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कोरबा : रोज़गार की मांग को लेकर एक माह से भू-विस्थापितों का धरना जारी

कोरबा जिले में कुसमुंडा क्षेत्र के भू-विस्थापित किसान, रोजगार की मांग को लेकर एसईसीएल के मुख्यालय के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं। मांग न पूरी होने पर उन्होंने दिसंबर में आंदोलन तेज करने की चेतावनी दी है।
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एक तरफ जहां नवंबर की पहली तारीख को आदिवासियों के नाम पर मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना दिवस का रंगारंग महोत्सव चल रहा था और सरकार अपनी उपलब्धियों की नुमाइश में लगी थी, इसी में कोल इंडिया के अंतर्गत आने वाली कंपनी एसईसीएल को पुनर्वास, बसाहट, रोजगार, सामाजिक लाभ और विस्थापन जैसे मुद्दों को कुशलतापूर्वक हल करने के नाम पर प्रथम पुरस्कार दिया जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ कोरबा जिले में कुसमुंडा क्षेत्र के भू-विस्थापित किसान, रोजगार की मांग को लेकर इसी कंपनी के मुख्यालय के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे थे।

छत्तीसगढ़ महोत्सव में मीडिया का पूरा हुजूम उमड़ा था, तो भूख-प्यास से छटपटा रहे धरने पर बैठे युवा बेरोजगारों की तरफ सन्नाटा पसरा था। न कोई मीडिया, न अधिकारी और न कोई राजनेता। राज्य और केंद्र सरकार के इस दोहरे चरित्र का कवरेज करने के लिए कोई मौजूद नहीं था।

हालांकि इससे ठीक एक ही दिन पहले 31 अक्टूबर को जब बेरोजगार युवाओं ने अपनी ताकत दिखाते हुए एसईसीएल के कुसमुंडा खदान के कोल उत्पादन को 12 घंटे तक बाधित कर दिया था, जिसके चलते बताया जाता है कि एसईसीएल को करीब 50 करोड़ का नुकसान हुआ था। तब इन बेरोजगारों का आक्रोश शांत करने पुलिस व जिला प्रशासन का पूरा अमला पहुंच गया था और एक माह में लंबित प्रकरणों के निराकरण का लिखित आश्वासन भी दिया था। तब मीडिया ने अपने आप ही धरना खत्म होने की घोषणा कर दी थी। जबकि करीब एक माह बीतने को है और युवा किसान रोजगार की मांग को लेकर अभी भी अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं।

रोजगार के अलावा  इनकी प्रमुख मांगें  पुनर्वास, मुआवजा, बसाहट और ठेके में 20 फीसदी आरक्षण है।

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40 साल बाद भी पुनर्वास का मसला हल नहीं हुआ

दरअसल साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड एसईसीएल कुसमुंडा परियोजना के लिए अधिग्रहित गांवों के ग्रामीण वर्षों से रोजगार की राह तक रहे हैं। वे कार्यालयों के चक्कर लगा-लगाकर थक चुके हैं। अब उनके सब्र का बांध टूट चुका है। कुसमुंडा खदान के लिए वर्ष 1978 से 2004 तक करीब 12 गांवों के किसानों की जमीन अधिग्रहित की गई है, जिसमें जरहा जेल, बरपाली, दुरपा, खम्हरिया, मनगांव, बरमपुर, दुल्लापुर, जटराज, सोनपुरी, बरकुटा, गेंवरा भैसमा आदि गांव शामिल हैं। अधिग्रहण के वर्षों बाद भी भू-विस्थापितों के पुनर्वास का मसला हल नहीं हुआ है। यहां तक  जरहा जेल   गांव के करीब ढाई सौ परिवारों को बसाहट व मुआवजा तक नहीं मिला है।

 चार चरणों में हुआ भू-अर्जन

आंदोलनरत 36 वर्षीय दामोदर श्याम ने बताया कि वह जरहा जेल गांव के निवासी थे। उनके पूर्वजों के पास सात एकड़ जमीन थी, जिसे कंपनी ने 1964 से 1982-83 तक टुकड़े-टुकड़े में अधिग्रहित कर लिया। पहले 1964 में सेंड लाइन के लिए कुछ जमीन ली गई, जिसका नगद मुआवजा दिया गया था। इसके बाद 1977-78 में कोल वेयरिंग एक्ट यानी सीबीए अधिनियम के तहत भारत सरकार ने भू-अर्जन किया, इसी तरह 1982-83 में मध्य प्रदेश  लैण्ड रेवेन्यू कोड यानी एमपीएलआरसी के तहत शेष जमीन अधिग्रहित कर लिया। फिर 1985 में भी एमपीएलआरसी के तहत पूरा गांव ही अधिग्रहित कर लिया गया, लेकिन किसी भी किसान परिवार के लिए मुआवजा या पुनर्वास की कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। ऐसे 59 लोगों को आज तक न तो मुआवजा मिला न ही रोजगार। इनमें आदिवासी परिवार के लोग भी हैं। यहीं यहां धरने पर बैठे हैं। जबकि इन लोगों को कलेक्टर ने भी नौकरी की पात्रता का पत्र लिख कर दे दिया है।

सभी डिग्रीधारी बेरोज़गार

दामोदर ने बीएससी करने के बाद आईटी आई और पीजीडीसीए तक की पढ़ाई कर ली। परंतु अभी तक फॉर्म भरकर कंपनी में नौकरी पाने का इंतजार ही कर रहे हैं। दामोदर ने बताया, पिता टिकैत राम की उम्र 66 साल है और एक बड़ा भाई लंबोदर श्याम मजदूरी करता है। पिताजी ने बड़ी उम्मीद से हमें पढ़ाया, कि कंपनी में नौकरी लग जाएगी।

36 साल की उम्र पार कर चुके दामोदर कहते हैं कि अब पता नहीं कब नौकरी लगेगी। कंपनी की तरफ से केवल आश्वासन ही मिल रहा हैं। उन्होंने कहा पहले तो कंपनी ने भू-अर्जन करने की बात ही नकार दी थी, लेकिन हमलोगों के पास तहसीलदार, पटवारी और आरआई का लिखा हुआ कागज है, उसे कैसे नकार सकते हैं, इसी कागज को लेकर हम लोग नौकरी के लिए दावा कर रहे हैं।

दामोदर ने चौकाने वाली बात यह बताई कि एसईसीएल की पॉलिसी है कि आप कितने भी पढ़े-लिखे हो, लेकिन आपको कंपनी में मजदूर की ही नौकरी मिलेगी। उन्होंने बताया, हमारे गांव में बालकृष्ण पांडेय हैं, उनकी बेटी दांत की डॉक्टर हैं, परंतु कंपनी में उनकी नौकरी मजदूर के पद पर लगी है। इसी तरह कई इंजीनियर हैं, जिन्हें पुनर्वास नीति के तहत मजदूर की नौकरी करनी पड़ रही है। सरकार के पास नौकरी है नहीं, इसलिए मजबूरन सब पढ़े-लिखे युवा मजदूर ही बन रहे हैं।

कलेक्टर ने भी सभी को नौकरी पाने हक़दार माना

इसी गांव के दीनानाथ कौशिक ने 2000 में नौकरी के लिए कंपनी को आवेदन दिया था। उन्होंने कहा 21 साल हो गए इंतजार करते-करते। परंतु कंपनी कभी ना नहीं करती और नौकरी भी नहीं देती। अब तो उम्र ही पार होने लगी। 1985 में एमपीएलआरसी अधिनियम के तहत उनके परिवार की भी 3 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर ली गई थी। इसी तरह खम्हरिया गांव के 32 वर्षीय रघुलाल यादव भी नौकरी के लिए धरने पर बैठे हैं। लघुलाल ने वर्ष 2008 में नौकरी के लिए आवेदन दिया था। उन्हें भी कलेक्टर ने नौकरी के लिए पात्र माना है। इसके अलावा राधेश्याम कश्यप, प्रभु, रेशम यादव, पुरुषोत्तम, राजेश, मोहनलाल, केशव आदि कई पढ़े-लिखे नौजवान एक माह से रोजगार की आस लिए अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं।

विस्थापित किसानों के समर्थन में छत्तीसगढ़ किसान सभा के सचिव प्रशांत झा, किसान सभा के जिलाध्यक्ष जवाहर सिंह कंवर, जय कौशिक, संजय यादव, कांग्रेस के पार्षद अमरजीत सिंह, शैलेंद्र सिंह, शाहिद कुजूर, अजय प्रसाद, विनय बिंझवार सैकड़ों समर्थकों के साथ धरना स्थल पहुँच कर धरने पर बैठे।

जब आंदोलनरत युवाओं से पूछा गया, कि लिखित रूप में आश्वासन मिलने के बाद धरना खत्म क्यों नहीं कर देते, तो उनका जवाब था- सरकार की बातों पर भरोसा नहीं कर सकते। इसलिए नियुक्ति पत्र मिलने के बाद ही अनिश्चितकालीन धरना खत्म करेंगे। इंतजार करते-करते एक पीढ़ी खत्म हो गई। और कितना इंतजार करें। पहले तो कंपनी जमीन अधिग्रहण के बात से ही इंकार कर रही थी, अब तो कम से कम आश्वासन दे रही है।

लिखित आश्वासन में है कंपनी के महाप्रबंधकों के हस्ताक्षर

अभी हमारे पास कटघेरा एसडीएम नंदजी पांडेय, कुसमुंडा थाना प्रभारी लीलाधर राठौर की मौजूदगी में बिलासपुर से पहुंचे अधिकारियों ने लिखित आश्वासन है, जिसमें लिखित रूप में कुसमुंडा परियोजना से प्रभावित भूविस्थापितों द्वारा जमा समस्त रोजगार नामांकन पत्रों की जांच कर नियमानुसार रोजगार प्रकरण को 30 नवंबर तक पूर्ण कर रोजगार प्रक्रिया आरंभ करने का आश्वस्त किया गया है। इसमें अनुविभागीय अधिकारी कटघोरा, कुसमुंडा थाना प्रभारी के अलावा मुख्य महाप्रबंधक कुसमुंडा वीके जेना, महाप्रबंधक भूराजस्व बिलासपुर एमएम देखकर व महाप्रबंधक श्रमशक्ति एके संतोषी ने हस्ताक्षर हैं। दामोदर ने कहा, अगर निर्धारित तिथि तक अनिर्णय की स्थिति बनी रहती है, तो एक दिसंबर के बाद आंदोलन और तेज करने की चेतावनी दे दी गई है।

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सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का सम्मान नहीं करती सरकार

छत्तीसगढ़ बार कौंसिल के पूर्व अध्यक्ष एडवोकेट प्रभाकर सिंह चंदेल बताते हैं कि जिनकी जमीन सरकार अधिग्रहित करती है, उन्हें रोजगार पाने की पात्रता है। यह सरकार की जवाबदारी है कि उसे रोजी-रोटी देकर, व्यवसाय देकर पुनर्वास करें , जिससे किसी भी तरह उन्हें यह न लगे, कि वे विस्थापित है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने वनवासी सेवा आश्रम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मुकदमे के फैसले में स्पष्ट रूप से कहा है कि विस्थापितों को ऐसा जीवन प्रदान करना है, कि जिससे उनको लगे कि उन्होंने अपनी जमीन नहीं खोया है। लेकिन सरकार गरीबों को जमीन पर लाकर खड़े कर देती है। वे इतने गरीब है कि कोर्ट नहीं जा सकते। उनके पास इतने पैसे भी नहीं है। इसके अलावा सालों-साल अदालतों में मामले लंबित रह जाते हैं। गरीबों के पास संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। जबकि उच्चतम न्यायालय के फैसले में बहुत विस्तार से लिखा है कि विस्थापितों को सरकार नौकरी दे, अगर वह नौकरी लायक नहीं है, तो प्रशिक्षण देकर नौकरी दे। इसके बाद भी अगर नौकरी करने योग्य नहीं बन पाए, तो व्यवसाय खड़ा करने में उनकी मदद करें, इसके लिए उन्हें प्रषिक्षण दे। ताकि विस्थापितों का पुनर्वसन हो सके। परंतु सरकार उस फैसले का एक पार्ट भी लागू नहीं करती।

गौरतलब है कि दीपावली के दिन भी भू-विस्थापितों ने कुसमुंडा एसईसीएल मुख्यालय के द्वार पर दीप जलाकर असमानता,-शोषण के खिलाफ लड़ाई तेज करने का संकल्प लिया था।

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