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विधानसभा चुनावः लोकतंत्र या धनतंत्र?

पार्टियों के बही-खाते की जांच के बिना लोकतंत्र को नहीं समझा जा सकता।
Loktantra or Dhantantra

अगले महीने नवंबर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। आपको नेताओं के भाषण, चुनावी वायदे, जातीय समीकरण, उपलब्धियों का गुणगान, ओपिनियन पोल वगैरह पर खूब कवरेज ठेली जा रही है। लेकिन कोई ये नहीं बता रहा कि चुनाव में खर्चे को लेकर इन पार्टियों का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है। पार्टियों के बही-खाते की जांच के बिना लोकतंत्र को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि इसी जांच से पता चलेगा कि ये लोकतंत्र है या धनतंत्र?

आप बखूबी जानते होंगे कि पार्टियां और कंडिडेट चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाते हैं। लेकिन कितना पैसा? भारत में राजनीतिक पार्टियों के द्वारा चुनाव पर किया जाने वाला खर्च का आंकड़ा आपके होश उड़ा देगा। पार्टियों के बही-खाते जांचने इसलिए भी जरूरी ताकि पता चले कि इन पार्टियों का लोकतंत्र पर कितना फोकस है और धनतंत्र पर कितना? तो आइये, पड़ताल शुरू करते हैं।

चुनावी ख़र्च समझने का आधार

सबसे पहले इस तथ्य को याद रखिये कि भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां चुनावों में सबसे ज्यादा खर्च किया जाता है। वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव अब तक का दुनिया का सबसे खर्चीला चुनाव था। चुनाव में राजनीतिक पार्टियों के खर्चे को समझने के लिए जरूरी है कि उन विधानसभाओं के आंकड़े को देखा जाए जिनका लेटेस्ट और पिछले चुनाव का आंकड़ा उपलब्ध हो और सभी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों का आंकड़ा उपलब्ध हो। ताकि हम समझ पाएं कि पिछले चुनाव से इस चुनाव के बीच खर्चे में कितनी बढ़ोतरी हुई? किस पार्टी ने कितना खर्च किया और कितनी बढ़ोतरी हुई? फिलहाल जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं उन राज्यों का पिछले विधानसभा चुनावों के खर्चे का ब्योरा चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं है। यहां आपको ये भी बता दें कि सभी पार्टियों को विधानसभा चुनाव खत्म के होने के 75 दिन और लोकसभा चुनाव खत्म होने के 90 दिन के भीतर अपने आय और खर्चे का ब्योरा चुनाव आयोग को सबमिट करना होता है। लेकिन सभी पार्टियों का सभी चुनावों का ब्योरा चुनाव आयोग की वेबसाइट पर नहीं है। इसी वर्ष कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव के खर्च और आय का भाजपा का ब्योरा चुनाव आयोग की वेबसाइट पर नहीं है।

चुनाव आयोग की वेबसाइट पर सभी पार्टियों का और दो चुनावों का लेटेस्ट आंकड़ा असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी के वर्ष 2021 के चुनावों का ही उपलब्ध है। इसी को आधार बनाते हैं और पार्टियों के बही-खाते को समझते हैं।

राजनीतिक पार्टियों का चुनावी ख़र्च

चुनाव आयोग की वेबसाइट के अनुसार असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के 2021 के चुनावों में सात बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा 5,42,54,44,491 रुपये खर्च किए गए थे। इस आंकड़े को पढ़ने के लिए आपको इकाई, दहाई, सैकड़ा करना पड़ा होगा। ये खर्च था 5 अरब 42 करोड़ 54 लाख 44 हजार 491 रुपये। जबकि वर्ष 2016 में इसी चुनाव में देश की सात बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों ने 1 अरब 55 करोड़ 35 लाख 53 हजार 092 रुपये खर्च किए थे। यानी चुनावी खर्चे में तीन गुणा बढ़ोतरी हुई थी।

वर्ष 2021 में इन पांच राज्यों के चुनाव में सभी नेशनल पार्टियों ने कुल मिलाकर जितना खर्च किया था, उससे कहीं ज्यादा खर्च अकेली भाजपा ने किया था। कुल खर्च का आधे से ज्यादा खर्च भाजपा द्वारा किया गया था। वर्ष 2016 में चुनाव में सबसे ज्यादा खर्च कांग्रेस ने किया था। कांग्रेस ने 96,17,20,380 रुपये खर्च किए थे। जबकि वर्ष 2021 में सबसे ज्यादा खर्च भारतीय जनता पार्टी ने किया था। भाजपा ने 2,52,02,71,753 रुपये खर्च किए थे। भाजपा के चुनावी खर्चे में साढ़े आठ गुणा बढ़ोतरी हुई थी। भाजपा का चुनावी खर्च साढ़े पांच करोड़ से बढ़कर ढाई अरब पर पहुंच गया था। जबकि कांग्रेस के खर्चे में कमी आई थी, खर्च 96 करोड़ से घटकर लगभग 85 करोड़ पर पहुंच गया था।

आपको ये भी बता दें कि ये सिर्फ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का ब्योरा है पूरे देश का नहीं और इसमें लोकसभा चुनाव का खर्च शामिल नहीं है। इसमें वोटरों को लिफाफे में दिए जाने वाला पैसा और दारू व मुर्गे का खर्च भी शामिल नहीं है। ये खर्च उस देश में किया जा रहा है जहां 81 करोड़ से ज्यादा आबादी मुफ्त राशन पर निर्भर है। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रति वोटर 700 रुपये खर्च किए गए थे उस वक्त किसान की एक दिन की आय मात्र 27 रुपये थी।

पार्टियों के चुनाव ख़र्चे पर लिमिट तय हो

अजीब बात ये है कि राजनीतिक पार्टियों पर चुनाव में खर्च करने की कोई भी लिमिट नहीं लगाई गई है। पार्टियां जितना चाहे खर्च कर सकती हैं, उन्हें खुली छूट है। असल में चुनावी खर्च दो तरह से होता है पार्टी के द्वारा और कंडिडेट के द्वारा। कंडिडेट लोकसभा चुनाव में अधिकतम 95 लाख और विधानसभा चुनाव में अधिकतम 40 लाख खर्च कर सकता है। लेकिन पार्टियों पर खर्चे की कोई लिमिट नहीं है। लोकतंत्र में धनतंत्र का ये वर्चस्व साधारण नागरिक को इतनी बेचारगी की स्थिति में पहुंचा देता है कि वो चुनाव लड़ना तो दूर चुनाव लड़ने के बारे में सोच तक नहीं पाता है और अपनी भूमिका सिर्फ वोट डालने तक ही सिमित रखने को विवश हो जाता है।

पार्टियां चुनाव में अंधाधुंध पैसा बहाती है और लोकतंत्र पर धनतंत्र हावी हो जाता है। गरीब लोग लोकतंत्र के हिस्सेदार बनने की बजाय तमाशबीन बन कर रह जाते हैं। इसलिए जरूरी है कि जब लोकतंत्र के बारे में बात हो तो धनतंत्र को भी समझा जाना चाहिए। पार्टियों के न सिर्फ खर्चे पर लिमिट होनी चाहिए बल्कि इनकी डोनेशन और चंदे में भी पारदर्शिता होनी चाहिए। जनता को पता होना चाहिए कि किस पार्टी को कितना चंदा मिला है और कहां से मिला है? लेकिन इलेक्ट्राल बॉन्ड से मिलने वाले चुनावी चंदे में आप ये जानकारी हासिल नहीं कर सकते कि ये पैसा किसने दिया है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। आप सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं।)

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