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हाथरस बलात्कार मामला: पीड़िताओं के लिए चिकित्सकीय-क़ानूनी सेवा के अधिकार को अभी लंबा रास्ता तय करना है

अस्पताल-दर-अस्पताल एक नौजवान दलित लड़की और उसके परिवार के साथ जिस तरह से पेश आया,उस रवैये ने इस हाथरस मामले को लेकर अस्पतालों की बेपरवाही को साफ़ तौर पर बेपर्दा कर दिया है।
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औरतों को लेकर जिस तरह से तमाम औपचारिक प्रणालियों में नफ़रत की धारणा मौजूद है,वह बलात्कार पीड़िताओं  को बार-बार और लगातार आघात पहुंचाती है।

स्वास्थ्य प्रणाली भी इन औपचारिक प्रणालियों में से ही एक है। इसके सुबूत जाति, लिंग, धर्म, विकलांगता और लैंगिक रवैये के आधार पर इसके गहरे निहित पूर्वाग्रह, अवैज्ञानिक तौर-तरीक़े और बरते जाने वाले भेदभाव हैं।

अस्पताल-दर-अस्पताल एक नौजवान दलित लड़की और उसके परिवार के साथ जिस तरह से पेश आया,उस रवैये ने इस हाथरस मामले को लेकर अस्पतालों की बेपरवाही को साफ़ तौर पर बेपर्दा  कर दिया है।

घटना के ब्योरे, परीक्षण और इलाज से जुड़े अनुसंधान जैसे नैदानिक साक्ष्य की क़ीमत पर वीर्य के पाये जाने और ज़ख़्म की मौजूदगी जैसे फोरेंसिक साक्ष्य पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर रहता है।

चिकित्सकीय-क़ानूनी इमरजेंसी के तौर पर बलात्कार को मान्यता नहीं देना और तत्काल देखभाल का प्रावधान का न होना आईपीसी की धारा-166 बी में एक अपराध है। धारा-166 बी के तहत किसी भी तरह की देरी को अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए।

बलात्कार को लेकर चलने वाले विमर्शों में फ़ॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (एफ़एसएल) के नतीजे हावी रहते हैं और इससे इस तरह के विमर्श अधूरे लगते हैं, ऐसा तब है,जब क़ानून में तय किया गया है कि बलात्कार के मुकदमों में चिकित्सकीय-क़ानूनी सबूत के मायने सिर्फ़ पुष्टि को लेकर होते हैं और जो सबसे ज़्यादा अहम होता है,वह है पीड़िता का बयान।

अस्पताल का रवैया

जिस अस्पताल में उस बच्ची को पहली बार ले जाया गया था, महज़ दूसरे अस्पताल में रेफ़र करने के लिए उसे दो घंटे तक का इंतजार करवाया गया और ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि उस बच्ची गंभीर चिकित्सा की ज़रूरत  थी।

बलात्कार को चिकित्सकीय-क़ानूनी इमरजेंसी के तौर पर मान्यता नहीं देना और तत्काल देखभाल का प्रावधान का नहीं होना आपीसी की धारा-166 बी में एक अपराध है। इस तरह की देरी को धारा-166 बी के तहत अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए।

दूसरा अस्पताल चिकित्सकीय-क़ानूनी केस (MLC) बनाता तो है, लेकिन यह संभावित यौन हिंसा के संकेतों के बावजूद गला घोंटने के ब्योरे को ही दर्ज करता है।

“युवती के शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था, जब उसकी मां को वह मिली थी” या फिर एक ऐसा सामान्य परीक्षण विवरण,जो उस बच्ची के शरीर (पीठ) पर लगे ज़ख़्मों को दर्ज कर सकता था, जिन्हें उसी अस्पताल की तरफ़ से बलात्कार के प्रोफ़ॉर्मा में 22 सितंबर पर दर्ज किया गया था,इन तमाम मुख्य निष्कर्षों का कोई दस्तावेज़ ही नहीं है।

जैसा कि परीक्षण करने वाले डॉक्टर ने बताया कि बच्ची पूरी तरह होश-ओ-हवास में थी और वह समय, स्थान और व्यक्ति को लेकर जो कुछ वह बता रही थी,उसे लेकर वह अच्छी तरह से समझने की हालत में थी।

बाद में 22 सितंबर की तारीख़ का चिकित्सकीय-क़ानूनी प्रोफ़ॉर्मा  बलात्कार को लेकर उस यौन हिंसा की घटना के बारे में विस्तार से बताता है, जिसमें उसने बताया है कि चार लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया था, उसका मुंह बांध दिया गया था, और उन्होंने उसे मारने की धमकी भी दी थी।

स्पंज, पैड या कपड़े के इस्तेमाल के बाद भी परीक्षण में उसके शरीर पर ज़ख़्म पाये गये थे,जो यह दर्शाता है कि जननांग से रक्तस्राव हुआ था,जिसका ज़िक़्र उसकी मां ने भी किया था।

अगर उस डॉक्टर ने सबूतों के नहीं जुटाये जाने और एफ़एसएल को ज़ख़्म को पोछने में इस्तेमाल किये गये फ़ाहे नहीं भेजे जाने का कारण बताया होता, तो बाद में किये जाने वाले क़वायद से बचा जा सकता था।

उस डॉक्टर ने एक वैज्ञानिक तजवीज़ दिया है,जिसमें कहा गया है कि ताक़त के इस्तेमाल के संकेत थे। उस डॉक्टर द्वारा यौन हिंसा और परीक्षण निष्कर्षों का विस्तृत दस्तावेजीकरण बलात्कार के अहम पुष्टि करने वाले सबूत होंगे।

इस घटना के आठ दिनों बाद बलात्कार को लेकर किये गये चिकित्सा परीक्षण में सफ़ाई में इस्तेमाल होने वाले फ़ाहे को वीर्य परीक्षण के लिए एकत्र करने का कोई संकेत नहीं था।

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय का चिकित्सकीय-क़ानूनी प्रोटोकॉल और दिशानिर्देश,2014 में साफ़ तौर पर ज़िक़्र है कि शरीर पर चिकित्सा साक्ष्य समय के साथ तेज़ी से नष्ट होता जाता है। इसलिए,यौन हिंसा की घटना के 96 घंटे के भीतर साक्ष्य का संग्रह किया जाना चाहिए।

अगर उस डॉक्टर ने सबूतों के नहीं जुटाये जाने और एफएसएल को ज़ख़्म को पोछने में इस्तेमाल किये गये फ़ाहे नहीं भेजे जाने का कारण बताया होता, तो बाद में आने वाले क़वायद से बचा जा सकता था।

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, जिन्होंने ग़ैर-ज़िम्मेदाराना टिप्पणी की थी और लोगों को बड़े पैमाने पर गुमराह करते हुए कहा था,"वीर्य के नहीं पाये जाने का मतलब है कि कोई बलात्कार नहीं हुआ है।" अगर सफ़ाई में इस्तेमाल होने वाले फ़ाहे होते,तो ऐसा बयान नहीं दिया गया होता। हालांकि, यह सराहनीय है कि दूसरे अस्पताल के फ़ोरेंसिक विशेषज्ञ ने एक ज़िम्मेदार बयान जारी किया और गड़बड़ियों को थोड़ा दुरुस्त किया।

यह अफ़सोसनाक है कि डॉक्टरों के पैनल ने कौमार्य झिल्ली(हाइमन) और गुदा में हुए टूट-फूट की पुष्टि के बारे में कुछ भी नहीं कहा और उन्हें व्याख्या के लिए खुला छोड़ दिया।

जिस तीसरे अस्पताल में उस बच्ची को ले जाया गया,वह नई दिल्ली का सफ़दरजंग अस्पताल है। हैरत है कि केंद्र सरकार के इस प्रमुख संस्थान की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में दूसरे अस्पताल के बलात्कार प्रोफ़ॉर्मा का कोई संदर्भ ही नहीं है और इस अस्पताल ने खुद को  उस बच्ची के गला दबाने के इतिहास को दर्ज करने तक ही सीमित रखा है।

सवाल है कि तीन डॉक्टरों के उस पैनल ने इस अहम ब्योरे को क्यों छोड़ दिया,जबकि सफ़दरजंग अस्पताल की "डेथ समरी रिपोर्ट" में बलात्कार के घटनाक्रम का ज़िक़्र किया गया है ? तब तक यह ज्ञात था कि उस बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया है। दुर्भाग्य से छोड़ दिये गये ब्योरे भी उन्हें पीड़ित के जननांग पर टिप्पणी करने से रोक नहीं पाया। इस रिपोर्ट में चोट की हालत का ज़िक़्र किये बिना हाइमन(कौमार्य झिल्ली) और गुदा में हुए टूट-फूट दर्ज हैं। यह चूक न सिर्फ़ संदेहास्पद है, बल्कि अतीत की यौन गतिविधियों की आदत को लेकर एक तरह क  अवैज्ञानिक स्थायी पूर्वाग्रह भी है।

इस बात की शिनाख़्त नहीं है कि ये टूट-फूट दो सप्ताह पुराने भी हो सकते हैं और वे इस अहम जानकारी को दर्ज करने से चूक गये हैं। यह अफ़सोसनाक है कि डॉक्टरों के पैनल ने कौमार्य झिल्ली(हाइमन) और गुदा में हुए टूट-फूट की पुष्टि के बारे में कुछ भी नहीं कहा और उन्हें व्याख्या के लिए खुला छोड़ दिया।

सेंटर फ़ॉर इंक्वायरी फ़ॉर हेल्थ एंड एलाइड थीम्स (CEHAT) द्वारा लड़कियों और महिलाओं के लिए तैयार किये गये पोस्टमार्टम रिपोर्ट की समीक्षा में योनि द्वार के आकार और महिला के शवों के हाइमन के बारे में बंधे बधाये नियम की तरह अप्रासंगिक और अवैज्ञानिक टिप्पणियों पर प्रकाश डाला गया है। इस तौर-तरीक़े को बदला जाना चाहिए और स्पष्टीकरण के साथ-साथ सिर्फ़ प्रासंगिक निष्कर्षों को ही पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में शामिल किया जाना चाहिए।

क़ानून, नीति, और मोदी की फ़ॉरेंसिक पाठ्यपुस्तक, आपराधिक क़ानून संशोधन 2013, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय(MoHFW) दिशानिर्देश और प्रोटोकॉल 2014, मोदी के चिकित्सा न्यायशास्त्र, 2015 द्वारा यौन हिंसा की परीक्षण के सिलसिले में फोरेंसिक अमल में लाये गये परिवर्तनों को भी शव परीक्षा दिशानिर्देशों(autopsy guidelines) में शामिल किये जाने की ज़रूरत है।

इस आशय के दिशानिर्देश फ़ोरेंसिक विशेषज्ञों, वक़ीलों, महिलाओं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साथ एक परामर्श प्रक्रिया के ज़रिये सेंटर फ़ॉर इंक्वायरी फ़ॉर हेल्थ एंड एलाइड थीम्स (CEHAT) और ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा विकसित किये गये हैं।

क्या किया जा सकता था ?

• 14 सितंबर को एमएलसी दस्तावेज़ में सभी तरह के परीक्षण को इसलिए शामिल किया जाना चाहिए था, क्योंकि उस बच्ची ने गंभीर हमले की बात कही थी,जिसके चलते उसे गंभीर चोटें आयी थीं। उस डॉक्टर को प्रारंभिक अवस्था में ही बच्ची की पीठ पर आयी चोटों और जननांग के बहते ख़ून पर ग़ौर करना चाहिए था।

डब्ल्यूएचओ (2013),क्लीनिकल एंड पॉलिसी गाइडलाइन्स फ़ॉर रिस्पॉंडिंग टू इंटिमेट पार्टनर वॉयलेंस (आईपीवी) एंड सेक्सुअल असॉल्ट की तरफ़ से जिस तरह की सिफारिश की गयी है, उसके मुताबिक़ ये सभी यौन हिंसा के संकेत थे, और डॉक्टर को उसके लिए एक सुरक्षित परिवेश बनाना चाहिए था और उसे सुरक्षा का अहसास कराते हुए उसके साथ हुई यौन हिंसा को लेकर ब्योरे हासिल करने चाहिए थे।

जिस तरह से पुलिस ने परिवार को शोक मनाने और मृत्यु संस्कार की अनुमति दिये  बिना जल्दबाज़ी में शव का अंतिम संस्कार कर दिया था,वह अमानवीय था।वह एक ऐसी हरक़त थी,जिसने पहले पोस्टमार्टम की सत्यता का पता लगाने वाले दूसरे शव परीक्षण के सभी सबूतों और हर संभावना को नष्ट कर दिया है।

जैसा कि आम तौर पर अस्पतालों में होता है, वहां भी कई परामर्श किये गये थे और डॉक्टरों की एक टीम ने उसे हर दिन देखा था,लेकिन किसी ने भी इसके पीछे के ब्योरे के बारे में नहीं पूछा।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय(MoHFW) दिशानिर्देश यह सलाह देते हैं कि एक बिना डर वाली स्थिति बनायी जायी और परामर्शदाताओं को संदिग्ध यौन हिंसा के मामलों में जानकारों की राय उपलब्ध करायी जाये।

• मगर,वह अस्पताल ऐसा करने में नाकाम रहा और यह महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामलों में चिकित्सीय जांच पर स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के सेवापूर्व के साथ-साथ सेवारत गतिविधियों में निवेश की ज़रूरत को दर्शाता है।

• अगर अस्पताल उस बच्ची के लिए ज़रूरी आपातकालीन सर्जरी और अन्य हस्तक्षेप सुनिश्चित करने में विफल रहा, तो सक्षम पैनल द्वारा इसकी जांच करायी जानी चाहिए,क्योंकि सीएलए,2013 यौन हिंसा के सभी पीड़ितों के मुफ़्त इलाज के अधिकार की गारंटी देता है।

• पोस्टमार्टम के सिलसिले में शव परीक्षण के लिए एकमात्र दिशानिर्देश जो मौजूद हैं, वे हिरासत में मौतों को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी किये गये दिशानिर्देश हैं। सेंटर फ़ॉर इंक्वायरी फ़ॉर हेल्थ एंड एलाइड थीम्स (CEHAT) में कार्य करते हुए हमारे अनुभवों से पता चला है कि हिरासत में लिये गये व्यक्तियों की चिकित्सीय-क़ानूनी जांच और यातना में हुई मृत्यु की जाँच को लेकर जो अंतरराष्ट्रीय दिशानिर्देश हैं,उनकी तुलना में ये दिशानिर्देश विभिन्न मोर्चों पर अपर्याप्त हैं और इनमें कई तरह की कमियां हैं।

फोरेंसिक साक्ष्य और फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के नतीजों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता और उस पर एकाग्र होने वाले रवैये को भी बदलना होगा। नीतिगत समाधान, जो फ़ॉरेंसिक हस्तक्षेप पर ज़ोर देते हैं, वे उन ज़ख़्मों और पोज़िटिव डीएनए निष्कर्षों पर ज़ोर देकर बलात्कार को लेकर घिसे-पिटे विचारों को बनाये रखते हैं, जबकि इन दोनों में से किसी के भी  यौन उत्पीड़न के परीक्षण में नहीं पाये जाने की संभावना होती है।

ज़्यादतर अध्ययनों से पता चलता है कि फ़ॉरेंसिक सबूत बलात्कार में या तो बहुत कम या कोई नतीजा नहीं दे पाते हैं। (जॉन्सन एवं अन्य 2013, सॉमर्स एंड बस्किन 2011, डू मॉन्ट एंड व्हाइट,2007)।

फ़ॉरेंसिक साक्ष्य और फ़ॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के नतीजों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता और उसी पर एकाग्र  रहने वाले रवैये में भी बदलाव लाना होगा।

दशकों से की जा रही सिफ़ारिश के बाद 2014 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय(MoHFW) ने पीड़ितों और यौन हिंसा के शिकार लोगों के लिए चिकित्सकीय-क़ानूनी देखभाल के लिए दिशा-निर्देश जारी किये थे। 'देखभाल' और 'सबूत नहीं' जैसे शब्दों को इसके शीर्षक में इस बात पर ज़ोर देने के लिए शामिल किया गया था कि पीड़ितों और शिकार लोगों को स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार है और इसे महज़ चिकित्सकीय-क़ानूनी बनागी के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।

यौन हिंसा की परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि स्वास्थ्य प्रणाली को उसके घटनाक्रम के ब्योरे, परीक्षण, साक्ष्य संग्रह और उपचार पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें फ़ॉरेंसिक साइंस लैबोरेटरी के लिए साइकोसिक सफ़ाई में इस्तेमाल किये गये फ़ाहे का संग्रह भी शामिल हो।

अस्पताल और ख़ासकर पुलिस ने शव को ठिकाने लगाने के लिए जिस तरीक़े का सहारा लिया था,वह सही मायने में बर्दाश्त से बाहर है और एक तरह से शव का तिरस्कार है। अस्पताल के प्रोटोकॉल की मांग है कि पोस्टमार्टम के बाद शव को परिजनों या परिवार द्वारा नामित किसी व्यक्ति को सौंप दिया जाये। वे इसे पुलिस को नहीं सौंप सकते हैं। अगर परिवार का सदस्य शव लेने के लिए मौजूद नहीं है या शव लेने की हालत में नहीं है या औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें समय की ज़रूरत है, तो अस्पताल शव को शवगृह में तबतक रखने के लिए बाध्य है,जब तक कि परिवार उस शव को लेने के लिए तैयार न हो जाये।

इसलिए, अस्पताल द्वारा शव का पुलिस को सौंपा जाना संदेह पैदा करता है। जिस तरह से पुलिस ने परिवार को शोक मनाने और मृत्यु संस्कार की अनुमति दिये बिना जल्दबाज़ी में शव का अंतिम संस्कार कर दिया था,वह अमानवीय था।वह एक ऐसी हरक़त थी,जिसने पहले पोस्टमार्टम की सत्यता का पता लगाने वाले दूसरे शव परीक्षण के सभी सबूतों और हर संभावना को नष्ट कर दिया है।

यह लेख मूल रूप से द लिफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(लेखक सेंटर फ़ॉर इंक्वायरी फ़ॉर हेल्थ एंड एलाइड थीम्स (CEHAT) के साथ काम करते हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Hathras-Rape-Case-Right-Medico-Legal-Care-Survivors

 

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