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नए संसद भवन में सेंगोल और सावरकर की जयंती पर इसका उद्घाटन, जनता के सत्ता का स्त्रोत होने पर सवाल उठाता है

सेंगोल रॉयल्टी यानी राजशाही से जुड़ा हुआ है। भारत जैसे आधुनिक लोकतंत्र में इस तरह के राजचिह्न का प्रतिनिधित्व करना कालभ्रम को दर्शाता है।
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सत्ता के दैवीय अधिकार के प्रतीक सेंगोल को नये संसद भवन में स्थापित करना और बिल्डिंग का उदघाटन वी.डी. सावरकर की जयंती पर करना, जिन्होंने दैवीय अधिकार सिद्धांत का समर्थन किया था, भारत के उस विचार/दृष्टिकोण को नष्ट करने का प्रयास है जो इस विचार में निहित है कि सत्ता और संप्रभुता लोगों के भीतर से प्रवाहित होती है। ऐसा प्रयास लोकतंत्र का हनन है।

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहने के लिए ही सही, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार से भारत की नवगठित केंद्र सरकार को सत्ता के हस्तांतरण पर एक अनूठा सिद्धांत लेकर आए हैं। शाह के अनुसार, स्थानांतरण तब हुआ जब भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड ए.वी.एन.एल.एफ. माउंटबेटन ने 14 अगस्त, 1947 की आधी रात को देश के पहले भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक सेंगोल, या सोने की परत चढ़ा राजदंड सौंपा था। ऐसा स्पष्ट रूप से राजनेता, लेखक, वकील और आज़ादी के सेनानी सी. राजगोपालाचारी की सलाह पर किया गया था। इस सिद्धांत के साथ समस्या यह है कि यह उपलब्ध दर्ज तथ्यों और सबूतों के खिलाफ जाता है।

जाहिरा तौर पर, राजगोपालाचारी ने नेहरू के कहने पर सलाह दी थी, जिसे माउंटबेटन ने सत्ता के हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए भारत में पालन की जाने वाली रस्म का पता लगाने के लिए कहा था। शाह के अनुसार, राजगोपालाचारी ने तब नेहरू का ध्यान तमिलनाडु की सदियों पुरानी परंपरा की ओर दिलाया, जहां देवियां सेंगोल को सम्राट को उनकी प्रजा पर उचित रूप से शासन करने के लिए सौंप देती थी, और नेहरू से बीते युग की उस प्रथा का पालन करने के लिए कहा गया जो राजशाही/रॉयल्टी से जुड़ा हुआ था। 

शाह आज होने वाले उद्घाटन के अवसर पर नए संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सेंगोल की स्थापना की योजना को सही ठहराने का प्रयास कर रहे थे।

जबकि तमिलनाडु के कई मंदिरों के भित्ति चित्रों में देवियों द्वारा सेंगोल को शासक को सौंपने का चित्रण मिलता है, वास्तविक व्यवहार में, ब्राह्मण जाति के शाही पुजारी सेंगोल को रियासतों के शासकों को सौंप देते थे। दूसरे शब्दों में, सेंगोल उस त्यागपूर्ण धारणा से जुड़ा है कि दैवीय  शक्ति सत्ता के स्रोत का निर्माण करते हैं।

नेहरू और राजगोपालाचारी के लेखन से गहराई से परिचित प्रमुख विद्वानों ने शाह द्वारा गढ़ी गई कथा का जोरदार खंडन किया है।

सेंगोल सत्ता के दैवीय अधिकार से कैसे जुड़ा है?

सेंगोल राजशाही/रॉयल्टी से जुड़ा हुआ है। हमारे जैसे आधुनिक लोकतंत्र में इस तरह के राजचिह्न का इस्तेमाल कालभ्रम है। जबकि किसी देवी या पुजारी से राजा द्वारा सेंगोल लेना इस विचार का प्रतिनिधित्व करता है कि राजा ने दैवीय शक्ति से सत्ता चलाने करने के लिए शक्ति और संप्रभुता हासिल की है, जबकि लोकतंत्र का आधुनिक रूप, किसी भी दैवीय व्यवस्था में सत्ता का स्रोत ढूँढने के बजाय, इसे जनता में पाता है, जिसका जनादेश निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधिकार का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण है।

दैवीय अधिकार सिद्धांत पर नेहरू का क्या रुख था?

नेहरू ने 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में लक्ष्य वाला प्रस्ताव पेश किया था। इसमें  अन्य बातों के अलावा, भारत को एक आज़ाद, संप्रभु गणराज्य के रूप में घोषित करने और  भविष्य के शासन के लिए एक संविधान तैयार करने के लिए विधानसभा के दृढ़ और गंभीर संकल्प की घोषणा की थी, जिसमें सभी शक्ति और अधिकार लोगों से हासिल किए जाएंगे।

सेंगोल इस बेकार/परित्यक्त दृष्टिकोण से जुड़ा है कि दैवीय शक्ति, सत्ता के स्रोत का निर्माण करती है। हमारे जैसे आधुनिक लोकतंत्र में इस तरह के राजचिह्न का प्रतिनिधित्व करना कालभ्रम है।

जब असेंबली के कुछ सदस्यों ने नेहरू के इस दावे के प्रति अपनी अस्वीकृति व्यक्त की कि जनमानस सत्ता और संप्रभुता के स्रोत का गठन करते हैं, तो नेहरू ने उन पर आरोप लगया कि वे उस दैवीय शक्ति सिद्धांत को बनाए रखने के लिए कह रहे हैं, जिसने राजाओं और रानियों को लोगों पर अपनी सत्ता और अधिकार थोपने में सक्षम बनाया था, जिसका वे दावा करते कि ये इन्हे देवी/देवताओं से हासिल हुए हैं। "हमने राजाओं के इस दैवीय अधिकार के बारे में बहुत कुछ सुना है," उन्होंने जोर देकर कहा, "हमने पिछले इतिहास में इसके बारे में बहुत कुछ पढ़ा था और हमने सोचा था कि हम इसे अंतिम बार सुन रहे अहीन और अब यह  युगों पहले समाप्त हो गया और धरती में गहराई में दफ़न हो गया है।” नेहरू ने टिप्पणी की, "यदि भारत में या कहीं और कोई व्यक्ति आज इसे उठाता है, तो वह वर्तमान भारत से बिना किसी भी संबंध के ऐसा कर रहा होगा।"

यह हास्यास्पद लगता है कि नेहरू, जिन्होंने दिसंबर 1946 में कहा था कि सत्ता लोगों से होकर गुजरती है, वे 14 अगस्त, 1947 की आधी रात को ब्रिटेन से सत्ता के हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए माउंटबेटन से सेंगोल को स्वीकार करेंगे, जब भारत अपनी स्वतंत्रता हासिल कर रहा था, बेहद बेबुनियादी आरोप है। 

क्या नेहरू के माउंटबेटन से सेंगोल को स्वीकार करने का कोई रिकॉर्डेड सबूत है?

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की 1955 में प्रकाशित पुस्तक थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स में, नेहरू द्वारा 15 अगस्त, 1947 को बनारस में भारत के प्रधानमंत्री के रूप में पद ग्रहण करने के लिए एक राजदंड स्वीकार करने का संदर्भ है। इस  पुस्तक के संपूर्ण प्रासंगिक पैराग्राफ को यहां उद्धृत करना जरूरी है:

“क्या प्रधानमंत्री नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 को बनारस के ब्राह्मणों द्वारा किए गए यज्ञ में नहीं बैठे थे, एक ब्राह्मण के स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री बनने की घटना का जश्न मनाने के लिए और उन्हे राजदंड देने के लिए इन ब्राह्मणों द्वारा और उनके द्वारा लाए गए गंगा के पानी को नहीं पिया था?

उपरोक्त पैरा क्या दर्शाता है? इसे सीधे तौर पर पढ़ने से डॉ. अंबेडकर की आलोचनात्मक टिप्पणी सामने आती है कि बनारस के कुछ ब्राह्मणों ने एक ब्राह्मण नेहरू को राजदंड भेंट करके उनके प्रधानमंत्री बनने का जश्न मनाया था। यह सत्ता के हस्तांतरण के एक दिन बाद किया गया था।

इसी तरह, 15 अगस्त, 1947 को द हिंदू में यह बताया गया है कि संविधान सभा के बाद, 14 अगस्त, 1947 की आधी रात को सत्ता ग्रहण करने की घोषणा की गई और लॉर्ड माउंटबेटन को स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्त किया, नेहरू सेवानिवृत्त हुए। और एक कमरे में संक्षिप्त धार्मिक समारोह आयोजित किया गया था, और एक पुजारी ने नेहरू और उनके मिशन को आशीर्वाद दिया था।

उपरोक्त प्रलेखित साक्ष्य को छोड़कर कि नेहरू को एक पुजारी द्वारा आशीर्वाद दिया गया था और 15 अगस्त, 1947 को बनारस में राजदंड की पेशकश की गई थी, शाह के इस दावे को सही मानने का कोई सबूत नहीं है कि माउंटबेटन ने नेहरू को सत्ता हस्तांतरण को चिन्हित करने के लिए सेंगोल की पेशकश की थी।

नए संसद भवन का उद्घाटन विवादित क्यों साबित हो रहा है?

वास्तव में, सेंगोल की स्वीकृति का हवाला देकर सत्ता के हस्तांतरण का शाह का लेखा-जोखा और कुछ नहीं बल्कि सत्ता के दैवीय अधिकार से जुड़े प्रतीक के इस्तेमाल को वैध बनाने का प्रयास है।

यह बल्कि दुखद है कि भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर, कम से कम 20 विपक्षी राजनीतिक दलों के बहिष्कार के बीच आज प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उद्घाटन किए जा रहे नए संसद भवन में सत्ता के दैवीय अधिकार के अभिन्न प्रतीक को रखा जा रहा है और जिसके लिए भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भवन के उद्घाटन के सम्मान में आमंत्रित नहीं किया गया था।

सावरकर संसद भवन के उद्घाटन से कैसे जुड़े हैं? सत्ता के दैवीय अधिकार पर उनके क्या विचार थे?
यह और भी दर्दनाक है कि 28 मई का दिन उद्घाटन के लिए चुना गया, क्योंकि यह हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता, कार्यकर्ता और लेखक वी.डी. सावरकर का जन्मदिन है, पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने ही सावरकर के दो-राष्ट्र सिद्धांत को अपनाया था और प्रचारित किया था, जिसमें हिंदू और मुसलमानों ने दो अलग-अलग राष्ट्रों का गठन करने का विचार था, फिर सावरकर ने विचित्र बयान दिया था कि जैसे नेपाल के हिंदू राजा को भारत के साम्राज्य का भी राजा होना चाहिए। नेपाली राजा के भारत के शासक होने के पक्ष में सावरकर के इस रुख से उनकी शक्ति के दैवीय अधिकार के सिद्धांत के पालन की बू आ रही थी, जिसे नेहरू और संविधान सभा ने खारिज कर दिया था।

वी.डी. सावरकर, त्रावणकोर के हिंदू साम्राज्य को भारतीय यूनियन में शामिल नहीं होने का समर्थन करके, अपने उन शासकों के रुख का समर्थन कर रहे थे कि राज्य की संप्रभुता उसके लोगों से नहीं बल्कि भगवान पद्मनाव से प्रवाहित होती है।

वासर्ह 1946-47 के दौरान, त्रावणकोर के राजा और उनके दीवान, वकील, प्रशासक और राजनीतिज्ञ सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर नहीं चाहते थे कि त्रावणकोर का हिंदू राज्य भारतीय यूनियन में शामिल हो। उन्होंने यह कहकर दैवीय अधिकार सिद्धांत का आह्वान किया कि त्रावणकोर की संप्रभुता भगवान पद्मनाव से प्रवाहित होती है और 'वह' भारत की संप्रभुता के अधीन नहीं हो सकता है। यहां तक कि त्रावणकोर के शासकों के इस दावे का समर्थन हासिल करने के लिए कि कहा कि उनका राज्य भारत का हिस्सा नहीं होगा, और ब्रिटिश और अमेरिकियों को राज्य के थोरियम भंडार की पेशकश की गई थी। जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका इस मुद्दे पर चुप रहा, सावरकर ने त्रावणकोर के हिंदू साम्राज्य के शासकों का समर्थन किया। ऐसा कर, वह फिर से सत्ता के दैवीय अधिकार का समर्थन कर रहा था।

इसका एक ज्वलंत विवरण लेखक मदन पाटिल द्वारा लिखी मराठी पुस्तक अकाहित सावरकर (2019) (अज्ञात सावरकर) में मिलता है। लोकप्रिय इतिहासकार विक्रम संपत ने सावरकर की अपनी दो-भाग की जीवनी में लिखा है:

“यहां, सावरकर का त्रावणकोर के दीवान सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर को समर्थन, जो हिंदू रियासत की स्वायत्तता और स्वतंत्रता की घोषणा करने की योजना बना रहे थे, नए भारतीय यूनियन की एकीकरण प्रक्रिया के लिए दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक थे।

14 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में ब्रिटेन से भारत को सत्ता का हस्तांतरण, इसके अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद हुआ था कि असेंबली ने भारत पर शासन करने की सत्ता अपने हाथ में ले ली थी।

यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है कि सावरकर, त्रावणकोर के हिंदू राज्य को भारतीय संघ में शामिल नहीं होने का समर्थन करके, अपने शासकों के रुख का समर्थन कर रहे थे कि राज्य की संप्रभुता उसके लोगों से नहीं बल्कि भगवान पद्मनाव से प्रवाहित होती है।

इसलिए सत्ता के दैवीय अधिकार के प्रतीक सेनगोल को नए संसद भवन में स्थापित करना  और त्रावणकोर के शासकों के भारतीय संघ में शामिल न होने का समर्थन करने वाले सावरकर की जयंती पर इसका उद्घाटन करना उस विचार को उलटने का प्रयास किया जा रहा है कि  भारत की जड़ें इस विचार में हैं कि सत्ता और संप्रभुता लोगों से प्रवाहित होती है। इसलिए ऐसा प्रयास करना ही लोकतंत्र का हनन है।

वह वास्तविक कानूनी तरीका क्या था जिसके माध्यम से औपनिवेशिक शासन से भारत को संप्रभुता हस्तांतरित की गई थी?

हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संविधान सभा द्वारा 14 अगस्त, 1947 को ब्रिटेन से भारत को सत्ता हस्तांतरण, सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद हुआ था, और ऐलान किया गया कि सभा ने सत्ता को अपने हाथ में ले लिया है जो भारत पर शासन करेगी। प्रस्ताव का पाठ उद्धृत करने योग्य है:

"[मुझे] वायसराय को सूचित करना चाहिए कि (1) भारत की संविधान सभा ने भारत के शासन के लिए सत्ता संभाली है, और (2) भारत की संविधान सभा ने इस सिफारिश का समर्थन किया है कि लॉर्ड माउंटबेटन 15 अगस्त, 1947 से भारत के गवर्नर जनरल हों, और यह संदेश राष्ट्रपति और पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा लॉर्ड माउंटबेटन को तुरंत दिया जाना चाहिए।

यह स्पष्ट है कि सत्ता का हस्तांतरण संविधान सभा के उस निर्णय के आधार पर किया गया था, न कि माउंटबेटन द्वारा नेहरु को राजगद्दी और शासन के दैवीय अधिकार का प्रतिनिधित्व करने वाले सेंगोल के हस्तांतरण से किया गया था।

सेंगोल को नई संसद में स्थापित कर और सावरकर की जयंती पर इसका उद्घाटन करके, क्या भारत की संवैधानिक विचार/दृष्टि को बरकरार रखा जा रहा है? जाहिर है, भारत की संवैधानिक दृष्टि के तहत संविधान का पालन करके, सत्ता और शासन के दैवीय अधिकार की हमारी अस्वीकृति को ज़ोर से दोहराते हुए, और लोगों में निहित संसदीय लोकतंत्र को सत्ता और  संप्रभुता के स्रोत के रूप में समृद्ध करके ही बरकरार रखा जा सकता है।

सौजन्: द लीफ़लेट 

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