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दुनिया भर की: पेट्रो ने कोलंबिया में वाम के लिए नया इतिहास रचा

जीत का अंतर भले ही कम हो, जिसकी ओर संकेत तमाम विश्लेषक करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कम अंतर के बावजूद जीत अपने आप में ऐतिहासिक है क्योंकि यह पल एक ऐसे देश में वामपंथी राजनीति के निर्णायक दौर में पहुंचने का है जहां अब तक केवल मध्यमार्गी दक्षिणपंथी ही सत्ता पर काबिज रहे हैं।
Gustavo Petro
कोलंबिया के राष्ट्रपति पद के चुनावों में जीत के बाद गुस्तावो पेट्रो और उनके साथ उपराष्ट्रपति पद के लिए खड़ी हुई फ्रांसिया मार्क्वेज। फोटो साभारः रायटर्स 

जैसी सबको उम्मीद थी, वामपंथी गुस्तावो पेट्रो कोलंबिया के पहले वामपंथी राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए हैं। शनिवार को चुनाव के दूसरे दौर (रन-ऑफ) में उन्होंने व्यवसायी रोडोल्फो हर्नांदेज़ को हराया। हालांकि दोनों के बीच हार-जीत का अंतर केवल 3 फीसदी ही रहा। पेट्रो को 50.4 फीसदी वोट मिले और हर्नांदेज़ को 47.3 फीसदी। जीत का अंतर भले ही कम हो, जिसकी ओर संकेत तमाम विश्लेषक करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कम अंतर के बावजूद जीत अपने आप में ऐतिहासिक है क्योंकि यह पल एक ऐसे देश में वामपंथी राजनीति के निर्णायक दौर में पहुंचने का है जहां अब तक केवल मध्यमार्गी दक्षिणपंथी ही सत्ता पर काबिज रहे हैं।

अब यह कोई हैरत की बात नहीं कि कोलंबिया में वाम की जीत पर पश्चिम के मीडिया व अर्थशास्त्रियों में उसी तरह की आशंकाएं हैं जो आम तौर पर वाम राजनीति को लेकर रही हैं, खास तौर पर अर्थनीति, विदेशी निवेश और जनकल्याण कार्यक्रमों को लेकर। इसीलिए हर वाम सरकार पर इन आशंकाओं को दूर करने का एक अतिरिक्त सा दबाव हो जाता है। यह पेट्रो को भी झेलना पड़ेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

62 साल के पेट्रो बहुत अनुभवी हैं, वह 2010 और 2018 के बाद तीसरी बार राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए खड़े हुए थे और इस बार वह कामयाब रहे। लेकिन पेट्रो का केवल राजनीतिक अनुभव ही कोलंबिया के काम नहीं आएगा, उनके राजनीति में आने से पहले एक गुर्रिल्ला संगठन के सदस्य के तौर पर उनका अनुभव भी बेहद कारगर रहेगा।

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हम पहले दौर के चुनाव के बाद अपने विश्लेषण में इसका जिक्र कर चुके हैं। कोलंबिया के नतीजों की अहमियत बहुत ज्यादा है। लैटिन अमेरिका व मध्य अमेरिका में वाम प्रभाव वाले तमाम देशों की तुलना में कोलंबिया की स्थिति थोड़ी अलग है। उसके संकट भी अलहदा हैं। न केवल दक्षिणपंथी प्रभाव के कारण, बल्कि ड्रग्स के खिलाफ लड़ाई के नाम पर अमेरिका से बेहद नजदीकी की वजह से भी।

जाहिर है कि गुस्तावों को कोलंबिया की राजनीति से अमेरिकी प्रभाव कम करना होगा। निवेश पर असर डाले बिना सबको साथ लेकर चलने वाला बराबरी का समाज बनाना उनका सपना है। पिछले तकरीबन पांच-छह दशकों से कोलंबिया की राजनीति व आम जन-जीवन को दो चीजें सबसे ज्यादा प्रभावित करती रही हैं- वहां ड्रग्स का अवैध कारोबार और गुर्रिल्ला क्रांति। वहां की सेना व पुलिस- दोनों ही इसका अपने लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। ड्रग्स का अवैध कारोबार तो वहां ऐसी दुधारू गाय रही है जिसे हर कोई अपनी जरूरत के हिसाब दुहता रहा है। इन दोनों ही चीजों के बहाने वहां सेना व पुलिस भयानक दमन करते रहे हैं। वहां मानवाधिकारों के दमन के सबसे ज्यादा जिम्मेदार यही लोग रहे हैं। इनके आंकड़ों का विश्लेषण भी हम पिछली बार कर चुके हैं।

अब पेट्रो के राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे ज्यादा तब्दीली सेना व पुलिस के तंत्र में ही आने की संभावना जताई जा रही है, जिसको लेकर इन दोनों में ही खासी खलबली है। पेट्रो इन दोनों तंत्रों की कार्यशैली से खासे नाराज रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वह 1985 में अपनी गिरफ्तारी के बाद 16 माह की हिरासत में दी गई यातनाओं का जिक्र करते हैं। कोलंबिया की सेना पर आरोप रहे हैं कि उसने तमाम सालों में फर्जी मुठभेड़ों में 6000 से ज्यादा निर्दोष लोगों को मारकर तरक्की व इनाम पाने के लिए उन्हें गुर्रिल्ला बता दिया। जब कभी इस तरह के मामले पकड़े भी जाते तो उनकी सुनवाई सैन्य अदालतों में होती, जहां से वे सस्ते में छूट जाते। इसीलिए पेट्रो ने कहा है कि जिन पर भी इस तरह के आरोप हैं उन पर सामान्य अदालतों में सुनवाई होगी ताकि उन्हें उचित सजा मिल सके। पेट्रो ने पुलिस प्रणाली के पुनर्गठन का भी वादा किया है और पुलिस के भीतर बने दंगा स्क्वाड को खत्म करने की बात कही है।

मजेदार बात यह है कि सेना व पुलिस तंत्र को जिम्मेदार व जवाबदेह बनाने की ऐसी तमाम कोशिशों को हर जगह एक सरीखी दलीलों का सामना करना पड़ता है, जिनमें मनोबल पर असर पड़ने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग में अड़ंगा लगने आदि की बातें कही जाती हैं। यहीं पर पेट्रो को अपनी दृढ़ता दिखानी होगी और एक स्पष्ट दिशा देनी होगी।

2016 में फार्क बागियों के साथ हुए शांति समझौते को पूरी तरह से नहीं लागू किए जाने के आरोप पिछली सरकार पर लगते रहे हैं। अब पेट्रो के आने से उस समझौते के कारगर स्वरूप लेने की उम्मीद है। तमाम विश्लेषकों का मानना है कि पेट्रो की जीत ने उस शांति प्रक्रिया को एक तरह से बचा लिया है। खुद पेट्रो ने अपनी जीत के बाद कहा, ‘मेरे जैसे किसी व्यक्ति का राष्ट्रपति बन जाना ही शांति का सबसे बड़ा प्रतीक है।’

पेट्रो के लिए जीत के बाद एक मार्के की बात यह भी हुई कि वहां अब तक सक्रिय एकमात्र गुर्रिल्ला गुट नेशनल लिबरेशन आर्मी (ईएलएन) ने भी पेट्रो से शांति वार्ताओं को लेकर खुला रवैया जाहिर किया है और सामाजिक बराबरी लाने के लिए सुधारों की मांग की है।

कोलंबिया में तकरीबन आधी आबादी गरीबी का शिकार है। वहां अब तक के दक्षिणपंथी शासन ने अमीरों व गरीबों के बीच की खाई को निरंतर बढ़ाया है। पेट्रो ने इस खाई को पाटने के लिए मुफ्त यूनिवर्सिटी शिक्षा, पेंशन सुधार व अनुत्पादक जमीन पर ऊंचा कर लगाने का वादा किया है।

अब यह भी कोई हैरानी की बात नहीं कि इस समय पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेल रही हैं और मौसम के बदलाव से बचने की लड़ाई में भी हर जगह आगे वामपंथी दल या फिर ग्रीन पार्टियां हैं जो वामपंथी दलों के साथ तालमेल में रहती हैं। पर्यावरण पर इसी प्रतिबद्धता को जाहिर करते हुए पेट्रो ने देश में नई तेल परियोजनाओं पर भी रोक लगाने की बात कही है।

कोलंबिया की सत्ता पर अब तक आर्थिक व सामाजिक रूप से कुलीन लोगों का कब्जा रहा है। पहली बार यह बदलेगा। इस लिहाज से वह आबादी के बड़े हिस्से की आवाज बनकर उभरे हैं- आबादी के उस हिस्से की जिसमें ग्रामीण गरीब भी हैं, महिलाएं भी हैं, अफ्रीकी मूल के कोलंबियाई और कोलंबिया के मूल निवासी भी।

इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि पेट्रो के साथ उपराष्ट्रपति के पद के लिए खड़ी हुईं फ्रांसिया मार्क्वेज़ अब कोलंबिया की पहली ब्लैक उपराष्ट्रपति होंगी। महज 40 साल की फ्रांसिया ने भले ही अभी तक कोई राजनीतिक पद न संभाला हो, लेकिन वह कई मायनों में कोलंबिया की आम जनता के संघर्ष को रेंखाकित करती हैं।

पेट्रो को उन तमाम बदलावों को लाने के लिए कई चुनौतियां झेलनी होंगी जिनका वादा उन्होंने प्रचार के दौरान किया था। उन्हें सबको साथ लेकर चलने की अपनी काबिलियत भी दिखानी होगी जिसका पर्याप्त अनुभव उन्हें सक्रिय राजनीति में अब हो चुका है। बाकी दुनिया की निगाह सबसे पहले तो इस पर होगी कि वह सरकार चलने के लिए क्या टीम चुनते हैं, जिससे यह संकेत जा सकता है कि वह सबको साथ लेकर चलने का माद्दा कितना रखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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