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भारतीय मुसलमान चाहते हैं कि यह बातें हर कोई समझे!

मुस्लिम समुदाय अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करने तथा सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अपने बहिष्कार को ख़त्म करने के एक वास्तविक मौक़े का इंतज़ार कर रहा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : The Companion

जब मैंने यह लेख लिखना शुरू किया था, तो हिंदुत्व की ब्रिगेड कितनी जगहों पर मुसलमानों पर निशाना बना हमले कर रही थी, नमाज़ अदा करने वालों को धमकाया जा रहा था और संदिग्ध पुलिस बल शत्रुतापूर्ण तरीके से उन्हे खतरे में डालते हुए उनके घरों में जा रहे थे। लेकिन जैसे ही मैं लेख समाप्त कर रही हूं, खबर आती है कि एक जाने-माने विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम छात्र को उसकी पहचान को लेकर सार्वजनिक रूप से ताना मारा गया जिसके बाद उस प्रोफेसर को विश्वविद्यालय से निलंबित कर दिया गया। पहली घटना ने मुझे अकबर इलाहाबादी की दूरदर्शिता की याद दिलाई तो बाद वाली घटना ने साझा मूल्यों में आई व्यवस्थित गिरावट के बारे में अहमद राही की मार्मिक कविता की याद दिला दी।

इलाहाबादी ने लिखा, 

"रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में

कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में" 

और राही ने कहा था कि, "हमने निराशा में जीवन बिताया/आशा हमारे दिलों में हलचल मचाने लगी/हमने सोचा कि हमारी किस्मत बदल जाएगी/ अफ़सोस, हम धोखा खा गए।"

लेकिन कोई भी कोमल शब्द भारतीय मुसलमानों के दर्द को कम नहीं कर सकता है, क्योंकि मुसलमान तबका देख सकता है कि राजनीतिक जमीनी हकीकत स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक हो गई है। राजनीतिक वर्ग उयांकी पहचान को 'अन्य' के रूप में परिभाषित करता है जिसके उनके  अस्तित्व को लगातार खतरा पैदा हो होता है। वे क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं या क्या कहते हैं, यह हमेशा जांच के घेरे में रहता है। उन्हें अस-सलाम-अलैकुम पर संदेह है। यदि वे सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करते हैं, तो उन्हें परेशान किया जाता है, अपमानजनक सवाल  किए जाते हैं, धमकियां दी जाती है, पीटा जाता है और हिरासत में ले लिया जाता है।

मेरी पत्रकारिता ने मुझे कई मुसलमानों से मिलने मौका दिया, जिन्होंने वर्तमान और भविष्य के अपने दुखों को अपनी सीनों में छिपा रखा है। वे कहते हैं कि विरोध या हमलों के डर से वे खुले तौर पर अपनी असहमति नहीं जता सकते हैं। इसलिए हम जो सुनते और देखते हैं, वह उनके अपमान की एक छोटी सी झलक है। भारत के मुसलमान अपने काम की जगह, शैक्षणिक संस्थानों, या पड़ोस में हमेशा पीड़ित होते हैं और चुप रहते हैं। इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि जेल में बंद मुसलमानों का प्रतिशत, उनकी आबादी के हिस्से से काफी अधिक है। इसका मतलब है कि बहुत से लोग अपनी असहमति व्यक्त करने से हिचकिचाएंगे। बेशक, सामान्य मुसलमान प्रतिरोध करने के मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं। वे अपने इस दुखद भाग्य को सभी धर्मनिरपेक्ष नागरिकों के साथ साझा करते हैं, जोजिनके दिलों एमिन नुकसान और विनाश का भय बना रहता है।

एक आदमी ने मुझसे कहा, "हम खुद ही रोते और विलाप करते हैं, अल्लाह के अलावा हमारी सुनने वाला कोई नहीं है।" मैं, नरसंहार के दौरान उनके खिलाफ की गई क्रूरता से हिले हुए मुसलमानों से भी मिली हूं, जिनकी बेटियों का अपमान किया गया, बेटों पर मुक़दमे लगा कर जेलों में डाल दिया गया, घरों को जला दिया गया, सामान लूट लिया गया और इबादत घरों पर हमला कर नष्ट कर दिया गया था।

नहीं, उन्होंने सरकार विरोधी नारे नहीं लगाए थे। न ही ऐसा ऐसा कुछ किया जो उनके किस्मत के "जरूरी" था। आखिरकार, मुसलमानों ने भारत में रहने का विकल्प चुना, वे 1947 में बने नए देश में नहीं गए थे। उन्होंने हिंदुस्तान को इसलिए नहीं छोड़ा क्योंकि यह उनका देश है, और वे इस पर गर्व महसूस करते हैं, भावनात्मक रूप से इस देश से जुड़े हुए हैं। वे भारत से प्यार करते हैं। जब उनकी वफादारी पर सवाल उठाया जाता है, और उन्हें निशाना बनाने के लिए नए-नए बहाने गढ़े जाते हैं, तो इससे उनकी भावनाओं को ठेस लगती है। उनके सामाजिक और आर्थिक जीवन में लगे गंभीर आघात उन्हें पीढ़ियों तक प्रभावित करेंगे, और पूरे देश को इस प्रवृत्ति को रोकना होगा। मैंने अपनी किताब द इंडियन मुस्लिम्स: ग्राउंड रियलिटीज ऑफ द लार्जेस्ट माइनॉरिटी कम्युनिटी इन इंडिया में भारतीय मुसलमानों की घटती आर्थिक और सामाजिक पूंजी को नोट किया है। तभी मैंने देश की यात्रा की, और मुसलमानों की गहरी दुखद वास्तविकताओं को सुना।

रोज़मर्रा के भेदभाव के अलावा, कई लोगों ने मुझे बताया कि दाढ़ी वाले या शेरवानी पहनने मुस्लिम को लोक सेवकों यानि सरकारी भर्ती में मुश्किल आती है या उनके साथ भेदभाव होता है। सार्वजनिक कार्यालयों में उनकी शिकायतों की कोई सुनवाई नहीं होती है या उनके लिए बनी कल्याणकारी योजनाओं की भी कोई गुंजाइश नहीं होती है।

मैं, मुस्लिम समुदायों में मौजूद कब्र खोदने वालों, कार्यकर्ताओं, व्यापारियों, धार्मिक हस्तियों, छात्रों और माता-पिता, शिक्षकों और दुकानदारों से भी मिली हूं। लगभग सभी दक्षिणपंथी ब्रिगेड से भयभीत हैं जो उनके इलाकों के आसपास मंडराते रहते हैं। कई मुसलमानों ने कहा कि वे पुराने शहरों में निराशाजनक नागरिक सुविधाओं के बावजूद, उन्हे इन इलाकों में रहना पड़ता है क्योंकि ये उन्हे अधिक महफूज़ और सुरक्षित महसूस कराते हैं। वे मुस्लिम आबादी वाले इलाकों और बाजार इलाकों में रहते हैं। लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम परिवारों को जेंट्रीफाइंग चुनौतीपूर्ण लगता है। इस्लाम को मानने वालों के लिए गैर-मुस्लिम इलाकों मीन घर खरीदना या किराए पर लेना कठिन होता जा रहा है।

युवा मुस्लिम, संघ परिवार के विभाजनकारी एजेंडे को जानता है। वे जानते हैं कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में मुसलमानों को आर्थिक, शैक्षणिक और नागरिक जीवन में जिन असमानताओं का सामना करना पड़ता है, उसका विस्तार से वर्णन किया गया है। लेकिन वे यह भी देख सकते हैं कि उनकी तरक्की के लिए महत्वपूर्ण सुधारात्मक कदम कभी नहीं उठाए गए हैं।

सच्चर की खोज के बाद, मुसलमानों की स्थिति में सुधार के लिए भले ही प्रोफेसर अमिताभ कुंडू के नेतृत्व में मूल्यांकन समिति का गठन किया गया था, लेकिन किसी भी सरकार ने उनकी सिफारिशों को लागू नहीं किया। कुंडू समिति की रिपोर्ट मुसलमानों के सामने आने वाली निराशाजनक स्थितियों पर केंद्रित है। उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि उनके निष्कर्षों और सिफारिशों में आरक्षण एक महत्वपूर्ण सिफ़ारिश थी। "अगर हिंदूओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण हो सकता है, तो मुस्लिम समुदायों में उन्हें वंचित क्यों किया जाता है?" 

प्रोफेसर कुंडू ने मुझे यह भी बताया कि कई इलाकों में मुसलमानों के रहने की स्थिति अनुसूचित जातियों से भी बदतर है, यह तथ्य तब के अध्ययनों से स्पष्ट रूप से साबित हुआ है। “हां, कुछ क्षेत्रों में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जातियों और पिछड़े समुदायों से भी बदतर है। उनकी पहुँच चिकित्सा सुविधाओं, स्वच्छता और पानी, और सार्वजनिक सुविधाओं तक भी नहीं है। ये अभाव और निराशाजनक स्थिति उन शहरी इलाकों में और भी बदतर है जहां मुसलमान रहते हैं।”

लेकिन अंतिम सवाल यह है कि, जब चुनाव लड़े जाते हैं तो कैसे राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों को बड़े प्रभावी तरीके से नज़रअंदाज कर देती हैं या उन्हें पीड़ा दे सकती हैं, तो इसके सदस्यों का भाग्य कैसे सुधर सकता है?

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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