क्या नरेंद्र मोदी 'पैनिक डिसऑर्डर' के शिकार हैं?
दो महीने पहले, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पैर छूने की घटना ने देश की राजनीति में कुछ नयापन ला दिया था। उस समय पटना के एक पत्रकार मित्र ने इस मुद्दे पर बात करते हुए कहा था कि जनता दल यूनाइटेड (जेडी-यू) के नेता नीतीश कुमार बहुत अप्रत्याशित हैं। उन्होंने कहा कि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि शायद नीतीश कुमार वास्तव में मोदी के पैरों के नीचे से कार्पेट खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
कुछ दिनों से मोदी को देखते हुए, कोई अनजाने में यह मान लेता है कि पटना के पत्रकार मित्र पूरी तरह से गलत नहीं थे। मोदी, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में अपने सहयोगियों के साथ वास्तव में सहज नहीं हैं। नीतीश कुमार ही नहीं, वे लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के चिराग पासवान को लेकर भी चिंतित नज़र आते हैं, जिनके बिहार से बमुश्किल पांच सांसद हैं। चिराग, बिहार के लोकप्रिय हरिजन नेता दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे हैं। रामविलास पासवान के निर्वाचन क्षेत्र हाजीपुर के कई मतदाता यह कहते सुने गए, 'ऊपर आसमान, नीचे पासवान' यानी हाजीपुर के आसमान के नीचे सिर्फ़ पासवान हैं, कोई और नहीं।
चिराग, जिन्होंने अपने दिवंगत पिता के नाम पर पार्टी का नाम रखा (मूल नाम लोक जनशक्ति पार्टी था), ने खुद को ‘मोदीभक्त हनुमान’ घोषित किया था। हाल ही में, चिराग, जिन्होंने अभी राजनीति में प्रारंभिक शिक्षा पूरी नहीं की है, ने केंद्र सरकार में उच्च प्रशासन में लेटरल एंट्री का विरोध करते हुए भी अपनी भड़ास निकाली थी। प्रधानमंत्री मोदी ने अधिसूचना जारी होने के पांच दिन बाद ही उसे वापस ले लिया था।
संयोग से, विपक्ष के नेता राहुल गांधी सोशल मीडिया पर इस कदम का विरोध करके सबसे पहले इस मुद्दे को देश के सामने लाए थे। नीतीश की जेडी-यू ने भी अधिसूचना पर आपत्ति जताई थी। मोदी के नेतृत्व वाली पिछली दो सरकारों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है। अपनी तीसरी पारी में मोदी शांत और संयमित दिख रहे हैं और एनडीए के सहयोगियों के साथ-साथ विपक्ष के विचारों को समायोजित करने में पहले ही कुछ मिसाल कायम कर चुके हैं, यहां तक कि अपने कुछ गलत फैसलों को वापस भी ले लिया है।
मोदी, हाल ही में एक से अधिक मुद्दों पर रिवर्स गियर में गए हैं। उनकी सरकार ने केंद्रीय बजट में एक नया पूंजीगत लाभ कर नियम (New Capital Gains Tax Rule) लागू किया था, लेकिन विपक्ष के विरोध के कारण उसे इसमें संशोधन करना पड़ा। इसके अलावा, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को प्रसारण सेवाओं (विनियमन) मसौदा विधेयक (Broadcast Services-Regulation) बिल वापस लेना पड़ा, जिसमें “सरकार विरोधी” मीडिया पर लगाम लगाने के कई प्रस्ताव थे।
मोदी सरकार वक्फ बिल पर भी जोर-जबरदस्ती से आगे बढ़ने की कोशिश नहीं कर रही है, लेकिन अब वह इसे संसदीय समिति को भेजने पर सहमत हो गई है। कथित तौर पर इस बिल में वक्फ संपत्तियों में सरकार और गैर-मुस्लिमों के हस्तक्षेप की गुंजाइश है। याद कीजिए कि यह वही सरकार है जिसने तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने वाले बिल को संसदीय समिति को भेजने से इनकार कर दिया था।
पिछले हफ़्ते ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) मामलों से जुड़ी संसदीय समिति की बैठक के दौरान जब कांग्रेस के दो सांसदों ने जाति जनगणना पर चर्चा की मांग की तो जेडीयू के प्रतिनिधि ने उनका समर्थन किया। समिति के अध्यक्ष और मध्य प्रदेश के सतना से बीजेपी सांसद ने इस मांग को ठुकराया नहीं।
मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल ने अभी तीन महीने का समय भी पूरा नहीं किया है। इतने कम समय में कई मुद्दों पर फैसले वापस लेना पूरे केंद्रीय मंत्रालय की ‘पैनिक डिसऑर्डर’ या ‘भयभीत स्थिति’ को दर्शाता है, हालांकि सरकार के सामने कोई गंभीर संकट नहीं है जिससे उसे किसी तरह का भय हो।
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार पूर्ण बहुमत के लिए जरूरी 272 सीटों से 90 सीटें कम रह गई थी, जबकि मोदी के तीसरे कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) किसी एक पार्टी के पूर्ण बहुमत के आंकड़े से केवल 32 सीटें कम है। हालांकि, बीजेपी के पास विपक्षी दल इंडिया ब्लॉक द्वारा प्राप्त कुल सीटों (235) से ज़्यादा (240) सीटें हैं। इसके अलावा, एनडीए ने हाल ही में राज्यसभा में बहुमत हासिल कर लिया है।
इसके बावजूद, मोदी ने विपक्ष के विरोध के चलते एक से अधिक विधेयकों या निर्णयों पर अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। इतना ही नहीं, चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा की चुनावी संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए, केंद्रीय कर्मचारियों के लिए एकीकृत पेंशन योजना की आड़ में पुरानी पेंशन योजना को वापस ले आए हैं। उन्होंने जनवरी 2004 से लागू की गई वाजपेयी सरकार की राष्ट्रीय पेंशन योजना को अलविदा कह दिया है।
यह उल्लेखनीय है कि संसदीय बहुमत के सवाल पर वाजपेयी सरकार को कई संकटों से गुजरना पड़ा था। उन्हें तमिलनाडु की जे जयललिता और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय नेताओं की मांगों को ध्यान में रखना पड़ा था। सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज भाजपा नेता अपने गठबंधन सहयोगियों के विरोध के कारण अपनी पार्टी के एजेंडे के बारे में कभी एक शब्द भी नहीं बोल पाते थे। इसके बावजूद उन दोनों नेताओं के चेहरे पर चिंता की कोई झलक नहीं दिखती थी।
दूसरी ओर, मोदी गठबंधन सरकार चला रहे हैं, जबकि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो चुका है और देश की सबसे बड़ी अदालत में मंदिर-मस्जिद विवाद का निपटारा होने के बाद उसका उद्घाटन भी हो चुका है। दूसरी मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले खंड को हटा दिया। एनडीए के सहयोगियों ने कोई आपत्ति नहीं जताई। तीन तलाक विरोधी कानून, समान नागरिक संहिता को लागू करने जैसा ही है। इसका मतलब यह है कि मोदी ऐसे समय में सहयोगी दलों के समर्थन पर निर्भर गठबंधन सरकार चला रहे हैं, जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा के लगभग सभी मुख्य एजेंडे को लागू कर दिया है।
फिर प्रधानमंत्री क्यों इतने हैरान-परेशान नज़र आ रहे हैं? बैठकों और कार्यक्रमों में उनका भड़काऊ लहजा गायब है। एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्हें गठबंधन सरकार चलाने का अनुभव नहीं है। वाजपेयी और आडवाणी ने सिर्फ़ गठबंधन सरकारें ही नहीं चलाईं, बल्कि उनका राजनीतिक सफर भी गठबंधन की राजनीति से जुड़ा रहा। दोनों नेताओं के पास मुख्यमंत्री बनने का अनुभव नहीं था, जो मोदी के पास है। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के लिए मोदी को ज़रा भी पसीना नहीं बहाना पड़ा, यहां तक कि बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर चुने जाने के लिए भी नहीं। इसके अलावा, बीजेपी के अपने दम पर 300 से ज़्यादा सीटें जीतने के बाद मोदी को लगने लगा था कि पूरा देश ही गुजरात है।
मोदी की बढ़ती बेचैनी का मुख्य कारण अब अलग है। ऐसा लगता है कि वे कांग्रेस नेता राहुल गांधी और इंडिया ब्लॉक से डरे हुए हैं। वे संसद में विपक्ष के नए नेता के तौर पर राहुल गांधी के पहले भाषण से स्पष्ट रूप से परेशान थे, जब उन्होंने भगवान शिव का चित्र उठाकर हिंदुत्व के खिलाफ एक नया नेरेटिव पेश किया था। मोदी, राहुल गांधी द्वारा हिंदुत्व के हथियार का इस्तेमाल करके भाजपा पर किए गए हमले से हैरान दिखे।
2017 में कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के तुरंत बाद राहुल गांधी ने 'नरम हिंदुत्व' का रास्ता अपनाया था। मंदिरों में जाना और सार्वजनिक रूप से प्रार्थना करना उनकी राजनीतिक गतिविधियों का हिस्सा था। राहुल गांधी को ध्यानमग्न नरेंद्र मोदी या अयोध्या के कारसेवकपुरम के साधु-संतों से अलग नहीं किया जा सकता था।
लेकिन राहुल गांधी अब अपनी तीसरी रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। उनकी दूसरी रणनीति थी भारत जोड़ो यात्रा, जिसके ज़रिए कांग्रेस नेता बहुलतावादी और एकजुट भारत के अपने संदेश के ज़रिए बीजेपी के अति-राष्ट्रवाद को कुछ हद तक नियंत्रित करने में सफल रहे हैं। अब वे तथाकथित हिंदू एकता के ज़रिए बनाए गए भगवा ब्रिगेड के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
वाजपेयी-आडवाणी के समय से ही भाजपा सवर्णों की पार्टी के रूप में जानी जाती रही है, जिसने दलितों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ों को अपने साथ जोड़ने की अपनी मंशा कभी गुप्त नहीं रखी। अन्यथा कमल (भाजपा का चुनाव चिन्ह) ब्रिगेड एक के बाद एक राज्यों में सत्ता हासिल नहीं कर पाती। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में योगी आदित्यनाथ पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो लगातार दूसरी बार सत्ता में आए हैं। यह भाजपा ही है जिसके शासनकाल में एक आदिवासी समुदाय का नेता आज देश का राष्ट्रपति और एक पिछड़ा वर्ग का नेता देश का प्रधानमंत्री है।
हालांकि, पिछले 10 सालों में नागरिकों के सामने यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि दलितों, एसटी और ओबीसी के प्रति भाजपा का प्रेम वास्तव में दिखावा है। उद्योग और वाणिज्य के मामले में मोदी सरकार की नीतियां जिस तरह प्रकृति को नष्ट करने में सहायक रही हैं, उससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इस राजनीतिक ताकत को किसी भी तरह से वनवासियों और आदिवासी समुदायों का मित्र नहीं कहा जा सकता है। केंद्र सरकार के लाभार्थियों की सूची से साफ पता चलता है कि मोदी-अमित शाह सरकार कॉरपोरेट जगत की मित्र है।
राहुल गांधी लगातार भाजपा को बेनकाब करने में लगे हुए हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को मोदी के गठबंधन सहयोगियों के साथ जोड़ रही है। दलितों और पिछड़े वर्गों के हितों, जाति जनगणना आदि जैसे मुद्दों पर तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर सभी दल कांग्रेस के साथ हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी के अधिकांश गठबंधन सहयोगी उपरोक्त मुद्दों पर कांग्रेस की मांगों से सहमत हैं।
कांग्रेस या इंडिया ब्लॉक के उसके सहयोगी दल, एनडीए सहयोगियों को तोड़कर मोदी सरकार को गिराने की कतई इच्छा नहीं रखते हैं। लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी इस बात से डरी हुई है कि उनके सहयोगी दल राहुल गांधी के मुद्दों पर अपना जोर देने लगे हैं। भाजपा नेता स्मृति ईरानी ने शायद ऐसी स्थिति को भांपते हुए कहना शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता या उन्हें ‘पप्पू’ कहकर उनका मज़ाक नहीं उड़ाया जा सकता।
ऐसे में मोदी-शाह की जोड़ी अपने पिछले कारनामों या कहें कि गलत कामों के कारण खुद को खतरे में पाती है। वाजपेयी-आडवाणी के दौर में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और प्रमोद महाजन जैसे दिग्गज भाजपा में थे। सहयोगियों में जॉर्ज फर्नांडिस भी थे, जिन्हें भाजपा ने एनडीए का संयोजक बनाया था। किसी भी संकट के समय ये नेता अपने सहयोगियों और विपक्षी नेताओं की बात ध्यान से सुनते थे। मोदी-शाह की भाजपा में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है। राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी तो हैं, लेकिन उन्हें कभी वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार हैं और न ही उन्हें कोई जिम्मेदारी सौंपी गई है।
लेखक, द वॉल के कार्यकारी संपादक और टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व वरिष्ठ संपादक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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