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जाति जनगणना: सांप्रदायिक राजनीति के ख़िलाफ़ मंडल-2 साबित हो सकती है

पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद अब यह मसला केवल बिहार का नहीं रह गया है, अब इसकी गूंज पूरे भारत में सुनाई देगी और इस पर आने वाले दिनों में देशव्यापी बहस अवश्य ही होगी।
caste census
प्रतीकात्मक तस्वीर।

समान नागरिक संहिता, राम मंदिर आदि भाजपा के लिए ऐसे मुद्दें हैं, जिसके जरिए वह मतदाताओं के बहुमत यानी 70 से 80 फीसदी हिन्दू मतदाता को प्रभावित और पोलराईज्ड करने की कोशिश करती है। ऐसे में सवाल ये था कि इंडिया गठबंधन क्या करेगा, विपक्ष क्या करेगा? ऐसे मुद्दों की काट के लिए क्या उनके पास कोई ऐसा मुद्दा है, जो मतदाताओं के बड़े हिस्से को प्रभावित करे? अब अगर आप 1931 के आंकड़े को भी सच मानें तो भी भारत की बहुसंख्यक आबादी के भीतर जो बहुसंख्यक हैं, वे ओबीसी हैं, तकरीबन 52 फीसदी।

तो क्या विपक्ष जाति जनगणना के जरिए यूसीसी की काट खोज सकती हैं? निश्चित ही, और अगर ऐसा नहीं होता तो बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव इस मुद्दे पर संसद से अदालत तक की लड़ाई नहीं लड़ते और न ही राहुल गांधी समेत “इंडिया” इस मांग को राष्ट्रव्यापी बनाने की कोशिश करती। इसी मुद्दे पर न्यूज़क्लिक के लिए विपक्ष के विभिन्न दलों से उनकी राय जानने की कोशिश की।

मंडल-2 साबित होगा

सीपीआई (एमएल) महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने न्यूज़क्लिक के लिए बात करते हुए कहा कि भाजपा यूसीसी के जरिये मुस्लिम-एंटी मुस्लिम माहौल बनाने की हवाई कोशिश कर रही थी लेकिन इसका तगड़ा विरोध पूर्वोत्तर भारत, झारखंड और आदिवासियों के बीच से हुआ तो यह साबित हो गया कि यूसीसी भारत की एकता और विविधता के खिलाफ है, इसलिए यह मुद्दा ही अब बदल गया है।

दीपंकर कहते हैं, “सामाजिक न्याय और आरक्षण की लगातार जिस तरह से भाजपा ने उपेक्षा की है, उससे लगता है कि कास्ट सेंसस का मुद्दा मंडल-2 साबित हो सकता है।”

भट्टाचार्य इस बात में भरोसा करते है कि भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ कास्ट भी एक फैक्टर है, जेंडर भी एक फैक्टर है जैसा कि मणिपुर में हमने अभी देखा। उनका मानना है,”भाजपा के मनुवादी, बाजारवादी और गैर-बराबरी की नीतियों के खिलाफ जाति और जेंडर के आधार पर सामाजिक-वैचारिक गोलबंदी संभव है।”

बहरहाल, ओबीसी का जो आंकड़ा अभी मौजूद है, वह अभी भी 1931 की जनगणना पर आधारित है। 1990 में जब वीपी सिंह ओबीसी आरक्षण की बात कर रहे थे, तो उस समय माना गया था कि ओबीसी लगभग 52 फीसदी हैं। दूसरी तरफ, हर सेंसस के बाद एससी और एसटी की संख्या सार्वजनिक की जाती है। ओबीसी के साथ ऐसा नहीं है। इसी को बिहार सरकार ने भी आधार बनाया था। सरकार का कहना है कि आंकड़ा बहुत पुराना यानी 1931 का है, तो उसको रिन्यू करने की जरूरत है। पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद अब यह मसला केवल बिहार का नहीं रह गया है, अब इसकी गूँज पूरे भारत में सुनाई देगी और इस पर आने वाले दिनों में देशव्यापी बहस अवश्य ही होगी।

कमंडल पर भारी मंडल

मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किए जाने के बाद भारतीय राजनीति में एक बहुत बड़ा बदलाव आया था। राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव सैयद फ़ैसल अली के मुताबिक़, 90 के दशक में मंडल ने कमंडल को न सिर्फ रोकने का काम किया था बल्कि अगर आप देखें तो उस दौर में बिहार, उत्तर प्रदेश, भाजपा (अध्यक्ष, बंगारू लक्ष्मण) और कांग्रेस (अध्यक्ष, सीताराम केसरी) के शीर्ष नेताओं की लिस्ट में भी ओबीसी/एससी नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ, जो आज तक जारी है। यानी, फ़ैसल अली के अनुसार मंडल पार्ट-1 ने भारतीय राजनीति में ओबीसी जमात को स्थापित कर दिया। यह तथ्य बिलकुल सही है कि उसी दौर में लाल कृष्ण आडवानी की रथ यात्रा (कमंडलवादी राजनीति) को भी बिहार की मंडलवादी राजनीति ने ही बीच रास्ते में रोक दिया था। जाहिर है, विपक्ष इस मंडलवादी राजनीति की ताकत को भलीभांति समझता है और बिहार यूपीए के जमाने से ही जातिगत जनगणना की वकालत करता आ रहा है।

सैयद फ़ैसल अली बताते हैं कि लालू जी ने ही सबसे पहले सदन में अपनी ही सरकार (यूपीए) के समय इसकी मांग की थी। असल में, 1872 से लेकर 1931 तक जितनी भी जनगणना अंग्रेजो ने कराई उसमें जातिगत आंकड़े जारी किए गए, लेकिन 1951 में आजाद भारत में जो पहली जनगणना हुई, उसमें एससी और एसटी की ही जानकारी थी। 1951 से अब तक देश में सात बार जनगणना हो चुकी है, लेकिन ओबीसी की संख्या कभी जाहिर नहीं की गयी। आखिर ये आकड़े जारी करने से कौन डरता है और क्यों डरता है?

सैयद फ़ैसल अली, तेजस्वी यादव के कहे एक मशहूर बयान ”जाति जनगणना हो कर रहेगी” की याद दिलाते हुए कहते हैं कि सही मायनों में सबका साथ-सबका विकास और इन्क्लूसिव विकास के लिए जातिगत जनगणना की जरूरत है। अली उम्मीद जताते हैं कि अगर “इंडिया” की सरकार बनती है तो इस पर तत्काल काम होगा। अंत में, वे इस बात से इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं, “इस बात से नकारा नहीं जा सकता है कि अगर भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश करती है तो कास्ट सेंसस को इसकी काट के रूप में देखा जा सकता है लेकिन हमलोग इसकी ताकत को इससे भी अधिक उपयोगी समझते हैं, ख़ास कर उन लोगों के लिए जो सामाजिक-आर्थिक विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं।”

जाति सबसे बड़ी सच्चाई

कांग्रेस प्रवक्ता असित नाथ तिवारी ने न्यूज़क्लिक के लिए बात करते हुए यह स्वीकार किया कि आज कोई नहीं नकार सकता कि जाति आज हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी और तल्ख़ सच्चाई है और इसके लिए राजनीति के साथ-साथ समाज का हर तबका जिम्मेवार है कि हम एक जातिविहीन समाज नहीं बना सके। उनका मानना है कि विकास की तेज रफ़्तार में जो लोग पीछे रह गए है उनकी पहचान के लिए यह जनगणना आवश्यक है।

असित नाथ तिवारी कहते हैं,” ऐसी जनगणना से न सिर्फ ओबीसी बल्कि संभव है कि दलित/महादलित या किसी जनजाति समूह के एक तबके के पिछड़ेपन की जानकारी मिल जाए। तो ऐसी जानकारी के सहारे हम ऐसे समूहों के लिए बेहतर काम कर पाएंगे।”

बहरहाल, तिवारी यह कह रहे हैं कि कास्ट सेंसस की आवश्यकता उन घरों में रौशनी लाने के लिए बहुत जरूरी है, जहां अन्धेरा है। लेकिन, यह तथ्य भी उतना ही सही है कि कास्ट सेंसस राजनीतिक तौर पर फायदेमंद नहीं होता तो बिहार समेत समूचा “इंडिया” गठबंधन आज इसकी वकालत नहीं कर रहा होता और न ही राहुल गांधी पूरे देश में कास्ट सेंसस की मांग कर रहे होते।

बहरहाल, पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद आगे सुप्रीम कोर्ट का क्या आदेश होता है, यह सब तो भविष्य की बात है लेकिन बिहार में कास्ट सर्वे का काम 80 फीसदी तक पूरा हो चुका है। अब बिहार सरकार चाहेगी कि वह तुरंत इस काम को पूरा करे और डाटा जारी करे। नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव यह अच्छी तरह जानते हैं कि लोकतंत्र में सर गिने जाते हैं और बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के भीतर जो बहुसंख्यक हैं, वह ओबीसी हैं और 1931 के बाद जब पहली बार ओबीसी आबादी का डेटा जारी होगा तो निश्चित ही मंडल-2 की राजनीति भी नए सिरे से शुरू हो जाएगी और मंडल एक की राजनीति ने 90 के दशक में कैसे कमंडल को पछाड़ा था, यह सबने देखा है। तो मंडल-2 की राजनीति क्या नया गुल खिलाती है, यह देखने के लिए बस इंतज़ार करना होगा, तब तक, जब तक कि बिहार कास्ट सर्वे का डाटा जारी नहीं हो जाता।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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