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मुफ़्त रेवड़ी की बहस न्यायिक अतिरेक की सीमाओं को उजागर करती है

चुनावी लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही को सुरक्षित करने के क्रम में भारत में राजनीतिक दल के विनियमन के लिए रूपरेखा को लेकर चुनाव की मुफ़्त रेवड़ियों पर चर्चा हो सकती है।
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'मुफ़्त रेवड़ी' की बहस किस चीज़ को लेकर है?

पिछले कुछ महीनों में राजनीतिक प्रचार के वादों को पूरा करने का मामला सार्वजनिक पटल पर छाया रहा। चुनावी वादों के लिए इसका बढ़ना कुछ हद तक राजनेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा जनवरी में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका ('पीआईएल') का परिणाम है। यह जनहित याचिका चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक धन से तर्कहीन तरीक़े से मुफ़्त की रेवड़ी का वादा करने और चुनी हुई सरकार द्वारा वादा किए गए मुफ़्त रेवड़ियों को बांटने के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग की प्रथा का विरोध करती है।

इस याचिका में दावा किया गया है कि मुफ़्त उपहार का वादा मतदाताओं को ग़लत तरीक़े से प्रभावित करता है और सार्वजनिक धन से तर्कहीन चुनावी रेवड़ी बांटना संविधान के अनुच्छेद 282 का उल्लंघन करता है जो सार्वजनिक उद्देश्य को पूरा नहीं करता है। इस मामले में अगली सुनवाई 21 अक्टूबर (भारत के सर्वोच्च न्यायालय की आधिकारिक वेबसाइट से प्राप्त जानकारी के आधार पर) को होने की उम्मीद है।

चुनावी रेवड़ियां क्या हैं?

जारी विवाद यह निर्धारित करने में कठिनाई और संभावित असहमति को दर्शाता है कि चुनाव की मुफ़्त रेवड़ियां क्या हैं। सामान्यतया, मुफ़्त की रेवड़ियों का मतलब कुछ भी मुफ़्त में दिया जा सकता है, विशेष रूप से किसी चीज़ के लिए समर्थन या रुचि को आकर्षित करना है। राजनीतिक दलों द्वारा मुफ़्त (या न्यूनतम लागत पर) कुछ कल्याणकारी योजनाओं का वर्णन करने (साथ ही साथ अस्वीकार करने) के लिए भारत में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए अपने चुनाव प्रचार के दौरान "चुनावी रेवड़ी" शब्द का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है और जब वे सरकार (विशेषकर राज्य स्तर पर) बनाते हैं तो पब्लिक फंड से इसे पूरा करते हैं। बेशक, यह इस शब्द की सटीक परिभाषा नहीं है। हक़ीकत यह है कि चुनाव की मुफ़्त रेवड़ियों से लोग वंचित हैं।

यह जनहित याचिका उन राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ एक आदेश की मांग करती है जो मतदाताओं को लुभाने के लिए चुनाव प्रचार के दौरान पब्लिक फंड से चुनावी रेवड़ी का वादा करते हैं, जो एक मौलिक सवाल उठाता है कि क्या वोट खींचने के उद्देश्य से चुनाव प्रचार के दौरान किए गए सभी वादे नहीं हैं?

यह जनहित याचिका उन राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ एक आदेश की मांग करती है जो मतदाताओं को लुभाने के लिए चुनाव प्रचार के दौरान पब्लिक फंड से चुनावी रेवड़ी का वादा करते हैं, जो एक मौलिक सवाल उठाता है कि क्या वोट खींचने के उद्देश्य से चुनाव प्रचार के दौरान किए गए सभी वादे नहीं हैं? इसके जवाब के लिए निस्संदेह राजनीतिक दलों और चुनाव प्रचारों पर विस्तृत सैद्धांतिक चर्चा की आवश्यकता है।

राजनीतिक दल लोकतांत्रिक शासन के केंद्र में हैं जो लोगों और उनकी सरकारों के बीच एक सेतु का काम करते हैं। सरल शब्दों में कहें तो हर राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के उद्देश्य से लंबे, महंगे और थकाऊ चुनाव प्रचार करता है। मतदाताओं को लुभाना चुनावी लोकतंत्र में राजनीतिक प्रचार का मूल तत्व है। भविष्य की सरकारों के लिए माध्यम के रूप में राजनीतिक दल मतदाताओं के साथ बातचीत पर नीतिगत पैकेज तैयार करते हैं और चुनाव प्रचारों के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए इन्हें फ़रोख़्त हैं। निश्चित रूप से यह लोगों को उन्हें वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिए किया जाता है।

अपनी ओर से मतदाता काफ़ी हद तक इस बात से अवगत होते हैं कि जब वे सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी को चुनते हैं तो उन्हें क्या मिलता है या क्या नहीं मिलता है। अनिवार्य रूप से यह लोगों और उनके द्वारा चुनी गई सरकार के बीच एक नीतिगत सौदेबाजी का रूप देता है। यह देखते हुए, यह तर्कपूर्ण है कि चुनावी वादों के सटीक और वैध तरीक़े से पूरा करने के मामले को निर्धारित करने में अदालतें कितनी उपयोगी साबित हो सकती हैं।

रेवड़ी बनाम लोक नीति: संविधान कैसे लागू होता है?

रेवड़ी कल्याणकारी उपाय हैं जिनका वादा किया जाता है और पब्लिक फंड से दिया जाता है। इन कथित विवादास्पद कल्याणकारी योजनाओं (जिसमें छात्रों के लिए मुफ़्त लैपटॉप, स्मार्टफोन, साइकिल और स्कूटर, महिलाओं के लिए एलपीजी सिलेंडर और मुफ़्त परिवहन के साथ नकद और अन्य उपहार जैसी वस्तुओं का वितरण शामिल हो सकता है) के लिए धन संविधान के अनुच्छेद 282 के माध्यम से राज्य की संचित निधि (अनुच्छेद 162 के साथ अनुच्छेद 266) से निकाला जाता है।

संघ या राज्यों द्वारा तैयार की गई कोई भी कल्याणकारी योजना जो डीपीएसपी और प्रस्तावना को आगे बढ़ाती है, उसे एक सार्वजनिक उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए कहा जा सकता है और उसके लिए व्यय को तर्कसंगत कहा जा सकता है।

केंद्र प्रायोजित योजनाओं को प्रभावी बनाने के लिए अनुच्छेद 282 के बिना बाधा के इस्तेमाल को लेकर चिंताएं कई वर्षों से क़ायम हैं। अनुच्छेद 282 अब राज्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनुदानों के देने को लेकर सवालों के घेरे में है। इन कल्याणकारी योजनाओं को "मुफ़्त की रेवड़ी" कहा जाता है। अनुच्छेद 282 संघ और राज्य को "सार्वजनिक उद्देश्य" के लिए किसी भी विषय पर विवेकाधीन अनुदान (व्यय) करने में सक्षम बनाता है, भले ही संघ या राज्य को संविधान की सातवीं अनुसूची की योजना के तहत ऐसे सार्वजनिक उद्देश्य के लिए क़ानून बनाने का अधिकार नहीं है। इस तरह, अनुच्छेद 282 के लिए व्यय क़ानूनी एतबार से अच्छा चाहिए। यह सख़्ती से "सार्वजनिक उद्देश्य" के लिए होना चाहिए।

नतीजतन, अनुच्छेद 282 के तहत सार्वजनिक उद्देश्य के लिए राज्य सरकार की योजनाओं (मुफ़्त की रेवड़ी) पर कोई भी ख़र्च एक तर्कहीन ख़र्च होगा (संभवतः, तर्कहीन चुनावी रेवड़ी)। इसलिए, यह निर्धारित करने के लिए कि क्या कोई व्यय आवश्यक है या कोई तर्कहीन रेवड़ी है साथ ही यह निर्धारित करना कि अनुच्छेद 282 के तहत सार्वजनिक उद्देश्य क्या है जो सार्थक हो जाता है।

हालांकि, संविधान "सार्वजनिक उद्देश्य" शब्द का स्पष्टीकरण नहीं करता है। 2010 में, भीम सिंह बनाम भारत संघ में सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस शब्द की व्यापक व्याख्या की जिसका अर्थ राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों ('डीपीएसपी') और संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्य को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था। इसके बाद से संघ या राज्यों द्वारा तैयार की गई कोई भी कल्याणकारी योजना जो डीपीएसपी और प्रस्तावना को आगे बढ़ाती है, उसे एक सार्वजनिक उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए कहा जा सकता है और उसके लिए व्यय को तर्कसंगत कहा जा सकता है।

उनके बिना रूकावट के उपयोग का मुद्दा पहली बार 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया था। एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य में सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने तमिलनाडु में राजनीतिक दलों द्वारा वादा करने और मुफ़्त की रेवड़ी (जैसे रंगीन टीवी सेट, ग्राइंडर, मिक्सी, पंखे, लैपटॉप, नकदी, वगैरह) बांटने की प्रथा को चुनौती दी थी। अदालत ने कहा कि चुनावी घोषणापत्र में ऐसे वादों को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के रूप में नहीं माना जा सकता है। अदालत ने "राज्य की उदारता" को डीपीएसपी से जोड़ा और फ़ैसला सुनाया कि यह निर्वाचित सरकार के लिए है कि इन सिद्धांतों को लागू करने की नीति पर निर्णय ले। इसने कहा कि यह नीतिगत निर्णयों में तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता जब तक कि कुछ वैधानिक या संवैधानिक प्रावधान का स्पष्ट उल्लंघन न हो या ये नीति मनमानी प्रकृति की न हो।

विशेष रूप से अश्विनी कुमार उपाध्याय का मामला और सुब्रमण्यम बालाजी मामले में खंडपीठ का फ़ैसला पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष है। दिलचस्प बात यह है कि भीम सिंह मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने भी "सार्वजनिक उद्देश्य" को डीपीएसपी से जोड़ा। भीम सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायिक हस्तक्षेप की अनुमति केवल तभी है जब सरकार की कार्रवाई असंवैधानिक हो या ख़र्च की सीमा राज्य की भलाई के लिए न हो। ऐसे सभी नीतिगत प्रश्नों पर न्यायालय के बजाय विधायिका में बहस और निर्णय किया जाना चाहिए।

संविधान में निहित सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई कल्याणकारी योजनाएं एक नीतिगत मामला है, जो नीति निर्माताओं द्वारा निर्धारण के लिए सबसे उपयुक्त है। ये क्लासिक नीतिगत प्रश्न हो सकते हैं, जिन्हें न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे से बाहर छोड़ दिया जाता है, जब तक कि मौजूदा क़ानून या संविधान के प्रावधान का स्पष्ट उल्लंघन न हो।

हालांकि, सुब्रमण्यम बालाजी मामले में अदालत ने सहमति व्यक्त की कि मुफ़्त की रेवड़ी चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए और चुनाव घोषणापत्र को नियंत्रित करने वाले किसी भी अधिनियम के अभाव में समान अवसर को बदल देते हैं। अदालत ने भारत के चुनाव आयोग ('ईसीआई') को चुनावी वादों को नियंत्रित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था। ये दिशानिर्देश अब चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के मार्गदर्शन के लिए आदर्श आचार संहिता ('एमसीसी') का हिस्सा हैं।

आगे बढ़ने का संभावित तरीक़ा क्या है?

संवैधानिक योजना के तहत जो राज्य या केंद्र सरकार द्वारा आवश्यक और अनुचित सार्वजनिक व्यय को शामिल करता है वह इस बात पर निर्भर करता है कि उस समय सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा में क्या शामिल किया जा सकता है। बेशक, सार्वजनिक उद्देश्य को व्यापक रूप से परिभाषित करना मुश्किल (यदि असंभव नहीं) है। संविधान में निहित सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई कल्याणकारी योजनाएं एक नीतिगत मामला है, जो नीति निर्माताओं द्वारा निर्धारण के लिए सबसे उपयुक्त है। ये बेहतर नीतिगत प्रश्न हो सकते हैं, जिन्हें न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे से बाहर छोड़ दिया जाता है, जब तक कि मौजूदा क़ानून या संविधान के प्रावधान का स्पष्ट उल्लंघन न हो।

सुब्रमण्यम बालाजी मामले में निर्णय के बाद, चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों द्वारा पालन किए जाने वाले एमसीसी में चुनाव घोषणापत्र के लिए दिशानिर्देश तैयार किए हैं। इन दिशा-निर्देशों को सख़्ती से लागू करने से शायद चुनावी वादों से जुड़ी कुछ चिंताओं का समाधान हो जाएगा।

राजनीतिक दल मतदाताओं और सरकार के बीच सेतु का काम करते हैं। हालांकि भारतीय लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं में से एक राजनीतिक दल बड़े पैमाने पर अनियंत्रित रहते हैं। इस तरह, भारत में एक बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था प्राप्त करने की दिशा में एक आवश्यक पहला क़दम चुनावी लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों के विनियमन के लिए एक रूपरेखा का होना हो सकता है। उनका विनियमन यह भी सुनिश्चित करेगा कि राजनीतिक दलों के नियमित संचालन से संबंधित ऐसे मामलों को न्यायपालिका तक नहीं पहुंचाया जाए और शायद अन्य माध्यमों से इसका हल किया जा सकता है।

चुनावी मुफ़्त रेवड़ियां बांटने की बात संभावित रूप से इस चर्चा को आगे बढ़ा सकती है कि भारत में राजनीतिक दल के विनियमन के लिए इस तरह की रूपरेखा क्या हो सकती है?

साभारः द लीफलेट

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित साक्षात्कार को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Freebies Debate Highlights the Limits of Judicial Overreach

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