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गुजरात चुनाव : कच्छ का बंजर बन्नी ग्रासलैंड बना उम्मीदों और सपनों का क़ब्रिस्तान

भाजपा ने बन्नी के बंजर इलाक़े के मतदाताओं के लिए विकास, सड़क और पानी की आपूर्ति के अपने वादों को कभी पूरा नहीं किया।
Udai village
पूर्वी बन्नी में उदय गांव  

बन्नी, कच्छ: सड़क के अंत में, जहां से गांवों की 15 किलोमीटर की यात्रा शुरू होती है, वहाँ दरार और रिसने वाली दीवारों वाला एक पंचायत कार्यालय है और वहीं पर  बंद पड़ा एक आयुष्मान भारत सेंटर है।

तो बन्नी 'ग्रासलैंड' में आपका स्वागत है, जो गुजरात के कच्छ के रण में बंजर भूमि का एक विशाल इलाका है और जिसकी लगभग 40,000 आबादी है और लगभग 22 जातीय समूह यहाँ रहते हैं। हर गाँव/बस्ती एक-दूसरे से मीलों दूर है।

यहाँ की लगभग 90 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है और बाकी अनुसूचित जातियां हैं, जिनमें ज्यादातर मारवाड़ समुदाय से हैं। यह इलाका भुज विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में पड़ता है, हालांकि भुज इन दूर-दराज के गांवों से लगभग 100 किमी की दूरी पर  है।

बन्नी जोकि पशुपालकों का इलाका है  वह मृत आशाओं और सपनों का कब्रिस्तान है। पशुपालक अपने मवेशियों और खुद को बचाने के लिए पानी के बदले गोबर का व्यापार करते हैं।

ये मतदाता, ‘डिजिटल इंडिया’ में अभी भी वस्तुओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था पर जीवित हैं। एक-आध महीने में यह इलाका सूख जाएगा और वे फिर से पलायन करने पर मजबूर हो जाएंगे। इसके बाद, फिर वे किसी दयालु किसान की ऐसी भूमि खोजेंगे जो उनके मवेशियों के साथ उन्हे वहाँ बसने दे और उन्हें भैंस के गोबर के बदले में पानी देने पर सहमत हो जाए - जो एक अच्छा उर्वरक है। 

पश्चिमी बन्नी के पिछले हिस्से में चार गाँव हैं जिनमें ज्यादातर जाट मुसलमान रहते हैं। शारदा गांव के मूल निवासी 52 वर्षीय सादिक मलूक, जो भैंस, गोबर और मक्खियों बीच एक चारपाई पर तम्बाकू चबाते हुए कहते हैं कि, "यदि हमारे पशु ज़िंदा रहेंगे तो हम भी ज़िंदा रहेंगे। चूंकि हमारे पास केवल चार महीने का पानी होता है, इसलिए हम बाकी आठ महीनों के लिए पलायन करने पर मजबूर हो जाते हैं।” 

प्रवासन भी आसान नहीं है। “अगर हम अपनी भैंसों को साथ ले जाते हैं तो इसकी कीमत 20,000 रुपये है। चूंकि हमारे पास उस तरह का पैसा नहीं है, इसलिए हम अपनी महिलाओं की नथ बेचते हैं।”

मलूक द्वारा क्षेत्र के पिछड़ेपन का वर्णन समय में पीछे के वक़्त में यात्रा करने जैसा है। "जैसे-जैसे आप किसी गाँव/बस्ती को पार करते हैं, रहने की स्थिति बदतर होती जाती है और यह ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में 50 साल पीछे जाने जैसा है।"

पिछड़ापन उनके समाज का हिस्सा है, जिसमें महिलाओं को दबाकर रखा जाता है और उन्हें घरेलू कामों में लगा दिया जाता है। जब रिपोर्टर उनसे उनकी महिला परिवार के सदस्यों से प्रवास पर बोलने की अनुमति देने का अनुरोध किया तो तो मलूक कहते हैं कि, "हमारी संस्कृति इसकी अनुमति नहीं देती है। उन्हें पुरुषों के साथ बात करने की इज़ाजत नहीं है।” 

मलूक कहते हैं की, “जब तक बहुत जरूरी न हो घर की महिलाएं बाहर नहीं जा सकती हैं, टीवी नहीं देख सकती हैं या फोन का इस्तेमाल नहीं कर सकती हैं या 8वीं कक्षा के बाद भी पढ़ाई नहीं कर सकती हैं। अगर कोई महिला हमारी महिलाओं के साथ बात करना चाहे, तो इजाजत मिल सकती है, लेकिन किसी पुरुष को नहीं।”  

जैसे ही कोई पूर्वी बन्नी की ओर बढ़ता है, पानी की कमी एक प्रतीकात्मक विडंबना बन जाती है। उदय, अंतिम बस्तियों/गांवों में से एक है, जहां अधिकांश निवासी चरवाहे और प्रजनक हैं, जो पानी की तलाश में खानाबदोश जीवन जीते हैं, पंचायत कार्यालय के ठीक बाहर 'हर घर जल योजना' शब्दों वाला एक बोर्ड लगा है। हालाँकि, ग्रामीण अभी भी कुओं का इस्तेमाल करते हैं जो एक साल पहले बोर्ड लगाए जाने के बाद से केवल चार महीने तक चला है। 15 साल पहले बनी सभी पानी की टंकियां सूखी पड़ी हैं।

उदय गांव के बच्चे समझा रहे हैं कि कैसे 'हर घर नल' योजना उनके पंचायत कार्यालय के बाहर बोर्ड तक ही सीमित है। उनके गांव में एक भी नल का कनेक्शन नहीं है।

साल में कम से कम चार महीने के लिए पलायन करने वाले परिवारों और दयनीय स्थिति वाले स्कूलों में निरक्षरता व्याप्त है। मलूक की भूमि के ठीक बाहर प्राथमिक विद्यालय में, तीन कक्षाओं में से केवल एक ही कक्षा थी। अलग-अलग आयु वर्ग के मुश्किल से 10 छात्र और तीन शिक्षक थे। शिक्षकों को अक्सर छात्रों के साथ संवाद करने और उन्हें संभालने में मुश्किल होती है क्योंकि उनमें से कोई भी कच्छ से संबंधित नहीं है या स्थानीय भाषा को अच्छी तरह से नहीं जानता है।

शारदा गांव की प्राथमिक शिक्षिका सविता “कम हाज़िरी के बारे में पूछे जाने पर कई समस्याएं गिनाईं। "माता-पिता अक्सर अपने बच्चों को यह कहते हुए स्कूल नहीं भेजते कि वे अंततः प्रजनक बनेंगे। इसके अलावा, स्कूल गंदा है।” 

उदय जैसे गांवों में स्कूल नहीं होने के कारण, इलाके के लगभग 600 बच्चों के पास स्थानीय मदरसे में दाखिला लेने के अलावा कोई चारा नहीं है।

पूर्वी बन्नी गांवों की 15 किमी की धूल भरी कच्ची सड़क सरकारी उपेक्षा और उदासीनता की कहानी बयान करती हैं। ग्रामीण, मौजूदा विधायक निमाबेन आचार्य को याद करते हैं, जिन्होंने पहले के चुनाव अभियानों में उनके गांवों का दौरा किया था और पक्की सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का वादा किया था। हालांकि, उसके बाद से न तो वह और न ही सरपंच कभी उनसे मिलने आए। 

वास्तव में, आचार्य एकमात्र ऐसे जनप्रतिनिधि थे जिन्होंने इस क्षेत्र का दौरा किया था। अधिकांश चुनाव अभियानों के दौरान, जिला पंचायत के सदस्यों ने भी ग्रामीणों से संपर्क करने की जहमत नहीं उठाई, हालांकि उन्हें उनसे वोट मिलने की उम्मीद रहती है। 

उदय गाँव के अमीन चंगा (40 वर्ष) बताते हैं कि ग्रामीण मतदान क्यों करते हैं और बदलाव की उम्मीद करते हैं। “हम दो कारणों में मतदान करते हैं। पहला, हमें लगता है कि किसी व्यक्ति को वोट देने से, वह अपने वादे पूरे करेगा। दूसरा, अगर हम मतदान नहीं करते हैं, तब भी एक उम्मीदवार जीतेगा क्योंकि भुज के मतदाता केवल भाजपा को वोट देंगे। इसलिए अगर हम वोट नहीं देंगे तो जीतने वाला उम्मीदवार हमारी समस्याओं को हल करने के बारे में सोचेगा भी नहीं.”

बन्नी की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक स्वास्थ्य सेवा का अभाव है। ग्रामीणों के अनुसार, शारदा में आयुष्मान भारत केंद्र दो साल से अधिक समय से इसके निर्माण के बाद से बंद है। पूर्वी बन्नी के ग्रामीणों की भी कुछ ऐसी ही कहानी है।

“जब हम आपातकालीन नंबर 108 सेवा (सेवा) डायल करते हैं, तो कोई एक व्यक्ति आता है लेकिन तब तक अक्सर देर हो जाती है। हम आपात स्थिति में तत्काल चिकित्सा सहायता पाने के लिए भुज जाते हैं, जो लगभग 100 किमी दूर है। फिर भी हम अक्सर सड़कों की खराब स्थिति के कारण समय पर पहुंचने में विफल रहते हैं," अमीन कहते हैं कि वे "उन ग्रामीणों की संख्या को याद भी नहीं कर सकते हैं जो पिछले पांच वर्षों में स्वास्थ्य देखभाल की कमी के कारण प्रभावित हुए हैं"। 

सड़कों की कमी भी स्थानीय लोगों को पूर्वी बन्नी की आखिरी बस्तियों के लिए  रास्ता खोजने में गुमराह करती है। एक लंबी सुनसान सड़क पंचायत कार्यालय की ओर जाती है, जिसे स्पष्ट रूप से विधानसभा चुनावों में मतदान केंद्र के रूप में इस्तेमाल करने के लिए साफ किया गया है। हालाँकि, इसकी रिसती और दरारों वाली दीवारें हैं, फर्श और छत गंदी है और एक कमरे में घास का ढेर लगा हुआ है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चल रहे रण उत्सव में बन्नी क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए याद किया जाता है। हालाँकि, पश्चिमी और पूर्वी बन्नी में जमीनी हकीकत मध्य क्षेत्र की तुलना में पूरी तरह से अलग है, जहाँ ढोरडो जैसे गाँव एक बस्ती से अधिक मिलते जुलते हैं।

ढोरडो (एक गांव जो रण उत्सव के लिए आगंतुकों के रास्ते में आता है) के बाहर एक आयुष्मान भारत जैसा केंद्र पूरी तरह से चालू है।

पश्चिमी बन्नी में आयुष्मान केंद्र जैसा एक सेंटर काम कर रहा है। हालांकि डॉक्टर मौजूद नहीं है, लेकिन दो सहायक मदद के लिए उपलब्ध थे और केंद्र 24X7 खुला रहता है और आस-पास के सभी गांवों के लिए यह सुलभ है। 

हाल ही में पुताई किया गया पंचायत कार्यालय, कार्यालय के ठीक बाहर दो एटीएम, खड़ी कारें, बच्चों के लिए एक पार्क और एक उचित पुलिस स्टेशन एक विपरीत तस्वीर पेश करते हैं।

यह 'क्रांतिकारी' गांव का मॉडल बाहरी लोगों को प्रभावित करने के लिए है। दूसरी ओर, बन्नी के उपेक्षित लोगों की उम्मीदें और सपने हर चुनावी मौसम में दम तोड़ देते हैं।

लेखक दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो बेरोज़गारी, शिक्षा और मानवाधिकारों के मुद्दों पर रिपोर्टिंग करते हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Gujarat Elections: Kutch’s Barren Banni Grassland Graveyard of Hopes, Dreams

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