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लोकतंत्र की ताक़त इसकी संस्थाओं में निहित है

यह आवश्यक है कि संविधान में ‘सुशासन’ को एक मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करने के लिए जनमत का दबाव बनाया जाए।
independence

मुंबई स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एलुमनी एसोसिएशन ने 'भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ-आगे की चुनौतीपूर्ण चुनौतियां' विषय पर एक विशेष शताब्दी भाषण आयोजित कर अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया। पिछले महीने 26 मार्च को आयोजित इस समारोह में डॉ. माधव गोडबोले ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया। उनके साथ डॉ.एसए दवे (संस्थापक अध्यक्ष, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड और बाद में यूटीआई म्यूचुअल फंड) भी मौजूद थे। बाद में, दि लीफ्लेट ने डॉ. गडबोले के भाषण को तीन हिस्सों में प्रकाशित किया है। लीफ्लेट में इसके प्रकाशन की अनुमति देने के लिए हम मुंबई स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एलुमनी एसोसिएशन की प्रेसिडेंट प्रो. रितु दीवान, वाइस प्रेसिडेंट डॉ. चंद्रहास देशपांडे के प्रति आभारी हैं।

प्रस्तुत आलेख डॉ. माधव गोडबोले के भाषण का तीसरा हिस्सा है। उनके पहले और दूसरे हिस्से को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

एक समय था, जब भारत के निर्वाचन आयोग (ईसीआई) को शीर्ष स्तर की सार्वजनिक प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता हासिल थी। हाल के वर्षों में उसकी यह छवि कुछ हद तक खराब हो गई है, जब निर्वाचन आयोग ने केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर अपनी आंख बंद रखी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है,जिसने गोधरा दंगों के बाद सैद्धांतिक रुख अपनाया और अनुरोध किया कि इसे सर्वोच्च न्यायालय के चल रहे मामले में लागू किया जाए ताकि अदालत के समक्ष वास्तविक तस्वीर पेश की जा सके। एनएचआरसी की छवि वर्षों से खराब हो गई है, और उसका प्रभामंडल निस्तेज हो गया है।

संविधान में उल्लिखित राज्य नीति के निदेशक तत्व वर्षों से पूरी तरह से उपेक्षित किए जाते रहे हैं। इस प्रवृत्ति में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण नीतियों को 1991 में अपनाने के बाद से बढ़ोतरी हुई है।

सतही तौर पर देखने से पता चलता है कि भारत की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली की देखरेख करने वाली संस्थाओं की देश में जैसे भरमार हो गई हैं। लेकिन यह महज एक दृष्टिभ्रम है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शेल संस्थाएं वहां हैं लेकिन या तो वे संस्थान अपने अध्यक्ष/सदस्यों के खाली पदों के कारण निष्क्रिय पड़े हैं या जहां इनकी कमी नहीं है तो वे कोई स्पष्ट प्रभाव डालने में विफल रहे हैं। इनके कुछ नामों में केंद्र और राज्यों के अल्पसंख्यक आयोग (केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने प्रस्ताव किया है कि कोई अल्पसंख्यक आयोग नहीं होना चाहिए और अल्पसंख्यकों के हितों की देखभाल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को करनी चाहिए। पर मैं उनकी राय से सहमत नहीं हूं। मेरा तो विचार है कि अल्पसंख्यकों के हितों को उनके अलग-अलग आयोगों द्वारा संरक्षित करने की आवश्यकता है), केंद्र और राज्यों में सूचना आयोग, केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्तालय (हालांकि कुछ बड़े राज्य भी इन संस्थानों की स्थापना करने में असफल रहे हैं), केंद्र और कुछ राज्यों में मानवाधिकार आयोग, राज्यों में पुलिस विभागों द्वारा स्थापित सार्वजनिक शिकायत समितियां, अंतरराज्यीय परिषद (आईएससी) संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत स्थापित, और इसी तरह के संस्थान शामिल हैं। जहां तक आईएससी का सवाल है, तो चूंकि कांग्रेस पार्टी इस संस्थान की स्थापना में विश्वास नहीं करती थी, इसलिए 1990 में वीपी सिंह सरकार ने इसकी स्थापना की, यह काम संविधान को अपनाने के 40 साल बाद किया गया। लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन), जो 2004 से 2014 तक सत्ता में था, पर उसने आईएससी की एक भी बैठक नहीं बुलाई। लिहाजा, अब समय आ गया है कि इन संस्थानों के कामकाज की बारीकी से जांच की जाए और फिर उस आधार पर उनका समुचित आकलन किया जाए। इस संदर्भ में निम्नलिखित दिशानिर्देशों को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार करने की आवश्यकता है:

  1. संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित की जाए।
  2. इन संस्थानों के अध्यक्ष और सदस्यों का चयन एक समिति द्वारा किया जाना चाहिए, जिनमें सरकार के अलावा, उच्च न्यायालयों/सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश; विधायिका/संसद में विपक्ष के नेता, और ईमानदारी और सार्वजनिक प्रतिष्ठा के एक या दो स्वतंत्र, गैर-राजनीतिक व्यक्ति शामिल होंगे।
  3. उन संस्थानों में खाली पड़े पदों को भरने के लिए समय पर कार्रवाई की जानी चाहिए ताकि वे खाली न रहें।
  4. अध्यक्ष और सदस्यों को दूसरे कार्यकाल के लिए पुनर्नियुक्ति नहीं की जानी चाहिए।
  5. संस्थान की वार्षिक रिपोर्ट को, किसी मसले पर क्या कार्रवाई की गई उसकी रिपोर्ट के साथ तुरंत विधायिका/संसद के समक्ष पेश किया जाए; और
  6. इन रिपोर्टों को प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाए।

अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों ने आय और धन की असमानताओं को दूर करने के लिए राज्य को जवाबदेह बनाया है। संविधान का अनुच्छेद 38(2) कहता है कि “राज्य, विशेष रूप से, आय में असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा, और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले या अलग-अलग व्यवसाय में लगे लोगों के समूहों के बीच स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को खत्म करने का प्रयास करेगा।” संविधान का अनुच्छेद 39(सी) राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि "आर्थिक प्रणाली के संचालन के परिणामस्वरूप धन और उत्पादन के साधनों का संकेंद्रण होकर जन-सामान्य का कोई नुकसान नहीं हो।"

कुछ सदस्यों की मांगों के बावजूद, संविधान सभा संविधान के स्वरूप का वर्णन करने के लिए ‘समाजवादी’ शब्द का उपयोग करने पर सहमत नहीं हुई थी। लेकिन, तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान किए गए संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा ‘समाजवादी' शब्द को संविधान की प्रस्तावना में बहुत धूमधाम से शामिल किया गया। तब कुछ अन्य संशोधन भी किए गए थे। जैसा कि अनुभव से जाहिर है, यह शुद्ध दिखावटी रहा है। राज्य नीति के निर्देशक तत्व वर्षों से पूरी तरह से उपेक्षित रहे हैं। 1991 से आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण नीतियों को अपनाने के बाद से यह उपेक्षा अधिक बढ़ गई है।

जैसा कि जयति घोष ने बताया है, ताजा विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 तो आंख खोलने वाली है। “भारत आय और धन असमानता दोनों ही मामलों में अब दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक हो गया है-और यहां असमानता में सबसे तेजी से वृद्धि हुई है। यह स्पष्ट रूप से उभरता है, भले ही रिपोर्ट के अनुसार, ‘पिछले तीन वर्षों में, सरकार द्वारा जारी असमानता डेटा की गुणवत्ता गंभीरता से बिगड़ गई है, जिससे हाल ही में असमानता परिवर्तनों का आकलन करना विशेष रूप से कठिन हो गया है।’” (दि वायर,20 जनवरी 2022)

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022 में भारत 116 देशों में 101वें स्थान पर पहुंच है। भारत उन 31 देशों में शामिल है, जहां भुखमरी की पहचान एक गंभीर समस्या के तौर पर की गई है। पिछले साल जारी वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई) में भारत 107 देशों में 94वें स्थान पर रहा। दुनिया के केवल 15 देश ही ऐसे हैं,जिनकी स्थिति भारत से भी बदतर है। इनमें पापुआ न्यू गिनी (102), अफगानिस्तान (103), नाइजीरिया (103), कांगो (105), मोजाम्बिक (106), सिएरा लियोन (106), तिमोर-लेस्ते (108), हैती (109), लाइबेरिया (110), मेडागास्कर (111), डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (112), चाड (113), सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक (114), यमन (115) और सोमालिया (116) शामिल हैं। इस मामले में भारत अपने अधिकतर पड़ोसी देशों से भी पिछड़ गया है। पाकिस्तान 92वें स्थान पर था, जबकि नेपाल और बांग्लादेश 76वें स्थान पर थे। सिर्फ एक उदाहरण देने के लिए, ऑटोमोबिली लेम्बोर्गिनी 2021 में भारत में अपने सर्वश्रेष्ठ बिक्री प्रदर्शन की रिपोर्ट करता है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 86 प्रतिशत की वृद्धि है। यह कंपनी भारत में 3.16 करोड़ रुपये की शुरुआती कीमत के साथ सुपर लग्जरी कारें बेचती है जबकि इसी अवधि में 4.6 करोड़ भारतीय अत्यधिक गरीबी की दलदल में धंस गए हैं।

भारत को समाजवादी देश होने का ढोंग करने की बजाय, संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी' शब्द को हटाने के लिए संविधान में संशोधन करना बेहतर होगा।

बढ़ते तनाव के तहत अर्ध-संघीय संरचना

संघ-राज्य संबंधों में बढ़ता तनाव तो एकदम स्पष्ट ही है। संघवाद पर राजनीतिक बयानबाजी में, यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि भारत एक संघ नहीं बल्कि राज्यों का एक संघ है। जैसा कि मेरी ताजा किताब का शीर्षक ‘इंडिया-ए फेडरल यूनियन ऑफ स्टेटस : फॉल्ट लाइंस, चैलेंजेस एंड ऑपरचुनिटिज ' है-भारत विभिन्न संघीय विशेषताओं वाले राज्यों का एक संघ है। मैंने 15 दोषों की पहचान की है, जो विशेष रूप से चिंता के विषय हैं। इनमें संघ-राज्य संबंध, संविधान की सातवीं अनुसूची में दिए गए संघ और राज्यों के बीच जिम्मेदारियों के बंटवारे की समीक्षा की आवश्यकता, तेजी से उभरते कठोर उप-राष्ट्रवाद, फ्रैंकनस्टाइन का राज्य अधिवास जो संविधान के अनुच्छेद 15 (धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधारों पर किए जाने वाले भेदभावों का निषेध) और अनुच्छेद16 (सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता), 1921 की जनगणना के बाद निर्वाचन क्षेत्रों के आगामी परिसीमन के कारण दक्षिणी और उत्तरी राज्यों के बीच जनसंख्या की दर में बड़ी भिन्नता के कारण पैदा होने वाले गंभीर क्षेत्रीय असंतुलन जैसे मसलों पर विचार करने का समय है। एक अनुमान के अनुसार, लोकसभा की कुल 888 सीटों में से उत्तर प्रदेश की 145, बिहार की 75, कर्नाटक की 45 और सभी दक्षिणी राज्यों की 179 सीटें या कुल सीटों का केवल 20 प्रतिशत होगा। यह भारत के अर्ध-संघवाद के लिए अस्तित्व की एक चुनौती होगी। और अंत में, संवैधानिक मामलों के त्वरित निपटान के लिए सर्वोच्च न्यायालय के एक संवैधानिक प्रभाग की स्थापना की आवश्यकता होगी।

‘सुशासन’ शब्द का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है क्योंकि जब संविधान लिखा गया था, तब यह संविधान सभा में विचार की जाने वाली शब्दावली का हिस्सा नहीं था, तथापि, संविधान का सरसरी अध्ययन और विशेष रूप से मौलिक अधिकारों तथा राज्य नीति निर्देशक तत्वों पर इसके अध्यायों से यह तथ्य बहुत स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माताओं का मकसद ‘सुशासन’ था।

सुशासन को मौलिक अधिकार घोषित करें

मेरे सहयोगी डॉ.ई.ए.एस.सरमा और मैंने 2004 में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी कि ‘सुशासन’ को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट (2002) में इस बात पर प्रकाश डाला है कि सर्वोच्च न्यायालय ने गोपनीयता के अधिकार, सूचना का अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार, त्वरित न्याय का अधिकार, प्रदूषण मुक्त हवा का अधिकार आदि जैसे कई मौलिक अधिकारों को मान्यता दी है, हालांकि उन्हें संविधान में स्पष्ट रूप से विवेचित नहीं किया गया है। इसी आधार पर सरमा और मैंने अपील की थी कि सर्वोच्च न्यायालय को सुशासन को एक मौलिक अधिकार के रूप में घोषित करना चाहिए, जो देश के शासन में बड़े संरचनात्मक और संस्थागत परिवर्तन लाने में मदद करेगा। हमने देश की उच्चतर सिविल सेवाओं में योग्यता का परिचय देने के महत्त्व को रेखांकित किया था और इसके लिए कई उपाय सुझाए थे। लेकिन, अफसोस है कि सर्वोच्च न्यायालय ने हमारी अपील नहीं सुनी, उसे खारिज कर दिया। जाहिर है, हम अपने समय से आगे थे! हालांकि अब यह आवश्यक है कि संविधान में सुशासन को एक मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करने के लिए जनमत का दबाव बनाया जाए।

शाश्वत सतर्कता ही लोकतंत्र का मान है

यह सदियों पुराना मुहावरा अभी भी सच है। भारत जैसे विशाल, बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहुजातीय, बहुलवादी समाज को समय-समय पर नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन, भारत अभी भी उपरोक्त अधिकांश समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ़ पाया है, जो लंबे समय से बनी हुई है। अब अगर हम राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों, उद्घोषणाओं और चुनाव घोषणापत्रों से देखा जाए तो इनमें से कोई भी सरोकार उनके रडार पर नहीं है। इन जटिल समस्याओं के उत्तर केवल राजनीति और दृष्टि के साथ पाए जा सकते हैं। स्पष्ट है कि राजनीतिक दल, नौकरशाही, नागरिक समाज, मीडिया, जनमत निर्माता और विचारक इन कठिन चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को लैस करने के लिए इन संस्थागत, प्रणालीगत, संवैधानिक और कानूनी परिवर्तनों पर जोर नहीं देकर देश को मान ही घटाया है। भारत को कब तक ऐसी दुर्दशा में रहना चाहिए?

(डॉ माधव गोडबोले भारत सरकार के गृह सचिव और न्याय सचिव रहे हैं।)

Courtesy : The Leaflet

अंग्रेज़ी में दिए गए इस भाषण को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Strength of Democracy Lies in its Institutions

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