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अस्पताल न पहुंचने से ज़्यादा अस्पताल पहुंचकर भारत में मरते हैं लोग!

भारत में हॉस्पिटल में घटिया स्वास्थ्य सुविधा मिलने की वजह से हॉस्पिटल में ना पहुंचने के मुकाबले तकरीबन 2 गुना अधिक मौतें होती हैं।
अस्पताल न पहुंचने से ज़्यादा अस्पताल पहुंचकर भारत में मरते हैं लोग!
Image courtesy: India Today

आर्थिक सर्वे भारत सरकार की एक सरकारी रिपोर्ट है। हर साल रिपोर्ट सेहतमंद अंग्रेजी में जारी होती है और बीमार हिंदी में। भाषा और विचार पूरी तरह से सरकारी होता है। लेकिन आर्थिक सर्वे के आंकड़े और ऑब्जरवेशन पढ़कर भारत की सामाजिक आर्थिक सच्चाई का भी अंदाजा लगता है। इसी लिहाज से आर्थिक सर्वे खंड 1 में भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़ा एक अध्याय है, जिसमें भारत की मौजूदा स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर उकेरने वाले तमाम तरह के आंकड़े और ऑब्जरवेशन हैं। तो चलिए सरकारी भाषा को छोड़कर थोड़े सब पठनीय और आम जुबान के लहजे में उन आंकड़ों और ऑब्जरवेशन से रूबरू होते हैं।

* भारत सरकार का आर्थिक सर्वे कहता है कि इलाज पर किए जाने वाले खर्च के चलते लोगों की कमर टूट जाती है। लोग गरीबी में धंस जाते हैं। भारत में औसतन एक व्यक्ति की जेब से इलाज का 60 फ़ीसदी हिस्सा खर्च होता है। अगर स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत सरकार की तरफ से जीडीपी का 3 फ़ीसदी खर्च किया जाने लगे तो एक व्यक्ति की तरफ से इलाज का 30 फ़ीसदी हिस्सा ही खर्च करना पड़ेगा। यानी लोगों की जेब पर कम भार पड़ेगा। इकोनॉमिक सर्वे की सलाह के बावजूद भी साल 2021-2022 के बजट की हकीकत यह है कि कुल जीडीपी का केवल 0.54 फ़ीसदी बजट के लिए आवंटित किया गया है।

* स्वास्थ्य क्षेत्र में सूचनाओं का असंतुलन है। इसलिए बाजार को नियंत्रित और विनियमित करना बहुत मुश्किल काम है। अपनी विशेषज्ञता की वजह से डॉक्टर किसी भी रोग की ज्यादा जानकारी रखता है। मरीजों के पास कुछ भी जानकारी नहीं होती है। इस तरह से स्वास्थ्य क्षेत्र में डॉक्टर और मरीज के बीच सूचनाओं की एक असंतुलनकारी दुनिया बनती है।

जहां हमेशा डॉक्टर और अस्पताल इस भूमिका में होता है कि मरीज को अपने हिसाब से नचा सकें। यहीं पर स्वास्थ्य क्षेत्र की सबसे कमजोर कड़ी पनपती है।

कई सारे विशेषज्ञ इसे ही स्वास्थ्य क्षेत्र की दुनिया में होने वाले भ्रष्टाचार का कारण मानते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर किसी मरीज को त्वचा की बीमारी है तो वह बाजार से किसी स्किन क्रीम को लाकर आजमा सकता है। अगर वह ठीक तो अच्छी बात, नहीं तो वह दूसरे स्किन क्रीम से आजमाइश करेगा। इस तरह से स्किन क्रीम से जुड़े उत्पादकों के बीच अपने ग्राहकों को लेकर एक तरह की चिंता रहेगी। लेकिन यही चिंता हर्ट सर्जरी का मरीज डॉक्टरों और अस्पतालों में पैदा नहीं कर सकता। क्योंकि मरीज को हार्ट सर्जरी के बारे में कुछ भी पता नहीं है, वह त्वचा की बीमारी की तरह अंदाजा नहीं लगा सकता कि उसके साथ क्या हुआ? ऐसे में मरीज अस्पताल और डॉक्टर की साख पर ही निर्भर रहता है। ठीक यही हाल मानसिक बीमारी से जुड़ी दुनिया में होता है। और ठीक यहीं पर स्वास्थ्य क्षेत्र की सबसे कमजोर कड़ी ऐसा माहौल बना देती है कि जहां डॉक्टर और अस्पताल का ईमान बहक जाता है और भ्रष्टाचार पनपने लगता है।\ 

* स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रोडक्ट यानी उत्पाद के बारे में भी ग्राहकों की जानकारी शून्य होती है। जब उत्पाद के बारे में खरीदने वाले को कुछ भी जानकारी नहीं होती है तो उत्पादक उत्पाद की क्वालिटी बहुत निम्न स्तर पर ले कर चला जाता है। ब्रांडिंग की वजह से उत्पाद बाजार में बिक तो जाता है, लेकिन इसका असर आम लोगों को सहना पड़ता है। 

* स्वास्थ्य क्षेत्र और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के बावजूद भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच के मामले में स्थिति बहुत खराब है। स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच के मामले में लोअर और लोअर मिडिल आमदनी वाले 180 देशों के बीच भारत की 145 वीं रैंकिंग है। नेपाल पाकिस्तान और अफ्रीका के कुछ देश ही भारत से इस मामले में पीछे हैं।

* भारत में अस्पतालों तक पहुंच पाने वाले लोगों की दर केवल तीन से चार फ़ीसदी है। यानी जितने लोगों को अस्पताल में भर्ती होना चाहिए, उनमें से केवल तीन से चार फ़ीसदी लोग ही अस्पतालों तक पहुंच पाते हैं. मध्यम आय वाले देश में यह दर 8 से 9 फ़ीसदी है। और विकसित देशों में यह दर 13 से 17 फ़ीसदी है। यानी भारत में जरूरत के मुताबिक अस्पतालों की संख्या बहुत कम है और लोगों की जेब में पैसा इतना कम है कि वह अस्पतालों में भर्ती होने का खर्चा उठा नहीं पाते।

* भारत में 17 फ़ीसदी लोगों की कुल आमदनी का 10 फ़ीसदी से अधिक और तकरीबन 4 फ़ीसदी लोगों की कुल आमदनी का 25 फ़ीसदी से अधिक का हिस्सा उनके स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों पर खर्च होता है। इस संदर्भ में भारत की स्थिति दूसरे देशों के मुकाबले सबसे बुरी है।

* संसद में जब भी सवाल पूछा जाता है कि स्वास्थ्य की इतनी अनदेखी क्यों की जा रही है तो सरकार सवाल टरका देती है। इसकी वजह यह है कि स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्चे में तकरीबन 66 फ़ीसदी खर्चा राज्यों की तरफ से किया जाता है। और जहां तक स्वास्थ्य को बजट में प्राथमिकता देने की बात है तो पूरी दुनिया 189 देशों के बीच भारत का 179वां स्थान है। यानी राज्य सरकारों द्वारा बजट तो पेश किया जाता है लेकिन स्वास्थ्य पर प्राथमिकता नमक के बराबर भी नहीं दी जाती।

* भारत का कोई भी राज्य में अपनी कुल जीडीपी का 3 फ़ीसदी से अधिक स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च नहीं करता है। साल 2017 के आंकड़ों के मुताबिक भारत के अधिकतर राज्य (तकरीबन 10) अपने कुल जीडीपी से 1 फीसदी से कम स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करते हैं।

* विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर दस हजार की आबादी पर तकरीबन 44 स्वास्थ्य कर्मी (डॉक्टर, नर्स और सब मिलाकर) होने चाहिए। लेकिन भारत में यह आंकड़ा महज 23 स्वास्थ्य कर्मी के आस पास पहुंचता है। भारत के तकरीबन 14 राज्य में हर 10 हजार की आबादी में 23 से भी कम स्वास्थ्य कर्मी है। केवल केरल राज्य में हर 10 हजार की आबादी पर 42 डॉक्टर और 65 स्वास्थ्य कर्मी है। नहीं तो भारत का कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहां पर हर 10 हजार की आबादी में तकरीबन 40 स्वास्थ्य कर्मी हों। अधिकतर राज्य में 10 हजार की आबादी पर 10 से कम डॉक्टर हैं। इस मामले में सबसे बुरी स्थिति झारखंड, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की है।

* भारत के 74% मरीज प्राइवेट अस्पताल की ओपीडी में भर्ती होकर इलाज करवाते हैं। 65% मरीज प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती होकर इलाज करवाते हैं। यह संख्या इतनी बड़ी इसलिए है क्योंकि सरकारी अस्पताल बहुत कम है। सरकारी अस्पतालों में लंबी-लंबी लाइने लगती हैं। इलाज का दिन कई महीने के इंतजार के बाद आता है। दिल्ली का एम्स बनारस का सर सुंदरलाल बहुगुणा अस्पताल इसके गवाह हैं।

* देश के 20 फ़ीसदी डॉक्टर ही सरकारी अस्पताल में है। बाकी सारे डॉक्टर सरकारी अस्पताल से बाहर अपनी दुकान लगाकर बैठे हैं।

* जैसा कि पहले ही बताया था कि स्वास्थ्य क्षेत्र में मरीज और डॉक्टर के बीच सूचनाओं का असंतुलन होता है। और यही वह वजह होती है जिसके कारण मरीज का जमकर शोषण भी होता है। इसीलिए प्राइवेट क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाएं सरकारी क्षेत्र से हर बीमारी के मामले में महंगी है। कैंसर का इलाज प्राइवेट क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र के मुकाबले तीन गुना महंगा है। हृदय रोग का इलाज 6 गुना महंगा है। चोटों का इलाज तकरीबन 5 गुना महंगा है।

* सरकारी अस्पताल में भर्ती हो कर इलाज करवाने पर औसतन ₹6000 का खर्च आता है लेकिन वहीं पर अगर प्राइवेट अस्पताल में भर्ती होकर इलाज करवाया जाए तो औसतन ₹34000 का खर्च आता है। जैसे बुखार में कोई सरकारी अस्पताल में भर्ती हो जाए तो तकरीबन ₹3000 में निपटकर चला आएगा। लेकिन अगर प्राइवेट अस्पताल में बुखार के लिए भर्ती होना पड़ा तो आज तक तकरीबन ₹15000 खर्च हो जाते हैं। टीबी का इलाज अगर सरकारी अस्पताल में ₹5000 में हो जा रहा है, तो प्राइवेट अस्पताल में यह खर्चा 50 हजार से ऊपर जा सकता है। इसी तरह तमाम तरह की बीमारियों में सरकारी अस्पताल और प्राइवेट अस्पताल के खर्च में जमीन आसमान का अंतर है।

* और सबसे जरूरी बात जो स्वास्थ्य क्षेत्र के भ्रष्टाचार की पोल खोलता है वह यह है कि भारत में सबसे अधिक मौतें हॉस्पिटल में न पहुंचने की वजह से नहीं होती। बल्कि हॉस्पिटल में पहुंचकर घटिया स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने की वजह से होती हैं। हॉस्पिटल में न पहुंचने की वजह से होने वाली मौतों के मुकाबले भारत में हॉस्पिटल में पहुंचकर घटिया स्वास्थ्य सुविधा मिलने की वजह से तकरीबन 2 गुना अधिक मौत होती हैं। और इस मामले में भारत अपने पड़ोसी मुल्कों से ज्यादा बुरे हाल में है।

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