Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

आधार एडवाइज़री: यूआईडीएआई द्वारा निजता अधिकारों का उल्लंघन अब भी बदस्तूर जारी

शुरुआती एडवाइजरी में लोगों को आधार कार्ड की ई-कॉपी को डाउनलोड करने के सिलसिले में सार्वजनिक कंप्यूटरों के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ चेतावनी दी गयी थी।
Aadhaar

यूआईडीएआई के क्षेत्रीय कार्यालय और उसके बाद इसके मूल निकाय की ओर से हाल ही में जारी एडवाइज़री चिंता का विषय है। 2019 से ही बिना अध्यक्ष के काम कर रहा यूएआईडीएआई दुनिया के सबसे बड़े डेटाबेस में से एक के प्रबंधन का ज़िम्मेदार है। सीएजी की रिपोर्ट आने से पहले ही यह ख़ुलासा हो चुका है कि यह आधार की विशिष्टता को बनाये रखने में नाकाम रहा है। इस डेटाबेस के ख़ुद के सिस्टम पर जो बायोमेट्रिक्स डेटा है,वह युग्मित नहीं है और बेमेल है। इसमें डेटा संग्रह नीति का अभाव है। इसकी जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली प्रणाली का नहीं होना भी चिंता का एक और विषय है।

बेंगलुरु स्थित यूआईडीएआई के क्षेत्रीय कार्यालय ने 27 मई को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए लोगों को अन्य संगठनों के साथ अपने आधार कार्ड की फ़ोटोकॉपी साझा करने से इसलिए रोक दिया था, क्योंकि उनका "दुरुपयोग" हो सकता है। हालांकि, कुछ ही दिनों बाद उस एडवाइज़री को तत्काल प्रभाव से संशोधित कर दिया गया था। ये घटनाक्रम नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की 'फ़ंक्शनिंग ऑफ़ यूआईडीएआई' नामक उस रिपोर्ट  के महीनों बाद सामने आये हैं, जिसमें आधार की विशिष्टता को बनाये रख पाने में यूआईडीएआई की नाकामी का ख़ुलासा किया गया था।

शुरुआती एडवाइज़री में लोगों को आधार कार्ड की ई-कॉपी डाउनलोड करने को लेकर सार्वजनिक कंप्यूटरों के इस्तेमाल किये जाने के ख़िलाफ़ चेतावनी दी गयी थी। उस एडवाइज़री में निर्देश दिया गया था कि अगर ई-कॉपी डाउनलोड की भी जाती हैं, तो उन्हें सिस्टम से स्थायी रूप से हटा दिया जाना चाहिए।

इसके अलावा, उसमें स्पष्ट कर दिया गया था कि ".यूज़र्स लाइसेंस" रखने वाले संगठन सिर्फ़ पहचान के सत्यापन के लिए आधार कार्ड मांग सकते हैं। होटल या फ़िल्म हॉल जैसे “बिना लाइसेंस वाली निजी संस्थाओं को आधार कार्ड की कॉपी जमा कराने या रखने की इजाज़त नहीं है। उस एडवाइजरी में कहा गया है कि ऐसा करना आधार अधिनियम, 2016 के तहत एक अपराध है।” यूआईडीएआई के मूल निकाय-इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) की ओर से जारी बाद की एडवाइज़री में लोगों से आधार की कॉपी साझा करते समय "सामान्य विवेक" बनाये रखने का अनुरोध किया गया था।

प्रमाणीकरण या सत्यापन

आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी लाभ और सेवाओं को ध्यान में लाने वाले वितरण) अधिनियम, 2016 (2019 में संशोधित) के मुताबिक़, इस अधिनियम के तहत विभिन्न आधार-आधारित सत्यापन की इजाज़त है। इसे यहां स्पष्टत करने की ज़रूरत है।

इस अधिनियम में दो शर्तों का इस्तेमाल किया गया है- सत्यापन और प्रमाणीकरण। मगर,अधिनियम में इन दोनों ही शर्तों के बीच के अंतर को स्पष्ट नहीं किया गया है। प्रमाणीकरण उस डेटा से जुड़ा है, जिसमें आधार संख्या, जनसांख्यिकीय या बायोमेट्रिक जानकारी शामिल है, जिसे आधार (प्रमाणीकरण और ऑफ़लाइन सत्यापन) विनियमों के साथ पढ़े जाने वाले अधिनियम,2021 (विनियम) की धारा 2 (c) के मुताबिक़ सेंट्रल आइडेंटिटीज़ डेटा रिपोज़िटरी (CIDR) में जमा किया जाना है। प्रमाणीकरण 'प्रमाणीकरण सेवा एजेंसी' से भी किया जा सकता है, लेकिन उसे एक लाइसेंस प्राप्त इकाई होना चाहिए।

इसके अलावा, और भी अलग-अलग तरह के प्रमाणीकरण या सत्यापन हैं, जिन्हें इन विनियमों में निर्दिष्ट किया गया है। इसमें हां/नहीं और e-KYC प्रमाणीकरण, QR Code सत्यापन, आधार पेपरलेस ऑफ़लाइन e-KYC सत्यापन, ई-आधार सत्यापन और ऑफ़लाइन पेपर-आधारित सत्यापन शामिल हैं। मौजूदा एडवाइज़री ई-आधार को डाउनलोड करने के तरीक़े और आधार कार्ड की फ़ोटोकॉपी के ज़रिये ऑफ़लाइन सत्यापन से सम्बन्धित हैं।

आधार कार्ड की ई-कॉपी कैसे डाउनलोड करें,इस समय इस सवाल को लेकर कोई दिशानिर्देश नहीं हैं। हालांकि, इन विनियमों में यूआईडीएआई के इस पहलू को पेश किये जाने की ज़रूरत है।लेकिन, इसके बजाय हमारी मुख्य चिंता ऑफ़लाइन सत्यापन इसलिए होना चाहिए, क्योंकि शुरुआती एडवाइज़री में दी गयी जानकारी भ्रामक है, और यही इसकी वजह है।

नियमनों के बिना ऑफ़लाइन सत्यापन संभव नहीं  

विनियमों के साथ पठित 2019 संशोधित अधिनियम के ज़रिये शामिल की गयी धारा 2 (pb) के मुताबिक़, ऑफ़लाइन सत्यापन, ऑफ़लाइन सत्यापन चाहने वाली इकाई (OVSE) के ज़रिये ही किया जाना चाहिए। विनियम 2(1)( ma) के साथ पठित अधिनियम की धारा 2(pa) के मुताबिक़, ऑफ़लाइन सत्यापन ऑफ़लाइन मोड के ज़रिये बिना प्रमाणीकरण के आधार संख्या धारक की पहचान को सत्यापित करने की एक प्रक्रिया है, जिसे कि विनियमों से ब्योरेवार स्पष्ट किया जा सकता है।

सत्यापन से प्रमाणीकरण को अलग करने वाले कारकों में से एक यह तथ्य तो है कि प्रमाणीकरण में लाइसेंस प्राप्त संस्था की आवश्यकता ज़रूरी है। इसके उलट, ऑफ़लाइन सत्यापन, ऑफ़लाइन सत्यापन करने के इच्छुक 'किसी भी संस्था' की ओर से किया जा सकता है। इसका मतलब है कि 'लाइसेंस प्राप्त इकाई' शब्द का इस्तेमाल करने वाली पहली एडवाइज़री ग़लत और भ्रामक है।

इसके अलावा, कोई ऑफ़लाइन सत्यापन तभी हो सकता है, जब वह संस्था आधार कार्ड धारक को उस जानकारी की प्रकृति के बारे में सूचित करती है, जिसे संस्था और उसके इस्तेमाल और पहचान पेश किये जाने के वैकल्पिक साधनों के साथ साझा किया जायेगा। एक बार यह जानकारी दे दिये जाने के बाद ओवीएसई को आधार कार्ड धारक (विनियम 5 और 6) की सहमति लेनी होगी और उसे सत्यापन (विनियमन 10) की कामयाबी के सिलसिले में सूचित करना होगा।। एक बार यह जानकारी दे दिये जाने के बाद ओवीएसई को आधार कार्ड धारक (विनियम 5 और 6) की सहमति लेनी होगी और उसे सत्यापन (विनियमन 10) के कामयाब होने को लेकर सूचित करना होगा। 

सबसे अहम बात यह है कि सत्यापन की ज़रूरत पूरी हो जाने के बाद, उस संस्था की ओर से इकट्ठा किया जाने वाला कोई भी डेटा विनियमन 2(1)( mc) के मुताबिक़ मास्क्ड रूप में होना चाहिए। मास्क्ड आधार सुविधा सिर्फ़ 12-अंकीय आधार संख्या के आख़िरी चार अंक और 'XXXX-XXXX' जैसे कुछ कैरेक्टरों वाले प्रदर्शित शेष संख्याओं को प्रदर्शित करती है।

आधार कार्ड धारक ओवीएसई को दी गई अपनी सहमति को रद्द कर सकता है और इस तरह से रद्द किये जाने पर वह संस्था डेटा को हटा देगी और नियमन 16A के मुताबिक़ इससे जुड़ी एक पावती देनी होगी। इस प्रक्रिया को भूला दिये जाने के अधिकार के रूप में जाना जाता है; पुट्टस्वामी (2017) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ यह निजता के अधिकार का एक अनिवार्य पहलू है।

इसमें कोई शक नहीं कि इन विनियमों का पालन नहीं किया जाता है, क्योंकि ऑफ़लाइन सत्यापन में कितनी 'इच्छुक संस्थायें' संलग्न हैं, इसका कोई हिसाब ही नहीं है। इसके अलावा, इन संस्थाओं को इन विनियमों के बारे में शायद ही पता हो। पहली नज़र में तो यह एडवाइज़री इन अधिनियमों और विनियमों के अनुपालन कराती लग सकती है, लेकिन यह बेहद त्रुटिपूर्ण है। जब यूआईडीएआई अपने दायित्व का निर्वहन करने में नाकाम रहता है, तब भी इन संस्थाओं को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

कैग रिपोर्ट ने इन सबका ख़ुलासा

लेकिन, सवाल है कि यह एडवाइज़री अचानक क्यों जारी कर दी गयी? इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़, चेन्नई के दो ड्रग तस्करों की ओर से बेंगलुरू के इंटरनेशनल कूरियर टर्मिनल से ऑस्ट्रेलिया के लिए व्यापार-निषिद्ध चीज़ों की तस्करी के सिलसिले में आधार कार्ड से की गयी छेड़छाड़ के बाद यह शुरुआती एडवाइज़री जारी की गयी थी। हालांकि, इन एडवाइज़री का निश्चित ही रूप से अपराधियों पर कोई असर नहीं पड़ा, क्योंकि अपराधियों की ओर से आधार कार्ड का डुप्लीकेट बनाया जाना अब भी जारी है।

हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं है जब इस तरह से अचानक कोई निर्देश जारी किये गये हों। 11 नवंबर, 2016 को यूआईडीएआई ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से आधार या अन्य पहचान दस्तावेज़ों या इसकी फ़ोटोकॉपी साझा करने के ख़िलाफ़ ट्वीट किया था।

आधार पहचान प्रमाणीकरण प्रणाली से यूआईडीएआई अचानक से जारी किसी एडवाइज़री या सुरक्षा उपायों के आश्वासन के साथ जितनी भी बार सामने आया है, ख़ासकर जब से सीएजी रिपोर्ट से पता चला है कि सीआईडीआर में बायोमेट्रिक डेटा डुप्लिकेट, बेमेल और दोषपूर्ण है, तबसे उनमें से कोई भी उपाय टिकाऊ नहीं रहे है। एक समय ऐसा भी था जब यूआईडीएआई के पहले अध्यक्ष नंदन नीलेकणि ने दावा किया था कि कर चोरी को कम करने के लिए स्थायी खाता संख्या के इस तरह के डुप्लिकेशन को हटाने के लिए आधार को अनिवार्य बनाना होगा। हालांकि, अब सभी जानते हैं कि ऐसा नहीं है और ऐसा कभी होगा भी नहीं।

क्या कहते हैं जानकार 

भारतीय राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण विधेयक, 2010 (पहचान) की जांच करने वाली वित्त सम्बन्धी संसदीय स्थायी समिति के सामने गवाह के रूप में पेश हुए डॉ. गोपाल कृष्ण के मुताबिक़, इन एडवाइज़री का मतलब है कि भारत में रहने वाले महज़ उन 10 करोड़ लोगों का संवेदनशील निजी डेटा ही सुरक्षित हैं, जिन्होंने आधार संख्या के लिए नामांकन नहीं किया हुआ है, क्योंकि यूआईडीएआई शुरू से ही अपने सामान्य विवेक का इस्तेमाल करने को लेकर सावधानी बरतने में नाकाम रहा है।

द लीफ़लेट से बातचीत में सीएजी रिपोर्ट पर प्रासंगिक निजता से जुड़ी चिंताओं को भी संबोधित करने वाले डॉ. कृष्णा इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ऐसी संभावना है कि ये प्रेस विज्ञप्तियां यूआईडी और गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) के लिए केंद्र सरकार की 28 जनवरी, 2009 की अधिसूचना में उल्लिखित "अनुमोदित रणनीति के अनुसार" जारी की गयी हों। डॉ. गोपाल आगे कहते हैं, "इस बात की संभावना सबसे ज़्यादा है कि लोक लेखा समिति के सामने विचार-विमर्श और निकट भविष्य में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट में यूआईडीएआई के चूक के कृत्यों को छुपाने की यह एक क़वायद हो।"

संसदीय स्थायी समिति के सामने गवाह रहीं डॉ. उषा रामनाथन ने इस लेखक को एक ईमेल में यूआईडीएआई के कामकाज पर टिप्पणी करते हुए बताया, “यूआईडीएआई इनकार का इस्तेमाल अपने इस बहाने को जारी रखने के लिए कर रहा है कि उसकी परियोजना में कुछ भी ग़लत नहीं है। यूआईडीएआई ने ऐसा तब किया था, जब धनिया(coriander) का नामांकन हो गया और उसने अपना यूआईडी नंबर भी हासिल कर लिया। उन्होंने ऐसा तब किया जब संसदीय स्थायी समिति ने पाया कि इस परियोजना और क़ानून इतनी त्रुटियों से भरे-पड़े हैं कि उन्होंने इसे रोकने के लिए कहा और यह भी कहा कि यह योजना या विचार नाकाम रहा है और इस पर नये सिरे से विचार किया जाना चाहिए। जब शोधकर्ताओं ने पाया कि यह संख्या पूरे इंटरनेट पर लीक हो रही है, तो उन्होंने शोधकर्ताओं पर ही मुकदमा करने की धमकी दे डाली।”

यूआईडीएआई के कामकाज की प्रणाली पर लगातार सवाल उठाने और चुनावी डेटाबेस को आधार डेटाबेस से जोड़ने पर चिंता जताने वाली डॉ. रामनाथन ने आगे बताया,  “जब रचना खैरा ने ट्रिब्यून में यह जानकारी दी थी कि यूआईडीएआई डेटाबेस की जानकारी कितनी आसानी से हासिल की जा सकती है और बदली जा सकती है, तो अगली बात जो हमें पता चली,वह यह थी कि संपादक ने पद छोड़ दिया है और रचना खैरा के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी है; पुलिस ने तीन साल बाद, यानी कि 2021 में उस मामले को बंद कर दिया। इंडियन एक्सप्रेस ने 2020 में अल्पसंख्यक छात्रवृत्ति के पैसे को धोखाधड़ी से निकालने को लेकर यूआईडी नंबर और बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल के बारे में बताया था। यह घोटाला कई राज्यों - बिहार, असम, उत्तराखंड, झारखंड तक में फैला हुआ था और यहां तक कि पंजाब हाई कोर्ट तक जाकर यह मामला फंस गया, झारखंड के मुख्यमंत्री ने इसकी गहन जांच कराने का वादा किया और सीबीआई को भी इसमें शामिल कर लिया गया। कैग की रिपोर्ट के बाद तो इस परियोजना में भरोसे लायक बातें बहुत कम रह गयी हैं।”

डॉ रामनाथन ने आगे बताया, “यूआईडीएआई सबकुछ ऐसे ही चला रहा है, जैसे कि कभी कुछ हुआ ही नहीं हो। वे अब बिज़नेस कॉरेस्पॉन्डेंट और पोस्टमैन को अपने डेटाबेस को एनरोल करने और अपडेट करने के काम में लगाने की बात कर रहे हैं, जिसका मतलब है उन लोगों की संख्या में इज़ाफ़ा करना, जिन्हें सभी तरह की जानकारी दी जा रही है, लेकिन जिनके पास इसे सुरक्षित करने का कोई साधन नहीं है। यह एक ऐसा सच है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यूआईडीएआई ने निजता के इस अधिकार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। और इसके प्रमुख ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि 15 फ़ीट की दीवारें थीं, जो इन डेटाबेस को सुरक्षित बनाती थीं। यह ताज़ा घटनाक्रम कहीं न कहीं एक ऐसी गड़बड़ी की ओर इशारा करता है, जिसमें ऐसा लगता है कि बैंगलोर कार्यालय ने अपनी बारी आने से पहले ही अपनी बात रख दी है। पीछे हटते हुए वह इनकार पर फिर से वापस आ गया है, कुल मिलाकर बात यही है।”

द लीफ़लेट ने समय-समय पर निजता के अधिकार से जुड़े मुद्दों को विस्तार से कवर किया है और सीईआरटी को लेकर निम्नलिखित तरह के बड़े सवालों की जांच-पड़ताल जारी रखे हुए है: इन निर्देशों पर वैध गोपनीयता से जुड़ी चिंतायें क्या हैं ? आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक, 2022 विभिन्न संवैधानिक शासनादेशों का उल्लंघन कैसे करता है? यूआईडीएआई की कार्यप्रणाली के बारे में कैग की ऑडिट रिपोर्ट हमें क्या बताती है ?

निजता के अधिकारों को लेकर द लीफ़लेट के कवरेज के कुछ मुख्य अंश नीचे दिये गये हैं।

इस निजता के मुद्दे के सिलसिले में द लीफ़लेट का हालिया कवरेज:

सफ़ाई कर्मचारियों को लेकर जीपीएस-सक्षम ट्रैकिंग उपकरणों के इस्तेमाल पर चिंता

पुट्टस्वामी (2017) वाले फ़ैसले में निजता के अधिकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अनिवार्य पहलू माना गया था। भले ही निजता के अधिकार को वैध सरकारी हितों के साथ संतुलित किया जाना है, इस अधिकार पर प्रतिबंधों को वैधता, आवश्यकता और आनुपातिकता के प्रारंभिक परीक्षणों को पूरा करना चाहिए। कुछ ग़ैर-सरकारी संगठनों ने सफ़ाई कर्मचारियों को लेकर ग्लोबल-पोजिशनिंग सिस्टम (GPS)-सक्षम ट्रैकिंग उपकरणों का इस्तेमाल करने के सरकारी अधिकारियों के उस फ़ैसले के सिलसिले में गंभीर चिंता जतायी है, जो न सिर्फ़ उनकी निजता के अधिकार, बल्कि मानवीय गरिमा और स्वायत्तता का भी उल्लंघन हैं।

नज़र रखने वाले एक सत्ता का उदय 

पेगासस विवाद इस बात का एक और उदाहरण है कि अपनी असहमति के लिए जाने जाते पत्रकार और कार्यकर्ता निजता के अपने अधिकार को संकट में डालते हुए सरकार की निगरानी में आ गये। इनमें से कुछ मुख्य बातें सरकार की ओर से लोगों के निजी क्षेत्र में हस्तक्षेप के दायरे को व्यापक बनाने की हालिया कोशिश हैं।

नये सीईआरटी-इन के ये दिशा-निर्देश डेटा गोपनीयता को लेकर गंभीर चिंतायें पैदा करते हैं: हालांकि कुछ दिशा-दिर्देश समय की ज़रूरत की तरह लगती हैं (जैसे अनिवार्य रूप से इन डेटा उल्लंघनों की रिपोर्ट करना) और निश्चित रूप से इसका लक्ष्य साइबर सुरक्षा को सुनिश्चित करना है, अन्य (जैसे वीपीएन प्रदाताओं का निजी डेटा इकट्ठा करना और संग्रहित करना) ) इस लक्ष्य से चूक जाते हैं।

यूज़र डेटा को साझा करने या जेल जाने का सामना करने को लेकर वीपीएन कंपनियों को इलेक्ट्रॉनिक्स एनं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालयों (MeitY’s) का जारी निर्देश इस गोपनीयता को लेकर चिंता का विषय है: इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) ने 28 अप्रैल को वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क (VPN) प्रदाता कंपनियों को पांच साल की अवधि के लिए आईपी एड्रेस सहित यूज़र डेटा इकट्ठा करने और साझा करने के निर्देश जारी किये थे। वीपीएन प्रदाताओं के साथ मंत्रालय की कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (CERT-In) की ओर से सार्वजनिक रूप से जारी अधिसूचना में डेटा केंद्रों, क्रिप्टो-एक्सचेंजों और अन्य बिचौलियों को "प्रतिक्रिया गतिविधियों के साथ-साथ आपात स्थिति को समन्वयित करने को लेकर यूज़र डेटा इकट्ठा करने और चालू करने के साथ-साथ साइबर सुरक्षा घटनाओं के सिलसिले में अपनाये जाने वाले उपाय" और साइबर घटनाओं के होने के छह घंटे के भीतर रिपोर्ट करने का आदेश दिया।

चेहरे की पहचान वाली प्रौद्योगिकी का तेज़ी से उदय: किसी भी क़ानूनी सुरक्षा उपायों के बिना भारत सरकार की ओर से इस तकनीक की व्यापक इस्तेमाल इसे समाज पर सामूहिक नियंत्रण हासिल करने का एक हथियार बना देता है।

निजता अधिकारों की रक्षा करने में कैसे नाकाम हो रही है विधायिका

विधायिका और कार्यपालिका के बनाये गये हालिया क़ानून और दिशानिर्देश वैध गोपनीयता से जुड़ी चिंताओं को सामने ले आते हैं, क्योंकि उनका आशय पुट्टस्वामी फ़ैसले में स्थापित मानदंडों को पूरा किये बिना ही गोपनीयता के अधिकारों को प्रतिबंधित करने का है। संयुक्त संसदीय समिति ने उस निजी डेटा संरक्षण विधेयक, 2019 पर गंभीर चिंता जतायी है, जिसे अब डेटा संरक्षण विधेयक, 2021 का नाम दिया गया है। लेकिन, इस पर रौशनी पड़ना अभी बाक़ी है।

आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 विभिन्न संवैधानिक शासनादेशों का उल्लंघन है: 2 मई को जैकब पुलियेल बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को आशंका के घेर में ले आता है।

निजी जासूसी सेवाओं की वैधता: विनियमन, गोपनीयता और राज्य के दायित्वों को लेकर सवाल: निजी जांच एजेंसियों को क़ानून के ज़रिये विनियमित किया जाना चाहिए, क्योंकि वे लोगों की गोपनीयता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं।

भारत को मेटावर्स के लिए एक क़ानून क्यों बनाना शुरू करना चाहिए: हमारे जीवन में मेटावर्स के आगमन और विकास के लिए उन क़ानूनी जटिलताओं और चुनौतियों से निपटने के लिए हमारे क़ानूनों में सुधार की ज़रूरत है, जो तक़रीबन निश्चित रूप से मेटावर्स से पैदा होंगे।

निजता के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका

जहां सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस के आरोपों की जांच के लिए एक समिति का गठन करके हमें उम्मीद बख़्स दी है, वहीं केंद्र सरकार की ओर से इसे ख़तरे में डाले जाने के लगातार प्रयासों के बावजूद तमाम हाई कोर्ट लोगों की निजता के अधिकारों की रक्षा के लिए लगातार आगे आये हैं। 

पेगासस अंतरिम आदेश: भारतीय लोकतंत्र की जीत: पेगासस परियोजना के ख़ुलासे की जांच की मांग वाली याचिकाओं के जवाब में सुप्रीम कोर्ट के हालिया अंतरिम आदेश का अवलोकन।

दिल्ली हाई कोर्ट ने सरकार के उस निर्देश को खारिज कर दिया, जिसमें न्यायाधीशों को विदेश में अपनी निजी यात्राओं के लिए राजनीतिक मंज़ूरी लेने के लिए कहा गया था: दिल्ली हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने 1 अप्रैल को केंद्र सरकार की ओर से जारी एक विशेष सरकारी आदेश (OM) को उस हद तक खारिज कर दिया, जिस हद तक उसे संवैधानिक न्यायालयों, यानी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की विदेश की निजी यात्राओं के लिए राजनीतिक मंज़ूरी लेने के लिए ज़रूरत थी। पिछले साल 13 जुलाई को केंद्रीय विदेश मंत्रालय (MEA) ने एक ऐसा ओएम जारी किया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के न्यायाधीशों को विदेश यात्रा करने से पहले राजनीतिक मंज़ूरी लेने की ज़रूरत थी।

क्लबों में सीसीटीवी कैमरों का लगाया जाना भी निजता के अधिकार में बाधा डालना है, मद्रास हाई कोर्ट का फ़ैसला: मद्रास हाई कोर्ट ने इस महीने की शुरुआत में एमएम नगर स्पोर्ट्स एंड रिक्रिएशन सेंटर बनाम पुलिस अधीक्षक और अन्य के मामले में दिये गये अपने फ़ैसले में जुआ और अन्य ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों की निगरानी के लिए क्लबों और मनोरंजन केंद्रों के सभी क्षेत्रों के भीतर सीसीटीवी कैमरे के लगाये जाने को लेकर पुलिस के अनुरोध को खारिज कर दिया था। फ़ैसले में कहा गया था कि इस तरह कैमरे का लगाया जाना संरक्षक के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा। इस तत्कालीन मामले में उन दो क्लबों और मनोरंजन केंद्रों की ओर से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिकायें दायर की गयी थीं। उस याचिका में पुलिस अधिकारियों को उनके आगंतुकों और ऐसे स्थानों पर सदस्यों की रोज़-ब-रोज़ की गतिविधियों में किसी भी तरह से दखल दिये जाने से रोकने को लेकर परमादेश की एक रिट की मांग की गयी थी।

टेलीफ़ोन पर पत्नी की बातचीत को उनकी जानकारी के बिना रिकॉर्ड करना भी निजता का उल्लंघन: पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट: पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का फ़ैसला है कि टेलीफ़ोन पर पत्नी की बातचीत को उनकी जानकारी के बिना रिकॉर्ड करना भी उनकी निजता का उल्लंघन है।

साभार: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Aadhaar Advisory: the Continuing Saga of UIDAI’s Breach of Privacy Rights

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest