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UAPA के सेक्शन 43(5) (D) की ख़ामियां उजागर कर दिल्ली हाईकोर्ट ने कमाल कर दिया!

अगर किसी व्यक्ति को यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। तो यूएपीए की धारा 43 (5) (D) डी के मुताबिक उसे ज़मानत नहीं मिलेगी। केवल पुलिस का पक्ष सुना जाएगा। अगर प्रथम दृष्टया पुलिस के पक्ष से मजबूत साक्ष्य मिलते हैं तो आरोपी का पक्ष भी नहीं सुना जाएगा। आरोपी सालों साल जेल में कैद रहेगा।
UAPA के सेक्शन 43(5) (D) की ख़ामियां उजागर कर दिल्ली हाईकोर्ट ने कमाल कर दिया!

लंबे समय तक जेल की सलाखों के भीतर रहने के बाद निर्दोष लोग जब जेल से बाहर आते हैं तो यह जश्न की बात तो होती ही है लेकिन न्याय व्यवस्था के लिए शर्म की भी बात होती है कि निर्दोष लोगों को बिना किसी गुनाह के जेल के भीतर रहना पड़ा।  यूएपीए एक ऐसा ही कानून है, जिसकी धाराओं के अंतर्गत आरोपी बने लोगों को सालों साल जेल में रहना पड़ा। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 के आंकड़ों के मुताबिक यूएपीए से जुड़े तकरीबन 67 फ़ीसदी मामलों में आरोपियों को बहुत दिन जेल के भीतर रहने के बाद दोषमुक्त कर किया गया। 

यही सबसे गहरा सवाल है कि इन लोगों की जिंदगी के साथ इंसाफ कैसे हो पाएगा जिन्हें सालों साल जेल में रहने के बाद निर्दोष बताकर छोड़ा जाता है। उन पुलिस वालों के साथ क्या किया जाए जो राजनीति आकाओं के इशारे पर गलत मामला बनाकर लोगों की जिंदगी बर्बाद करने का काम करते रहते हैं।

इसे पढ़ें : अगला क़दम : अदालतों को यूएपीए का दुरुपयोग करने वाले अधिकारियों को दंडित करना चाहिए

दिल्ली हाईकोर्ट के जज अनूप जयराम भाबनी और सिद्धार्थ मृदुल ने  नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा के मामले पर सुनवाई करते हुए यूएपीए के कुछ उपबंधों पर अपने फैसले में गंभीरता से सवाल उठाया है। इसी में यूएपीए की धारा 43 D (5) से जुड़ा नियम भी शामिल है जिसकी वजह से कई लोगों को बिना किसी अपराध के जेल के भीतर कई सालों तक रहने के लिए डाल दिया जाता है। 

दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के विषय पर रिसर्च कर रहे रितेश धर कहते हैं कि UAPA के सेक्शन 43 D (5) के तहत पुलिस की केस डायरी या चार्जशीट से कोर्ट को ऐसा लगता है कि प्रथमदृष्टया अभियुक्त पर गंभीर मामला बनता है तो वह बिना ट्रायल के भी व्यक्ति को 180 दिनों तक जेल में रहने के आदेश दे सकती है। जबकि आम मामलों में 90 दिनों के भीतर दोनों पक्षों की सुनवाई न होने के बाद मामला नहीं बनता है तो अभियुक्त को बरी कर दिया जाता है। लेकिन यहां इसे कोर्ट के आदेश पर पूरी जिंदगी तक बढ़ाया भी जा सकता है। 

यह उपबंध ही प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है, जहां बिना सुनवाई के व्यक्ति को जेल में रखा जाता है। चार्जशीट स्टेट का पक्ष है। बिना व्यक्ति का पक्ष सुने केवल चार्जशीट और केस डायरी पर जेल में डाल देना गलत है। ऐसे में अब सरकारें जिसे भी अपनी राजनीति के लिए खतरा मानेंगी उसे गिरफ्तार कर लेंगी। या जिस तरह से भी खुद का फायदा देखेंगी, इसका फायदा उठाएंगी।

इसके साथ इस कानून के अंतर्गत अभियुक्त की ही यह जिम्मेदारी होती है कि वह यह साबित करे कि वह अपराधी नहीं है। यानी आतंकवादी का आरोप राज्य लगाएगा लेकिन आतंकवाद के आरोप से मुक्ति के लिए सबूत व्यक्ति को देना होगा। जबकि भारत के अपराध संहिता में कुछ अपवादों को छोड़कर प्रॉसिक्यूशन की यह जिम्मेदारी होती है कि वह सिद्ध करे कि अभियुक्त दोषी है। इसका मतलब है कि सरकार के पास इस कानून के माध्यम से ऐसी शक्ति मिली हुई है कि वह किसी भी तरह की असहमति को गैरकानूनी बताकर उसपर आरोप लगा सके और व्यक्ति जीवन भर उसे हटाने की कोशिश करते रहा।

कानूनी मामलों के जानकार गौतम भाटिया द हिंदू अखबार में लिखते हैं कि भारत में जिस क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को अपनाया जाता है उसके अंतर्गत अभियुक्त और अभियोजन पक्ष यानी दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का मौका दिया जाना जरूरी है। बात रखने का मतलब यह है कि वह अपनी तरफ का सच कोर्ट के सामने रखे हैं। उनके द्वारा अपने सच को सत्यापित करने के लिए दिए गए साक्ष्यों की छानबीन की जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया से होते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जाएगा की किसका पक्ष सच के ज्यादा करीब है।

इस पूरी प्रक्रिया में लंबा समय लगता है। साक्ष्य के तौर पर उपलब्ध हर एक जानकारी की छानबीन होती है। दिल्ली दंगों जैसी हाई प्रोफाइल मामले में कई लोगों को आरोपी बनाया गया है, कई लोगों को विटनेस के तौर पर पेश किया जाएगा, यह पूरी प्रक्रिया बहुत लंबी होगी। जिस तरह से हमारे देश में केस और कोर्ट के बीच भारी अंतर है तो इसकी भी संभावना है कि इसमें 10 साल से अधिक का समय लग जाए। 

कहने का मतलब यह है कि अगर किसी व्यक्ति को यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। तो यूएपीए की धारा 43 (5) (D) डी के मुताबिक उसे जमानत नहीं मिलेगी। केवल पुलिस का पक्ष सुना जाएगा। अगर प्रथम दृष्टया पुलिस के पक्ष से मजबूत साक्ष्य मिलते हैं तो आरोपी का पक्ष भी नहीं सुना जाएगा। आरोपी सालों साल जेल में कैद रहेगा।

इस कानून का बेजा इस्तेमाल होता है। नागरिकता कानून का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया। उन प्रदर्शनकारियों पर जो शांति के साथ अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। उन्हें आतंकवादी कहकर यूएपीए के तहत मामला दर्ज कर दिया गया। जिसका परिणाम यह निकला कि शांतिपूर्ण तरीके से भारत के संविधान पर हो रहे हमले का विरोध कर रहे इन लोगों को साल भर बिना किसी अपराध के जेल में रहना पड़ा। वह तो भला कहिए कि मामला दिल्ली हाईकोर्ट के दो ऐसे जजों के पास पहुंच गया जिन्होंने इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा और न्याय को तवज्जो दी। नहीं तो मौजूदा हालात में ऐसा है कि लोगों को सही बात रखने के लिए भी गिरफ्तार कर लिया जाता है और सालों साल जेल की यातना सहने के लिए भेज दिया जाता है। भीमा कोरेगांव का मामला भी ठीक ऐसा ही मामला दिखता है।

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में धारा 43 (5) D पर बहुत ही जरूरी टिप्पणी की है। जिसे अगर सुप्रीम कोर्ट अपना ले और कानून में तब्दीली आ जाए तो यह न्याय की तरफ बढ़ता जरूरी कदम कहा जाएगा।

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि धारा 43 (5) D क्रिमिनल जस्टिस के कई आधारभूत सिद्धांतों की अनदेखी करता है। अपराध साबित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी हमेशा अभियोजन पक्ष यानी प्रॉसीक्यूशन की होनी चाहिए। दंडनीय अपराध हमेशा विशिष्ट होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए की आतंकवादी कृत्य के अंतर्गत शांतिपूर्ण विरोध करने के अधिकार को भी शामिल कर लिया जाए। अगर शांतिपूर्ण विरोध है या कोई विरोध है तो उसे उतनी ही मात्रा में पढ़ना चाहिए ना कि उसे आतंकवादी कृत्य में शामिल कर लेना चाहिए। आतंकवादी कृत्य कोई जाल नहीं है कि किसी पर भी फेंक कर उसे आतंकवादी करार दे दिया जाए। चार्जशीट में दायर आरोप तथ्यात्मक तौर पर होने चाहिए। किसी व्यक्ति विशेष से जुड़े होने चाहिए। इस तरह के होने चाहिए जो यह साबित करें कि वह व्यक्ति आतंकवादी कृत्य में शामिल था। विरोध के लिए चक्का जाम करना तो कहीं से भी आतंकवादी कृत्य नहीं हो सकता है। जमानत देने की सुनवाई करते समय अगर पुलिस किसी तरह के अनुमान और कल्पना से किसी निष्कर्ष पर पहुंचती है तो इस आधार पर जमानत देने से नहीं रोका जा सकता है। विरोध करने का अधिकार संवैधानिक अधिकार है। इसलिए फैसला यह है कि यह मामला यूएपीए की धारा 43 (5) ( d) के अंतर्गत नहीं दायर किया जा सकता है।

इस फैसले की यही सबसे कमाल बात है जहां पर आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के नाम से जुड़े कानून यूएपीए और नागरिक अधिकारों के बीच एक शानदार पुल बनाने की कोशिश की गई है। यह शानदार पुल तभी बन पाया, जब एक ईमानदार और सत्य निष्ठा न्यायपालिका ने इस फैसले की सुनवाई की। नहीं तो लोकतांत्रिक और न्याय सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत जाते हुए यूएपीए से जुड़े इस धारा के खिलाफ अभी तक कोई बड़ा फैसला नहीं आया था। अब सारा दारोमदार सुप्रीम कोर्ट पर टिका है कि वह इसे किस दृष्टि से देखता है।

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