कम से कम 15 पत्रकारों के ख़िलाफ़ ख़बर लिखने के मामलों में मुक़दमे दर्ज कराए गए हैं। जिन्हें लेकर सड़क से सोशल मीडिया तक सरकार की आलोचना भी खूब हुई।

हालही में उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात में तीन मीडियाकर्मियों मोहित कश्यप, अमित सिंह और यासीन अली के विरुद्ध शासन-प्रशासन और बेसिक शिक्षा विभाग की छवि धूमिल करने के आरोप में मुक़दमा दर्ज किया गया है। इन पत्रकारों ने छोटे स्कूली बच्चों से सर्दी के मौसम में हाफ़ पैंट पहना कर, योग कराने की ख़बर प्रसारित की थी। पत्रकार संगठनों ने मीडिया कर्मियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा लिखे जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।

हाथरस की घटना कवर करने आए केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन पिछले तीन महीने से जेल में हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार किया तो 24 घंटे तक उनके परिवार या क़रीबी को नहीं बताया गया कि उन्हें कहां रखा गया है।

केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी डाली ताकि उनके बारे में पता चल सके। याचिका में कहा गया था कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन्स का उल्लंघन करते हुए हिरासत में लिया गया है।

मिर्ज़ापुर मिड डे मील में नमक रोटी को लेकर पवन जायसवाल पर मुकदमा

मिर्ज़ापुर में बच्चों को मिड डे मील में नमक रोटी खिलाए जाने से संबंधित ख़बर छापने पर 31 अगस्त 2019 को स्थानिय प्रशासन ने पत्रकार पवन जायसवाल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई थी। मामले के तूल पकड़ने के बाद पवन जायसवाल का नाम एफ़आईआर से हटा दिया गया और उन्हें इस मामले में क्लीन चिट दे दी गई।

क्वारंटीन सेंटर की बदइंतज़ामी को लेकर रवींद्र सक्सेना का मामला

सीतापुर में क्वारंटीन सेंटर की बदइंतज़ामी का हाल बताने वाले पत्रकार रवींद्र सक्सेना पर 16 सितंबर, 2020 को सरकारी काम में बाधा डालने, आपदा प्रबंधन के अलावा एससी/एसटी एक्ट की धाराओं के तहत मुक़दमा दर्ज कर दिया गया।

आज़मगढ़ के एक स्कूल में छात्रों से झाड़ू लगाने की घटना को रिपोर्ट करने वाले छह पत्रकारों के ख़िलाफ़ 10 सितंबर, 2019 को एफ़आईआर हुई। पत्रकार संतोष जायसवाल के ख़िलाफ़ सरकारी काम में बाधा डालने और रंगदारी मांगने संबंधी आरोप दर्ज किये गए। तो वहीं बिजनौर में दबंगों के डर से वाल्मीकि परिवार के पलायन करने संबंधी ख़बर के मामले में सात सितंबर, 2020 को पांच पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज हुई।

सत्याग्रह पदयात्रा के दौरान छात्रों और पत्रकार प्रदीपिका सारस्वत की गिरफ़्तारी

समाज में बढ़ रही असहिष्णुता, हिंसा, घृणा और कट्टरता के ख़िलाफ़ बीते साल फरवरी में नागरिक सत्याग्रह पदयात्रा निकाल रहे बीएचयू के कुछ छात्र और पत्रकार प्रदीपिका सारस्वत समेत दस लोगों को ग़ाज़ीपुर ज़िले में पुलिस ने गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया था। पुलिस का कहना था कि उन लोगों के पास कुछ ऐसे दस्तावेज़ मिले थे जिनसे माहौल ख़राब होने की आशंका थी लेकिन इसे लेकर और कोई जानकारी नहीं दी थी।

न्यूज़ वेबसाइट स्क्रॉल की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा के ख़िलाफ़ भी वाराणसी पुलिस ने पिछले साल जून में एक महिला की शिकायत पर एससी-एसटी एक्ट में एफ़आईआर दर्ज की थी। हालांकि एफआईआर के बावजूद सुप्रिया शर्मा अपनी रिपोर्ट पर कायम रहीं और कहा कि उन्होंने कोई भी बात तथ्यों से परे जाकर नहीं लिखी है।

सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ कई एफ़आईआर

इससे कुछ समय पहले ही वरिष्ठ पत्रकार और संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ भी उत्तर प्रदेश के अयोध्या में दो एफ़आईआर दर्ज की गई थीं। उन पर आरोप थे कि उन्होंने लॉकडाउन के बावजूद अयोध्या में होने वाले एक कार्यक्रम में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शामिल होने संबंधी बात छापकर अफ़वाह फैलाई।

हालांकि 'द वायर' ने जवाब में कहा है कि इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री का जाना सार्वजनिक रिकॉर्ड और जानकारी का विषय है, इसलिए अफ़वाह फैलाने जैसी बात यहां लागू ही नहीं होती।

भारत में प्रेस की आज़ादी

आपको बता दें कि मनदीप की गिरफ्तारी के बाद जो पुलिस वैन से उनका पहला वीडियो सामने आया, उनमें मनदीप फ्री प्रेस का नारा लगाते दिखाई दिए। जिसके बाद सोशल मीडिया में फ्री प्रेस की चर्चा एक बार फिर तेज़ हो गई। हालांकि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद आए दिन अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रेस की आज़ादी को लेकर कोई न कोई मामला सुर्खियों में बना ही रहता है।

साल 2018 में 'फ्री स्पीच कलेक्टिव' की एक विस्तृत रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया कि भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की केंद्र सरकार अभिव्यक्ति की आजादी को संरक्षण देने के बजाय दमनकारी नियमन और निगरानी रखने की प्रणालियों का इस्तेमाल करके और अधिक खतरे में डाल रही है और कमोबेश मुख्य सेंसर की भूमिका निभा रही है।

भारत में प्रेस फ्रीडम की बात करें तो पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' हर साल 180 देशों की प्रेस फ्रीडम रैंक जारी करती है। इस इंडेक्स में भारत की रैंक लगातार गिरती जा रही है। साल 2009 में प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 105वें स्थान पर था जबकि एक दशक बाद यह 142वें स्थान पर पहुंच चुका है।

केंद्र सरकार अभिव्यक्ति की आजादी को अधिक खतरे में डाल रही है!

संस्था ने रिपोर्ट में कहा कि भारत में न सिर्फ़ लगातार प्रेस की आजादी का उल्लंघन हुआ, बल्कि पत्रकारों के विरुद्ध पुलिस ने हिंसात्मक कार्रवाई भी की। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि सोशल मीडिया पर उन पत्रकारों के खिलाफ सुनियोजित तरीके से नफरत फैलाई गई, जिन्होंने कुछ ऐसा लिखा या बोला था जो हिंदुत्व समर्थकों को नागवार गुजरा।

वहीं साल 2018 में 'फ्री स्पीच कलेक्टिव' की एक विस्तृत रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया कि भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की केंद्र सरकार अभिव्यक्ति की आजादी को संरक्षण देने के बजाय दमनकारी नियमन और निगरानी रखने की प्रणालियों का इस्तेमाल करके और अधिक खतरे में डाल रही है और कमोबेश मुख्य सेंसर की भूमिका निभा रही है।

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