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EXCLUSIVE: बनारस में डोम समुदाय के माथे पर चस्पा छुआछूत और भेदभाव का कलंक क्यों नहीं मिटा पाए मोदी!

"अस्पृश्यता की गहरी जड़ें जमाए बैठी वर्ण व्यवस्था अभी टस से मस नहीं हुई है। डोम सरीखे दलित और पिछड़ी जातियों के ज़्यादातर लोग जहां थे, वहीं आज भी हैं।"
डोम समुदाय

उत्तर प्रदेश में 'बनारस के राजा' दुखी हैं। वो राजा, जो छत्रधारी राजा नहीं हैं, लेकिन इस शहर ने उन्हें पदवी दे रखी है- ‘डोम राजा’। मणिकर्णिका घाट पर शवों का अंतिम संस्कार करने वाले दर्जा प्राप्त राजा को इस बात का दर्द है कि आधुनिकीकरण के दौर में संघर्ष करने वाले डोम समुदाय के लोग आज भी जातीय भेदभाव और छुआछूत के शिकार हैं।

दरअसल, मणिकर्णिका घाट के आस-पास रहने वाले महादलितों में डोम समुदाय के लोगों की जिंदगी है ही ऐसी, जिनकी हर सुबह लाशों के साथ शुरू होती है और लाशों के साथ खत्म हो जाती है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था में डोम समुदाय सबसे निचले पायदान पर आने वाले शूद्र वर्ण की एक जाति है। इनका काम शवों का अंतिम संस्कार करवाना होता है। वे सैकड़ों बरस से यही काम कर रहे हैं। कोई न इन जन की बात सुनता है, न मन की।

महाश्मशान मणिकर्णिका पर अर्थियों को आग देने के लिए बैठे माता प्रसाद चौधरी कहते हैं, "हमारा हाल न पूछिए तो बेहतर है। सद्गति प्राप्त करने वालों की मृत्यु और पुनर्जन्म की गुत्थियां हमीं सुलझाते हैं, लेकिन हमारे जीवन की गुत्थी आज तक उलझी हुई है। अस्पृश्यता, छुआछूत, ऊंच-नीच, जातिवाद की गुत्थी। वैज्ञानिक युग में भी प्रबल विश्वास के चलते दुनिया भर के लोग मणिकर्णिका घाट पर शवों का अत्येष्टि करने आते हैं। चिताओं को जालने के लिए हमारे समुदाय के लोग ही आग देते हैं और आंतिम यात्रा के समय होने वाला सारा काम भी करते हैं। इसके बावजूद राजनीतिक हलकों में हमारा कोई रसूख नहीं है।"

सामाजिक स्तर पर भी डोम समुदाय को आज भी अस्पृश्य अथवा अछूत समझा जाता है। दुनिया भर में जातीय भेदभाव की दीवारों पर भले ही आधुनिकीकरण की धूल जम गई हो, लेकिन भेदभाव बरकरार है। यह आम शिकायत है कि इनके बच्चे स्कूल जाते हैं तो उन्हें अलग बैठाया जाता है।

गोदौलिया चौक स्थित एक सेवा सदन में पढ़ने वाले 15 वर्षीय सुमित चौधरी छठी कक्षा के छात्र हैं। इस स्कूल में सुमित समेत डोम समुदाय के तीन बच्चे पढ़ते हैं। सुमित के मुताबिक, "जब हम कक्षा में आगे बैठते हैं तो उच्च वर्ग के एक शिक्षक कहते हैं, तुम लोग डोम हो अलग बैठो, पीछे जाओ।"

पूर्वांचल में डोम समुदाय, दलितों में भी महादलित हैं। अस्पृश्यता का आलम यह है कि इस समुदाय के लोगों का छुआ भोजन न कोई खाता है और न ही उनका दिया कोई पानी पीता है। सामने से सब कुछ आसान लगता है, लेकिन बनारस में डोम समुदाय के लोग सालों से बदहाल जिंदगी जी रहे हैं। इनके घरों में सुबह-शाम भोजन तभी पकता है जब चिताओं की बची हुई लकड़ियां घर आती हैं। एक डोम राजा को चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी ने प्रस्तावक बनाया और मरने के बाद उन्हें पद्मश्री से नवाजा। फिर भी इनके हालात जस के तस हैं।
कपिल चौधरी

मीरघाट के डोम परिवार के सदस्य कपिल चौधरी इन दिनों काफी दुखी हैं। वह कहते हैं, "हम जहां भी जाते हैं, लोग हमसे पीछा छुड़ाने लगते हैं। हमारा छुआ कोई पानी नहीं पीता है। हमारे लिए खाने-पीने के बर्तन तक अलग होते हैं और कई स्तरों पर सामाजिक भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है। हमारा समुदाय आज भी यह उम्मीद नहीं करता है कि वो किसी पुरोहित को पूजा-पाठ का न्योता देने जाएंगे और वो आ जाएंगे। कथा-वाचन तक के लिए वो हमारे घर नहीं आते। हिन्दू धर्म की रीति के चलते कुरीति अथवा भेदभाव एक परंपरा के रूप में फल-फूल रही है।"

आसान नहीं है डोम होना

सामाजिक तौर पर बेहद पिछड़े और अस्पृश्य डोम समुदाय की शैक्षिक स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो सका है। डोम समुदाय के जिन लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा लिया है, उनके पास भी नौकरियां नहीं है।

डोमराजा के घर हीरू चौधरी और उनके एक साथी

63 वर्षीय हीरूलाल चौधरी के चार बच्चे हैं- दो लड़के और दो लड़कियां। बड़े बेटे अनूप चौधरी ग्रेजुएट हैं। कंप्यूटर का कोर्स भी कर रखा है, लेकिन नौकरी नहीं मिल सकी। दूसरे बेटे किशन इंटर पास हैं, लेकिन इनके पास भी कोई काम नहीं है। सदियों से जातिवादी प्रथा की मार झेल रहे इस समुदाय के लोगों के लिए आरक्षण का कोई मतलब नहीं है। हीरू कहते हैं, "हम अपने बच्चों को लाशों की दुनिया में नहीं ले जाना चाहते हैं, जहां दूसरों को छूने भर से लोग खुद को अपवित्र मानने लगते हैं। शवों की दुर्गंध कुछ ऐसी है जो मैं नहीं चाहता कि वे हमेशा के लिए साथ रहे। समय बदल गया है और अब उन्हें स्कूलों में स्वीकार किया जाता है। मुझे आशा है कि वे डॉक्टर बनेंगे या सरकार के लिए काम करेंगे।"

वरिष्ठ पत्रकार पवन मौर्य कहते हैं, "लाश जलाने का काम ऐसा है कि हर कोई झेल नहीं सकता है। आग के तपन से तो शरीर का पानी सूख जाता है। गर्मी के दिनों में पश्त हो जाते हैं। इनके पास पैसे आते हैं, लेकिन सहेज नहीं पाते हैं। बनारस में कोई जहर पी रहा है तो वह है यहां का डोम समुदाय। घाट पर कोई लाश लेकर जाता है तो लोग उनकी खुशामद करते हैं। जब वो घाट छोड़कर जाते हैं तो चार कदम दूर उनसे दूरी बनाने लगता है कि वो डोम है। गर्मी के दिनों में मणिकर्णिका का इलाका तपने लगता है। लोग अपने परिजनों की लाश देकर खुद छाए में बैठ जाते हैं और डोम समुदाय के लोग लाश जलाने मे जुटे रहते हैं। जब से बनारस है, तब से डोम समुदाय लाश जला रहा है। सदियों से चिताएं जल रही हैं।"
मणिकर्णिका घाट पर लकड़ियों का ढेर

"मणिकर्णिका घाट के साथ इतनी किंवदंतियां जुड़ी हैं कि बनारस के ही नही बल्कि बाहर के लोग भी इसी घाट पर अंतिम संस्कार कराना चाहते हैं ताकि उन्हें मोक्ष मिल सके। दरअसल, हिन्दू धर्म का पिंड है मणिकर्णिका। यहीं जीवन और मृत्य के बंधन से छुटकारा मिलाता है। बनारस सदियों से शिक्षा, अर्थ, व्यापार और राजनीति का बड़ा महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। बनारस के लिए 'काले टीके' की तरह हैं डोम। बड़ा सवाल यह है कि दूसरों को मोक्ष देने वालों को आखिर मोक्ष कब मिलेगा? बनारस के लोगों को भी इनकी कोई फिक्र नहीं है। आप खुद को डोम बता दीजिए, फिर रिएक्शन देखिए। लोग भागने लगते हैं। समूची काशी आज भी अस्पृश्यता की जाल में फंसी है।"

पवन यह भी कहते हैं, " समाज के आखिरी पायदान पर खड़े लोग समाज में अहम भूमिका निभाते हैं। डोम सफाई का आखिरी स्टेज है। सड़न और बीमारियों से लोगों को मुक्ति दिलाते हैं। बायो डिजरेबल की भूमिका अदा करते हैं। जैसे गिद्ध खत्म हो गए, वैसे इनकी पीढ़िया खत्म हो रही हैं। लाश जलाने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। इससे आगे वो नहीं जा पा रहे हैं। बनारस का डोम समुदाय आज भी रोजगार करने के लिए तरस रहा है। वो खाने-पीने की चीजें बेचना चाहे तो भी नहीं बेच सकते। भला उनके पास कोई सामान खरीदने क्यों जाएगा। अस्पृश्ता का आलम यह है कि ऊंची जातियों के लोग डोम समुदाय के लोगों को अपनी बस्तियों में रहने तक नहीं देना चाहते।"

कौन है डोम राजा?

बनारस में मणिकर्णिका घाट पर डोम राजा के नाम से मशहूर हुआ करते थे जगदीश चौधरी। साल 2020 में उनकी मौत के बाद इनके इकलौते बेटे ओम चौधरी अब डोम राजा हैं। बनारस में 85 घाट हैं, लेकिन अंतिम संस्कार आमतौर पर मणिकर्णिका, हरिश्चंद्र और राजघाट के समीप होता है। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का जन्मस्थल बनारस ही था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था। माना जाता है इसी वजह से इस घाट का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। मुख्य सड़क से मणिकर्णिका घाट तक की दूरी करीब चार सौ मीटर होगी, लेकिन यहां पहुंचने का रास्ता बेहद संकरा है। मुश्किल से पांच फीट के आस-पास। दाह संस्कार के लिए प्लेटफार्म बनाए गए हैं, लेकिन यहां सब कुछ आपा-धापी में होता है। आसमान के नीचे शव जलते रहते हैं। यहां शवों को भी अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है। कई मर्तबा जितने शव जल रहे होते हैं, उससे ज्यादा दाह संस्कार की कतार में रहते हैं।

डोम समुदाय के राजा जगदीश चौधरी इसी घाट पर अंत्येष्टि (अंतिम संस्कार) का काम करते थे। दूसरा घाट है, हरिशचंद्र घाट। राजा हरिशचंद्र को भारत की पौराणिक कथाओं में हमेशा सच बोलने और धर्म के रास्ते पर चलने वाला राजा बताया जाता है। राजघाट के पास भी शवों का अंतिम संस्कार किया जाता है, जिसका काम सिर्फ डोम जाति के लोग करते हैं।

वाराणसी और श्मशान घाट की जिंदगी पर किताब लिखने वाले डॉ. केके शर्मा के मुताबिक, "प्राचीन काल में मणिकर्णिका बियाबान था। लाशों को जलाने का कारोबार अच्छा था। अब पहले जैसी कमाई नहीं रही। बनारस में सर्वाधिक शवों की अत्येष्टि मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर ही होती है। एक बार जब लाश पूरी तरह से जल जाती है, तो डोम परिवार के छोटे बच्चे लाश के कपड़े या गहने इकट्ठा करते हैं और इसे दुकानों में बेचते हैं। दाह-संस्कार की प्रक्रिया के बाद, हिंदू जले हुए शवों की राख को इस विश्वास के साथ नदी में छोड़ देते हैं कि लाश की आत्मा साफ हो जाएगी।"

बनारस में डोम समुदाय का जीवन सिर्फ लाशों के साथ गुजरता है और लाश अपने आप एक नकारात्मक चीज है। इसके साथ दिनभर रहना आसान नहीं है। इन्हें यह भी तय करना होता है कि लाश का हर हिस्सा अच्छी तरह से जल गया हो। डोम समुदाय के लोग आग के साथ काम करते हैं और लाशों को जलाते समय आग की लपटों से जूझना कोई आसान काम नहीं है। सिर्फ बनारस ही नहीं, पूर्वांचल के चंदौली, गाजीपुर, जौनपुर, मिर्जापुर, सोनभद्र और बलिया आदि जिलों में डोम जातियों के लोग ही शवों का अंतिम संस्कार करते हैं। मणिकर्णिका घाट पर शवों को जलाने का काम करने वाले कमलेश चौधरी कहते हैं, "एक शव को तीन घंटे लगते हैं और उसके बदले हमें मिलते हैं सिर्फ ढाई सौ रुपये। दिनभर में 5-6 शवों का अंतिम संस्कर कर पाते हैं। इस दौरान धुआं और आग की तपिश से बदन झुलस जाता है। सर्दी में कुछ राहत रहती है, लेकिन गर्मियों के दिन में हालत पस्त हो जाती है।

मणिकर्णिका घाट पर लाशों को जलाने का काम कर रहे 26 वर्षीय पिंटू चौधरी के एक भाई की मौत सिर्फ इस वजह से हो गई क्योंकि वह बहुत अधिक शराब पीता था। यहां गांजे का चलन भी आम है। इन्हें लगता है कि बगैर नशा किए ये अपना काम नहीं कर सकते। स्थिर दिमाग के साथ लाशों के साथ हर वक्त रह पाना असंभव है।

पिंटू कहते हैं, "हम राजा के वंशज हैं। हमारे घरों की औरतें सिर्फ घर का काम करती हैं। दाह संस्कार का काम सिर्फ पुरुष करते हैं। महिलाएं इस काम में नहीं आती हैं। अशिक्षा के चलते हमारी जिंदगी में दुश्वारियां ज्यादा हैं और बच्चे भी ज्यादा हैं। लड़कियों को घर का कामकाज सिखाकर उनकी शादी कर दी जाती है। बनारस में छिटपुट तौर पर हर घाट पर डोम समुदाय के लोग रहते हैं और शिफ्ट लगाकर अंतिम संस्कार का काम करते हैं।"

शिक्षा से दूरी होने के कारण यह डोम समाज आज भी प्राचीन मान्यताओं और लिखित कहानियों के आधार पर ही जिंदगी जीने पर मजबूर है। यह समाज भी अपने आप इन्हीं कुरीतियों में जकड़ा हुआ पाता है। इसका एक कारण यह भी है कि, यह समाज आरक्षण का लाभ भी नहीं उठा सका है। यह सब तब है जब वाराणसी, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है।

डोम राजा समुदाय के 30 वर्षीय विवेक चौधरी बताते हैं, "जातीय भेदभाव के कारण ही आज हमें न्याय नहीं मिल पा रहा है। हमारी जमीन दबंगों ने कब्जा रखी है। शिकायत के बावजूद पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। मामा (डोम राजा जगदीश चौधरी) के निधन के बाद लोग हमारी संपत्ति हड़पने में लगे हैं। हमसे घाट छीनने की कोशिश की जा रही है। हम विरोध करते हैं तो पुलिस उल्टा हमें ही धमकी देती है। मुख्यमंत्री तक ने हमारी फरियाद नहीं सुनी।"

वो दूसरों को तारते हैं, उन्हें कौन तारेगा

भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जाति में शामिल डोम समुदाय की आबादी सिर्फ 1,10,353 है। बनारस में इनके समुदाय में एक पदानुक्रमित व्यवस्था है, जहां पहले स्तर पर डोम राजा का कब्जा है और दूसरे स्तर पर डोम या चरनी के उप-समूहों के नेताओं का। तीसरा घटक लाशों को जलाने का काम करता है। ये समूह घाट पर पारी के हिसाब से काम करते हैं। बनारस में डोम समुदाय की आबादी करीब चार हजार है। राजघाट से लेकर अस्सी घाट तक करीब डेढ़ हजार लोग शवों को जलाने से लेकर अत्येष्टि का सामान बेचने का काम करते हैं। डोम ही अग्नि दे रहा है और वही जला रहा है। उनकी आय की गारंटी तो है, लेकिन सीमित है। महंगाई भी पीछा नहीं छोड़ रही है। वो चाहकर भी किसी दूसरे पेशे को नहीं अपना पा रहे हैं।

श्याम चौधरी मोटर साइकिल मैकेनिक बनना चाहते थे, लेकिन डोम होने की वजह से नहीं बन पाए। कोई भी उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए तैयार नहीं था और उन्हें शिक्षा तक पहुंच से भी वंचित कर दिया गया था, जिससे उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि श्मशान घाट पर आजीविका कमाना ही उनका एकमात्र विकल्प है। चिताओं से निकलने वाले धुएं के कारण कई डोम सांस की बीमारियों का शिकार हो जाते हैं।

बनारस के एक श्मशान घाट पर अंत्येष्टि का काम करने वाली यमुना देवी कहती हैं, "एक महिला और एक विधवा के रूप में इस काम को करने के लिए अक्सर मेरा अपमान किया जाता है। लोगों को यह एहसास नहीं है कि श्मशान घाट पर आपका लिंग, जाति या वैवाहिक स्थिति कोई मायने नहीं रखती है। मैं उस विश्वास के साथ जी रही हूं और मृतकों की सेवा करना जारी रखूंगी।"

स्वच्छकार समाज बौद्धिक संस्थान वाराणसी के प्रवक्ता व सामाजिक कार्यकर्ता रामचंद्र त्यागी कहते हैं, "पीएम नरेंद्र मोदी ने जब यह नारा दिया, "सबका साथ और सबका विकास" तो डोम समाज बहुत आशान्वित था। इस समुदाय के लोगों को लगा कि अब उनके दुखों का अंत होने वाला है और जातिवाद, अस्पृश्यता और भेदभाव के कलंक से मुक्ति मिल जाएगी। हमारा समाज भी मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा। मन की बात सुनते-सुनते आठ साल गुजर गए, लेकिन डोम समाज जहां का तहां खड़ा है। डोम समुदाय के लोग दुनिया को तार रहे हैं, लेकिन इन्हें मोदी तार नहीं पाए। वो योगी का इंतजार कर रहे हैं। मोदी ने प्रस्तावक तो बना दिया, लेकिन योगी तो आज तक हमारा दुखड़ा सुनने आए ही नहीं। मोदी ने स्वच्छता अभियान के दौरान फोटो खिंचवाया। स्वच्छकारों के विज्ञापन पर जितना पैसा खर्च किया गया उतना हमारे समुदाय के लोगों पर खर्च किया गया होता तो हम बदहाल नहीं होते। मोदी सरकार ने स्वच्छता के विज्ञापन के नाम पर अरबों रुपये खर्च कर डाले, लेकिन उससे क्या हासिल हुआ? इतने पैसे से डोम, वनवासी, खटीक और नट जैसे स्वच्छकार समाज की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति की जा सकती थी।"

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "राष्ट्रीय फलक पर डोम समुदाय तब चर्चा में आया, जब साल 2014 में नरेंद्र मोदी ने नामांकन करते समय डोम राजा जगदीश चौधरी को अपना प्रस्तावक बनाया। इसके बाद से डोम समाज को लगा था कि उनका भी समाज आगामी कुछ वर्षों में तरक्की का रास्ता पकड़ लेगा। सदियों से चली आ रही उपेक्षा और जाति के जहर से छुटकारा मिल जाएगा। इसे दुर्भाग्य कह सकते हैं कि पीएम मोदी भी डोम समुदाय अस्पृश्यता और जातीय भेदभाव से मुक्ति नहीं दिला पाए।"

वह कहते हैं, "विश्वनाथ कारिडोर के लिए बहाने बनारस के डोम समुदाय के लोगों को पहले उनके पैतृक आवास से वंचित किया गया, फिर उनकी रोजी-रोटी छीनने की कोशिश की गई। ऐसे में बहुत से लोग विस्थापित हो गए। इनका कारोबार भी छिनता चला गया। मणिकर्णिका घाट पर पहले दो सौ डोम परिवारों के करीब डेढ़ हजार लोग रहा करते थे। आज भी इनकी जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं आया है। डोम राजा को प्रस्वाक बनाए जाने से दलितों का उन्हें बंपर वोट मिला। दुनिया जहान को मन की बात सुनाने वाले पीएम नरेंद्र मोदी आखिर डोम समुदाय के मन की बात क्यों नहीं सुन पा रहे हैं। सच यह है कि मोदी सरकार दलितों को सिर्फ सियासी फायदे के लिए यूज करती है। इनकी कौम सिर्फ संघ है और कारपोरेट घराने हैं। दूसरा कोई नहीं है।"

बरकरार है छुआछूत का कलंक

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "देश में आजादी के बाद छुआछूत का मसला ऐसा है जिस पर आज तक कभी बड़ी लड़ाई नहीं हुई। दूसरे गांधी, दूसरे अंबेडकर पैदा नहीं हुए। बातें तो राजनीतिक हल्के में खूब हुई, लेकिन छुआछूत मिटाने पर कम, राजनीतिक हित साधाने पर ज्यादा रहा। ऐसी सोच इसलिए भी थी कि कुछ लोगों का मानना था कि समाज सुधार सत्ता पर काबिज होने के बाद ही हो पाएगा। जबकि ऐसा होता नहीं है। जातीय गोलबंदी हुई जरूर, लेकिन अस्पृश्यता मिटने के लिए नहीं, बल्कि सत्ता हासिल करने के लिए थी। ऐसी ताकतें सत्ता में आईं, लेकिन कुर्सी पाते ही उनके एजेंडे बदल गए। जो मूल समस्या अपनी जगह पर बरकरार रही।"

"बनारस नगरी में ये जो डोम समाज है उसके बिना तो मोक्ष का टिकट ही मिलने वाला नहीं है, लेकिन उनके हाथ का पानी कोई पीने के लिए तैयार नहीं। काशी में ब्राह्मण को भी मोक्ष का रास्ता डोम समाज ही दिखाता है। इन सबके बावजूद बराबरी की कौन कहे, उच्च वर्ग के नजदीक नहीं आ सकता है। इतना अहम किरदार होने के बाद भी उसे न समाजिक बराबरी मिली, न सम्मान मिला। उसकी हद बस अंत्येष्टि घाट तक सीमित रही। कहने को काशी का समाज डोम परंपरा की बखान भले ही करे, और उसे राजा की पदवी से भले ही नवाज दे, लेकिन उसे सामाजिक समरसता की धारा में शामिल नहीं कर सकता है। यह अभिशाप न सिर्फ मौजूद है, बल्कि उसकी जड़ें काफी गहरी हैं।"

पत्रकार प्रदीप कहते हैं, "काशी में साल 1954 में काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजन प्रवेश का आंदोलन चला, जिसका नेतृत्व राजनारायण व और प्रभु नारायण कर रहे थे। करीब एक महीने तक सत्याग्रह चला। लोग इकट्ठा होते थे। विश्वनाथ मंदिर में दलितों का प्रवेश दिलाने के लिए आगे बढ़ते थे। पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लेती थी। आखिरी दिन इसका नेतृत्व राजनारायण ने किया। वो जब विश्वनाथ गली से होते हुए मंदिर की तरफ बढ़े तो उन्हें न सिर्फ पुलिस ने बुरी तरह पीटा और घसीटा, बल्कि पंडों ने भी उन पर हमला किया। उन्हें घसीटते हुए डेढ़सी के पुल के पास लाया गया। यह सवाल यूपी विधानसभा में भी उठा। मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने बाद में कानून बनवाया। आजादी के बाद बनारस में दो बड़ी घटनाएं हुईं। पहली, विश्वनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश के बाद स्वामी करपात्री जी ने इस मंदिर को अपवित्र घोषित कर दिया और मीरघाट पर नया मंदिर बनवाया। दूसरी, तत्कालीन काशी नरेश विभूति नारायण सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर में कभी न जाने का संकल्प ले लिया। धर्म के प्रमुख और राजा दोनों सत्ताएं अस्पृश्यता को बढ़ावा देती रहीं।"

"दुर्भाग्य है कि अब उस तरह का नेतृत्व और नेता नहीं हैं जो इस लड़ाई को आगे बढ़ा सकें। इस सामाजिक बुराई को सामाजिक मुहिम से ही दूर किया जा सकता है। कई स्तरों पर हमारी सामाजिक मनोवृत्ति और सामाजिक सोच में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। तरीके जरूर बदल गए हैं, लेकिन मूल समस्या जस की तस है। आज भी हम वहीं खड़े हैं, जहां सालों पहले थे। बड़े-बुजुर्गों को छोड़िए, डोम समाज के नए पीढ़ी के बच्चे अपने ही मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलते हैं तो अन्य समाज के लोग अपने बच्चों को भगा देते हैं। तमाम बदलाव के बावजूद हिन्दू समाज अस्पृश्यता की जकड़न से बाहर नहीं निकल पाया है। इसके लिए चौतरफा लड़ाई की जरूरत है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि यहां कोई नायक ही मौजूद नहीं है।"

आज भी दबा-कुचला है डोम समाज

वरिष्ठ पत्रकार राजीव सिंह कहते हैं, "डोम जाति, यूपी की सबसे निचली जाति है। बनारस शहर से इतर इनके वजूद को देखें तो गांवों में इनकी स्थिति बद से बदतर है। इस जाति के लोगों को गांव से बाहर रखा जाता है। आमतौर पर ये लोग बांस के समान- टोकरी, पंखा, दउरा आदि बनाते और बेचते हैं। खाना सबसे आखिर में बचा-कुचा मिलता है। पानी का बर्तन या हैंडपंप खुद से चलाकर पी नहीं सकते। घर से खाने-पीने के बर्तन लेकर जाना होता है। यहां तक की सुबह अगर कोई इनकी शक्ल भी देख ले तो इन्हें जातिगत कई गालियां दी जाती हैं। दरअसल, पौराणिक ग्रंथों की दकियानूसी मान्यताओं, शोषित समाज के मान-सम्मान के साथ खिलवाड़ और महिलाओं के आत्मसम्मान की थोपी नैतिकता का रिवाज हिन्दू धर्म के आवरण में छिपा हुआ है।"

"पापाचार, कुरीति, आडंबर और छुआछूत को कुचलने में कामयाबी इसलिए नहीं मिल पा रही है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दलों के लिए मनुवाद ब्रह्मास्त्र की तरह है। आजादी के बाद छुआछूत संबंधी कई कड़े कानून बनाए गए, लेकिन गांव के लोग भी जातीय ऊंच-नीच की घृणा को आज तक त्याग नहीं पाए। सिर्फ राजस्थान ही नहीं यूपी के पूर्वांचल में जाति के आधार पर शोषण और उत्पीड़न का उदाहरण हर जगह देखने को मिल जाता है। समाज में स्पष्ट रूप से ऊंच-नीच की दरार अभी मौजूद है। आज भी जाटव, चमार अथवा दुसाध समझकर अपमानित होने वाले या दुख झेलने वाले कम नहीं हैं। चतुर लोगों ने जाति और वर्ण का भेद जानबूझकर पैदा किया है। इसमें वो लोग सबसे आगे हैं जो सुविधाभोगी हैं। असमानता को स्थापित करने वाले कारक समाज में जब तक मौजूद रहेंगे, तब तक देश में डोम समुदाय को समानता, समता और बंधुत्व स्थापित करने की बात बेमानी साबित होती रहेगी। ''

डोम समुदाय के सामाजिक परिवेश का खाका खींचते हुए राजीव यह भी कहते हैं, "मनुवादी व्यवस्था की दलदल में फंसे लोगों की पथराई आंखें कभी भविष्य का सपना नहीं देख सकतीं। सैकड़ों हजारों सालों से उनके जीवन का ढांचा आज भी वैसा ही है। गांव का वही कोना...दासता की वही जंजीरें...वही अपमान और दया में मिले चंद बासी टुकड़े...बदले में जानवरों की तरह काम और सिर्फ काम। डोम सरीखे दलित और अति पिछड़े समाज के लोग अस्पृश्यता की दहशत और ऊंच-नीच के आतंक से आज भी उतने ही सहमे हुए हैं जितने की मनुस्मृति में रेखांकित किए गए थे। हमारी हजारों सालों की संस्कृति और संस्कार, तमाम लोकतंत्र, आर्थिक-औद्योगिक नीति क्रांति, विज्ञान युग व कंप्यूटर के तिलिस्म के बावजूद मनु की वर्ण व्यवस्था की लकीरों को लांघने की कोई सार्थक योजना नहीं बना पाए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के संविधान में जो प्रावधान है, वे खानापूर्ति से अपने लक्ष्य को पार कर लेते हैं। अस्पृश्यता की गहरी जड़ें जमाए बैठी वर्ण व्यवस्था अभी टस से मस नहीं हुई है। डोम सरीखे दलित और पिछड़ी जातियों के ज्यादतर लोग जहां थे, वहीं आज भी हैं। समता, न्याय, बंधुता की कल्पनाएं सिर्फ संविधान के पन्नों में ही कैद हैं। आजादी का कुछ गिने-चुने नए सामंतों की वस्तु बनकर सिमट गई है।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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