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कोयले की किल्लत का बवाल कहीं प्राइवेट कम्पनियों के लिए रास्ता बनाने से तो नहीं जुड़ा? 

पावर प्लांट में कोयले की किल्लत और देश में कोयले की किल्लत अलग अलग बातें हैं। इसके पीछे की कहानी को समझना ज़रूरी है। 
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भारत के अधिकतर थर्मल पावर प्लांट में केवल 4 दिन का कोयला बचा है। ऊर्जा मंत्रालय के इस बयान का पलटवार करते हुए कोयला मंत्रालय ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है। भारत में प्रचुर मात्रा में कोयला है। विद्युत उत्पादन करने वाले पावर प्लांट को कोई दिक्कत नहीं आने वाली। कोयले की कमी की खबरें पूरी तरह से गलत है।

सरकार के दो मंत्रालयों के ऐसे बयान को सुनकर आप क्या कहेंगे? अगर आप भोले होंगे तो कंफ्यूज हो जाएंगे। लेकिन जो सरकारी कामकाज पर नजर गड़ाए रहते हैं उनका कहना है कि जब सरकार के मंत्रालय इस तरह से एक दूसरे से विपरीत खड़े नजर आते हैं तो इसका मतलब है कि जो सामने दिख रहा है या दिखाए जाने की कोशिश है, वह भ्रम जाल है। हकीकत नहीं है।

सबसे पहले तो यह जान लिजिए कि यह कोई पहला वाकया नहीं है जब थर्मल पावर प्लांट में कोयले की कमी की खबर आ रही है। इससे पहले भी कई बार थर्मल पावर प्लांट में कोयले की कमी की खबरें आ चुकी हैं। साल 2014 में तो ऐसी खबरें आई थी कि कई थर्मल पावर प्लांट में 7 दिन से लेकर 3 दिन तक का कोयले का स्टॉक बचा है। उस समय एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने छानबीन कर पता लगाया था कि ऐसा नहीं है। थर्मल पावर प्लांट में कोयले का जितना स्टॉक होना चाहिए, उससे ज्यादा स्टॉक है। उन्हीं के प्रोग्राम में न्यूज़क्लिक के वरिष्ठ संपादक प्रबीर पुरकायस्थ ने बताया था कि सरकार कोयले का जितना आकलन बता रही है उससे ज्यादा कोयला मौजूद है। इस तरह से हकीकत के आंकड़े सरकार के आंकड़ों से बिल्कुल अलग हालत बयान कर रहे है। 

इसी साल 4 अक्टूबर की बात है कि 16 थर्मल पावर प्लांट में एक भी दिन का कोयले का स्टॉक नहीं बचा। 45 थर्मल पावर प्लांट में मुश्किल से 2 दिन के कोयले का स्टॉक बचा। इन सभी तथ्यों को जब केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह के बयान के साथ जोड़कर पढ़ा जाता है तो केंद्रीय ऊर्जा मंत्री का बयान डरावना नहीं लगता। कोयले की कमी से जुड़े अखबार में छपे हेडिंग उतने डरावने नहीं लगते जितने डरावने दर्शाने के लिए उन्हें लिखा गया है।

मीडिया में कोयले की कमी को लेकर के कोरोना के बाद बिजली की मांग में बढ़ोतरी होना, बारिश की वजह से कोयले का उत्पादन ना हो पाना, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोयले की कीमतों में बढ़ोतरी होना जैसे कारण गिनवाए जा रहे हैं। यह सारे कारण जायज हैं। लेकिन यह सारे कारण डिमांड पक्ष से जुड़े हुए हैं। सप्लाई पक्ष से नहीं। जबकि सवाल यहां पर सप्लाई पक्ष का है। असली सवाल यह है कि क्या भारत में उतने कोयले का उत्पादन हो रहा है या नहीं जितना कोयला थर्मल पावर प्लांट से सभी के लिए बिजली उत्पादन के लिए चाहिए? अगर कोयले का उत्पादन हो रहा है तो क्या वह थर्मल पॉवर प्लांट तक पहुंच पा रहा है या नहीं? 

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'कोयला घोटाले' के नाम से मशहूर कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले के मामले में मुख्य याचिकाकर्ता रहे छत्तीसगढ़ के वकील और एक्टिविस्ट सुदीप श्रीवास्तव जिस तरह से कोयले की कमी की ख़बरों पर अपनी राय रख रहे हैं, वह सच के करीब लगता है। इकनॉमिक टाइम्स पर हुई बातचीत में सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि सरकार के अपने आंकड़े कहते हैं कि अप्रैल से सितंबर 2021 के बीच 315 मिलियन टन कोयले का उत्पादन हुआ। इसी अवधि में साल 2020 में 282 मिलियन टन कोयले का उत्पादन हुआ था। यानी कोयले के उत्पादन में 12 फ़ीसदी की बढ़ोतरी है। साल 2019-20 में जब कोई महामारी नहीं थी कोयले की कमी की कोई खबर नहीं आई थी तब कोयले का उत्पादन 730 मिलियन टन हुआ था। साल 2020 -21 में कोरोना की वजह से कोयले के उत्पादन में मुश्किल से 2 फ़ीसदी की कमी हुई थी। इस साल तकरीबन हम कम से कम 720 मिलियन टन कोयले का उत्पादन करेंगे। तब हम कैसे कह सकते हैं कि देश में कोयले की कमी है? 

सुदीप आगे बताते है कि कोल इंडिया लिमिटेड कोयले को ज्यादातर दो तरीके से बेचता है। ई ऑक्शन यानी नीलामी के जरिए और  फ्यूल सप्लाई एग्रीमेंट के जरिए। फ्यूल सप्लाई एग्रीमेंट के तहत कोयले को एग्रीमेंट में लिखी नियत कीमत के तहत बेचा जाता है। जो पावर प्लांट भारत के तटीय इलाके में मौजूद हैं, वह कोयला सप्लाई एग्रीमेंट के तहत कोयला खरीदना पसंद नहीं करते। इससे उन्हें घाटा होता है। वह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कीमतों को ध्यान में रखकर कोयले की खरीददारी करते हैं। दूसरे देश से आने वाले कोयला भारत के कोयले से ज्यादा किफायती होता है। 500 ग्राम विदेशी कोयला एक यूनिट बिजली पैदा करता है जबकि 700 ग्राम देसी कोयला 1 यूनिट बिजली पैदा करता है। इस हिसाब किताब को लगाने के बाद अपना फायदा देखते हुए तटीय इलाके के पावर प्लांट कोयले की खरीदारी करते हैं।

इस समय आयातित कोयला बहुत महंगा हो चुका है। पिछले साल से 3 गुना अधिक कीमत पर बिक रहा है। यह घटिया इलाके वाले पावर प्लांट के लिए घाटे की स्थिति है। वह सस्ते दरों पर भारत का कोयला चाहते हैं। इसके अलावा भारत के घरों तक बिजली पहुंचाने वाली डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों का पावर जनरेटर कंपनियों के ऊपर तकरीबन 1 लाख 10 हजार करोड़ रुपए से अधिक का बकाया है। यह पैसा पावर जनरेटर कंपनियों को मिल नहीं रहा है और पावर जनरेटर कंपनियां कोल इंडिया लिमिटेड को नहीं दे रही हैं। इस तरह से कोयले का सप्लाई साइड टूट गया है।

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अगर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के किसी थर्मल पावर प्लांट में कोयले की कमी है तो इसे महज 3 घंटे के भीतर पहुंचाया जा सकता है। अगर गुजरात के किसी पावर प्लांट में कोयले की कमी है तो छत्तीसगढ़ ओडिशा से पहुंचाने में अधिक से अधिक 3 दिन लगेंगे। इसलिए ऊर्जा मंत्रालय को यह बताना चाहिए कि किस पावर प्लांट में कोयले की कमी है। अगर नहीं बता रही है तो इसका क्या मतलब है? 

भारत में 3 लाख 86 हजार मेगा वाट बिजली उत्पादन करने की क्षमता है। भारत में किसी भी दिन 2 लाख मेगावाट ( 200 गीगावाट) से अधिक बिजली की जरूरत अब तक नहीं पड़ी है। यह मांग भी साल भर नहीं होती। बल्कि साल भर में कुछ दिनों में ही भारत में बिजली की खपत 2 लाख मेगा वाट के करीब पहुंचती है। रात में बिजली की खपत सबसे अधिक होती है। रात को जोड़ते हुए साल भर के समय के भीतर देखा जाए तो प्रतिदिन बिजली की मांग 1.50 लाख मेगा वाट के आसपास रहती है।

बिजली का उत्पादन सोलर और हाइड्रो पावर प्लांट से भी होता है। थोड़ा बहुत न्यूक्लियर पावर प्लांट से भी उत्पादन होता है। इन सभी को बाहर निकाल कर केवल थर्मल पावर प्लांट से बिजली उत्पादन का हिसाब किताब लगाया जाए तो तकरीबन 1 लाख मेगा वाट के आसपास बैठता है। इतने बिजली उत्पादन के लिए साल भर में 500 मिलियन टन कोयले की उत्पादन की जरूरत होती है। जबकि भारत में तकरीबन 720 मिलियन टन कोयले का उत्पादन होता है। स्टील सीमेंट जैसे कई सेक्टरों में कोयले के इस्तेमाल को अलग भी कर दिया जाए फिर भी थर्मल पावर प्लांट के लिए प्रचुर मात्रा में कोयला रखा जा सकता है। 

इन सबके अलावा यह भी सोचना चाहिए कि सारा जोर कोयले पर ही क्यों दिया जा रहा है। क्योंकि भारत में 129 गीगा वाट बिजली पैदा करने की क्षमता नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों के पास है। सरकार और पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी इस तरफ ध्यान क्यों नहीं देतीं? जल सौर और पवन ऊर्जा से जुड़े इन बिजली उत्पादन के साधनों का आधा भी इस्तेमाल नहीं हो पाता है। सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों को ऊर्जा के स्रोतों के बारे में सोचना चाहिए। अगर इनका आधा भी इस्तेमाल कर लिया गया तो भारत में बिजली उत्पादन का संकट तो मुश्किल से पैदा होगा।

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इसलिए असल बात कोयले की कमी नहीं है बल्कि असल बात कोयले की सप्लाई सेक्टर की खामियां हैं। और इनसे भी एक कदम आगे बढ़कर असल बात यह भी होने कि संभावना है कि सरकार नैरेटिव सेट करना चाहती है कि कोयले की कमी हो गई है। चाहती हो कि कोयला उत्पादन के क्षेत्र को भी प्राइवेट कंपनियों को सौंप दिया जाए। 

यह करने के लिए कंपनियां कोल बियरिंग एरियाज एक्विजीशन एंड डेवलपमेंट एक्ट, 1957 में संशोधन करना होगा। इस कानून के तहत किसी जमीन पर रहने वाले लोगों को मुआवजा देने से पहले ही वहां कोयले का खनन शुरू किया जा सकता है। अभी तक केवल कोल इंडिया जैसी कंपनियों को इस कानून के तहत कोयला खनन का अधिकार है। संशोधन करके ये अधिकार प्राइवेट कंपनियों को भी दिलवाया जा सकता है। 

संशोधन करने के लिए शायद पहले से ही यह नैरेटिव सेट किया जा रहा है कि कोल इंडिया लिमिटेड कोयले का उत्पादन नहीं कर पा रहा है। कोयले की कमी हो जा रही है। प्राइवेट कंपनियां आएंगी तो कोयले का ढंग से उत्पादन होने लगेगा।

बिजली उत्पादन और कोयला जैसे बुनियादी ढांचे सरकार के हाथ में रहने चाहिए या निजी हाथ में? इस सवाल का जवाब देती हुई प्रबीर पुरकायस्थ न्यूज़क्लिक की एक वीडियो में कहते हैं कि प्राइवेट कंपनियों को बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में उतारना तो बिल्कुल उचित नहीं है। अब कोयले को ही ले लीजिए। कोयले के उत्पादन से बिजली जुड़ी हुई है। बिजली के उत्पादन से दुनिया के अधिकतर काम जुड़ जाते हैं। ऐसे काम करने के लिए लंबे समय का सोच कर कदम उठाने की जरूरत होती है। प्राइवेट कंपनियां लंबे समय का नहीं सोचती। वह अपने मुनाफे का इस्तेमाल कोयले का स्टॉक रखने में नहीं करेंगी बल्कि वह अपने मुनाफे का इस्तेमाल फाइनेंशियल मार्केट में पैसा लगाने में करेंगी। ताकि उन्हें और अधिक मुनाफा हो पाए।

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