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लखनऊ का कश्मीरी मोहल्ला: जहां ग़ुलामी और परदे के दौर में भी रौशन थी शिक्षा की मशाल

कश्मीरी मोहल्ला स्कूल बाद में म्युनिसिपल गर्ल्स इंटर कालेज के नाम से मशहूर हुआ। मगर आज ये स्कूल गुमनाम होता जा रहा है। 
First science batch

कश्मीरी मोहल्ला स्कूल का पहला साइंस बैच।

जिस ज़माने में मुल्क ग़ुलाम था, पर्दा सख़्त और लड़कियों के लिए शिक्षा एक ख़्वाब हुआ करती थी, उस दौर में लड़कियों को तालीम दिलाने का जुनून रखने वाले जो कुछ कर गए उसने इतिहास रचा। पुराने लखनऊ का कश्मीरी मोहल्ला स्कूल अपनी तामीर के साथ एक ऐसी ही दास्तान समेटे है। देश की आज़ादी से चार दशक पहले खुले इस स्कूल ने लड़कियों की शिक्षा के जिन साधनो को जुटाया और इसके लिए जो जतन किये, उसका नतीजा है कि देश ही नहीं दुनिया में भी आज यहाँ से पढ़ कर निकली लड़कियों ने नाम रोशन किया है। जद्दोजहद से मिली इसी शिक्षा की बदौलत इन लोगों ने आने वाली नस्लों के लिए आगे का रास्ता आसान किया।

कश्मीरी मोहल्ला स्कूल बाद में म्युनिसिपल गर्ल्स इंटर कालेज के नाम से मशहूर हुआ। मगर आज ये स्कूल गुमनाम होता जा रहा है। खस्ता ईमारत और लचर प्रबंध के चलते इस स्कूल में आने वाली बच्चियों की संख्या हर दिन घटती ही जा रही है। पैसे की कमी और रखरखाव की लापरवाही का परिणाम है कि जिस स्कूल ने अपनी तामीर के बाद बेशुमार सफलताएं बटोरीं और कामयाबी का परचम लहराया, आज यहां पढ़ने वाली चंद बच्चियां सिर्फ इस मजबूरी में दाखिला ले लेती हैं क्योंकि इनके पास बाक़ी स्कूलों की फीस या नखरे उठाने की हैसियत नहीं। 

स्कूल की बदहाली का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि आज से तक़रीनबन 55 बरस पहले यहां 1133 लड़किया शिक्षा प्राप्त कर रही थीं, जबकि इस समय इनकी संख्या इसके आधे से कुछ ज़्यादा है। कुछ साल पहले तक जिस स्कूल की फ़िज़िक्स केमेस्ट्री और बायलॉजी की लेबोरेट्री शहर की सबसे बेहतरीन लैब का दर्जा रखती थीं, आज उनमें ताले पड़े हैं और इमारत का ये हिस्सा किसी भी समय ढह जाने की हालत में है। स्कूल के पास इस समय कोई भी पुराना रिकॉर्ड,अवार्ड या लाइब्रेरी तक नहीं बची है। प्राइमरी सेक्शन से स्कूल सम्बन्धी थोड़ी बहुत जानकारी मिली मगर इंटर सेक्शन से इस सम्बन्ध में कोई सहयोग नहीं मिल सका। एक नायब विरासत की अहमियत रखने वाला म्युनिसिपल गर्ल्स इंटर कालेज आज भी इन सहमी हुई छात्रों और किनाराकशी करते स्टाफ को बहुत कुछ दे सकता है, अगर इसपर सरकार की निगाहें करम हो जाए।

वीमेन एजुकेशन और एम्पॉवरमेंट की रहनुमा एनी बेसेंट 20 वीं सदी की शुरुआत में हिंदुस्तान आईं। यह आयरिश लेडी थियोसोफिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया से जुड़ीं। अपने इस मिशन के दौरान उनकी मुलाक़ात पंडित सूरज नारायण बहादुर से हुई। जज पंडित सूरज नारायण बहादुर का सम्बन्ध कश्मीर से लखनऊ आकर बसने वाले उन परिवारों से था जो नवाब आसिफुद्दौला के समय में लखनऊ आ गए थे। उस समय कश्मीर से सैकड़ों हिन्दू और मुसलमान परिवार लखनऊ आकर आबाद हुए। इनके नाम पर पुराने लखनऊ में पूरा एक मोहल्ला आज भी कश्मीरी मोहल्ले के नाम से जाना जाता है और आज भी इनकी छोटी छोटी कोठियां या हवेलियां यहाँ मौजूद हैं।

डॉ. एनी बेसेंट ने पं. सूरज नारायण बहादुर से मिशनरी जज़्बे के तहत कश्मीरी लड़कियों की तालीम पर चर्चा की। इन बच्चियों की रस्मी तालीम के लिए उन्होंने सूरज नारायण बहादुर से एक स्कूल खोले जाने की बात कही। पंडित जी को उनका ये मशविरा पसंद आया और इसके नतीजे में साल 1900 में कम्युनिटी की लड़कियों की रस्मी तालीम की शुरुआत के लिए अपनी ही हवेली में एक मुक़ामी प्राइमरी स्कूल शुरू करने का फैसला किया।

हवेली में स्कूल की शुरुआत किये जाने की जानकारी ikashmir.net पर डॉक्टर बैकुंठ नाथ शर्ग़ा  के ब्लॉग से मिलती है। 1938 में पैदा हुए डॉ शर्ग़ा ने 1967 में लखनऊ यूनिवर्सिटी से केमेस्ट्री में पीएचडी की और 1973-76 तक लखनऊ यूनिवर्सिटी एसोसिएटेड कॉलेज टीचर एसोसिएशन (LUACTA) के जनरल सेक्रेट्री रहे हैं। साथ ये थियेटर की दुनिया का भी जाना माना नाम बने। अपने ब्लॉग में डॉक्टर शर्ग़ा लिखते हैं कि हवेली में स्कूल की शुरुआत पर पंडित सूरज नारायण बहादुर को अपनी ही बिरादरी के लोगों की मुख़ालिफत का सामना करना पड़ा। ये वो दौर था जब लड़कियों के लिए परदे और पाबंदियों का दायरा बहुत सख़्त हुआ करता था। शादी से पहले उन्हें मज़हबी जानकारी के अलावा ख़त लिखने भर की पढ़ाई के साथ कुछ हिसाब किताब सिखा दिया जाता था, जो घरदारी में काम आ सके।

कम्युनिटी की लड़कियों को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करने की खातिर अब पंडित सूरज नारायण ने इसकी शुरुआत अपने परिवार से की। सबसे पहले उन्होंने अपनी बहुओं को इस स्कूल में दाख़िल कराया। ये तरीका कारगर रहा और देखते ही देखते आस पास की कुछ और बच्चियों को उनके घरवालों ने स्कूल में प्रवेश दिलाया। इसमें कश्मीरी बिरादरी के अलावा कुछ लोकल बच्चियों के अभिभावक भी सामने आये और स्कूल में बच्चियों की तादाद बढ़ने लगी।

स्कूल से छपने वाली वार्षिक पत्रिका ‘सुभाषिनी’ के पुराने अंकों की पड़ताल से मिली जानकारी के मुताबिक़ सन 1904 में डॉक्टर एनी बेसेंट की सलाह पर जज सूरज नारायण बहादुर ने कुछ और कश्मीरियों से मशवरा करने के बाद एक प्राइमरी वर्नाक्यूलर स्कूल की नींव डाली। जिसमें उनकी बेटियों के अलावा पास पड़ोस की बच्चियां भी तालीम हासिल करने आ सकें। पत्रिका सुभाषिनी के मुताबिक़ इस स्कूल की शुरआत 15 लड़कियों के दाखिले के साथ हुई, मगर इसके लिए पंडित सूरज नारायण बहादुर को तमाम दुशवारियों का सामना करना पड़ा। रिहाइशी लोगों की दलील थी कि अगर उनकी बेटियां स्कूल जाएंगी तो उनसे शादी कौन करेगा?

पंडित जी ने सभी प्रतिरोधों के बाद भी इस स्कूल को जारी रखा और वर्ष 1905 में मिस बिर्केट को स्कूल में 25/- प्रतिमाह की तनख्वाह पर यहां बच्चियों को अंग्रेजी सिखाने के लिए रखा गया।अक्टूबर 1905 तक इस स्कूल में छात्रों की संख्या 39 हो गई थी। इस समय मिडिल सेक्शन शुरू किया गया। इसी समय मिस रे ने बतौर इन चार्ज यहाँ की ज़िम्मेदारी संभाली।

साल 1908 तक ये स्कूल इतना लोकप्रिय हो गया था कि फाउंडर ने इसे लखनऊ नगर पालिका को सौंप दिया। साल 1910 में एजुकेशन कमिटी ऑफ़ म्युनिसिपल बोर्ड ने एक रेज़्युलेशन के तहत जिन चंद मांगो को सामने रखा वह इस प्रकार थीं-

"कि कश्मीरी मोहल्ला वर्नाक्युलर मिडिल गर्ल्स स्कूल को बेहतर तनख़्वाह और एक बड़ा स्टाफ देकर सुधार के साथ इसे एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल गर्ल्स स्कूल बनाया जाए।''

''स्कूल की इमारत बनाने के लिए ज़मीन का एक महफूज़ प्लॉट हो जिसकी ख़रीदारी के लिए डायरेक्टर पब्लिक इंस्ट्रक्शन से ग्रांट तलब की जाए।

कश्मीरी मोहल्ला स्कूल की एक पुरानी तस्वीर।
 
मात्र सात वर्षों में ये स्कूल सफलता की ऊंचाइयां छू रहा था। स्कूल के इतिहास में 23 दिसंबर 1911 यादगार बनी। इस दिन बड़े बड़े मैदानों और बरामदों के साथ आठ बड़े कमरों वाले इस स्कूल को लेडी पोर्टर ने खोला। जल्दी ही यहां पढ़ने वाली बच्चियों की संख्या बढ़ कर 90 हो चुकी थी और इन्हें पढ़ाने के लिए एक हेड मिस्ट्रेस के साथ 6 टीचर्स का स्टाफ मौजूद था। अब इस स्कूल के पास एजुकेशन डिपार्टमेंट की तरफ से मिडिल स्कूल की मान्यता थी। अमरीका से ट्रेंड प्रिंसिपल मिसेज़ नेफ़ को फ़रवरी 1915 में सरकार की तरफ से इस स्कूल में नियुक्त किया गया साथ ही 5000 रुपयों की ग्रांट भी दी गई। लड़कियों के लिए इंडोर और आउटडोर एक्टिविटीज़ का प्रबंध भी किया गया।
 
स्कूल हर दिन सफलता की नई सीढ़ियां चढ़ रहा था। वर्ष 1923 में स्कूल में गर्ल गाइड मूवमेंट शुरू हुआ और स्कूली लड़कियों ने म्युनिसिपल एजुकेशनल एक्ज़ीबीशन के तहत "पर्दा डे कॉम्प्टीशन" में हिस्सा लेकर 16 मेरिट प्राइस जीते।
 
वर्ष 1924 में मिस रोज़लाइन एंगेल्स ने बतौर प्रिंसिपल इस स्कूल की ज़िम्मेदारी संभाली। अगले वर्ष 1925 में यहाँ नवीं क्लास की शुरुआत हुई मगर किन्ही कारणों से 1927 में इसे बंद करना पड़ा।
 
स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के रिटायर्ड ऑफीसर राजीव प्रसाद 1915 में लिखे अपने ब्लॉग में इस स्कूल के इतिहास पर रौशनी डालते हैं। ब्लॉग के अनुसार 1930 से 1967 तक स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज़ द्रौपदी बाई दास गुप्ता रहीं। मिसेज़ गुप्ता राजीव प्रसाद की नानी थीं। वर्ष 1929 में इन्होंने मैथ्स टीचर के रूप में यहां का चार्ज संभाला था। स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज़ रोज़लाइन एंगेल्स को 1930 में स्कूल छोड़ना पड़ा और ये ज़िम्मेदारी मिसेज़ गुप्ता को मिली। मिसेज़ गुप्ता इस ओहदे पर पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उस वक़्त स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद 149 थी।

ब्लॉग में अपनी नानी और प्रिंसिपल मिसेज़ गुप्ता का ज़िक्र करते हुए राजीव प्रसाद लिखते हैं कि- 'कुछ ब्रिटिश और भारतीय सिविल सर्वेंट एक प्रोग्राम में मेरी नानी से मिले, यहाँ पर नानी अपने मेज़बान से तालीमी मुद्दों पर बात कर रही थीं। उस वक़्त मौजूदा प्रिंसिपल मिस एंगेल्स स्कूल को छोड़ना चाहती थीं। इन ब्रिटिश सर्वेंट ने नानी से इस इंस्टीट्यूट में शामिल होने और लड़कियों की एजुकेशन के लिए खुद को समर्पित करने की पेशकश की।"

ब्लॉग उस समय के हालात पर भी रौशनी डालता है। जिससे पता चलता है कि सन 1931 तक लड़कियों के स्कूल आने का ज़रिया हाथ से खींचा जाने वाल ठेला था, उन दिनों की एक दिलचस्प बात ये थी कि मिसेज़ गुप्ता ने ख़ास तौर से डिज़ाइन किए गए इन हाथ से चलने वाले ठेलों को बनवाया था। मिसेज़ गुप्ता की नवासी डॉक्टर राका अपनी यादों के हवाले से उस दौर का ज़िक्र करती हैं कि किस तरह नानी उसूलों की पाबन्दी के साथ अनुशासन के मामले में भी बड़ी ही सख़्ती का रवैया रखती थीं। छात्रों की पढ़ाई जारी रहे इसके लिए मिसेज़ गुप्ता पहले इस पर्दा तने ठेले से लड़कियों को स्कूल लेने जाती थी और स्कूल बंद होने पर अपनी निगरानी में उन्हें घर तक पहुँचाने की भी ड्यूटी निभाती थीं।

इसी वर्ष मिसेज़ गुप्ता ने नगरपालिका बोर्ड से दो स्कूल बसें किराए पर दिए जाने पर जोर दिया, जो लड़कियों को स्कूल लाने और वापस ले जाने की सहूलियत दे सके। आखिरकार 11 मार्च 1932 को स्कूल ने अपनी बस खरीदी। इसी वर्ष स्कूल में स्पोर्ट्स और कल्चरल एक्टिविटीज़ को लेकर वॉलीबॉल, बैडमिंटन जैसे कई इनडोर और आउटडोर खेलों की भी शुरुआत हुई।

गर्ल गाइड इनिशिएटिव में लड़कियों की शानदार परफॉर्मेंस रही। जिसकी बदौलत 14 दिसंबर 1932 की तारीख इस स्कूल के लिए यादगार बन गई, मिसेज़ मोती लाल नेहरू जो कि कश्मीरी थीं, उन्होंने न सिर्फ इस स्कूल का दौरा किया बल्कि बच्चों के साथ पूरा दिन बिताया। 

दराबाद में आयोजित अखिल भारतीय प्रतियोगिता में जीती अखिल भारतीय राज कुमारी अमृत कुमारी ट्रॉफी।

स्कूल की इन कामयाबियों का सिलसिला जारी था जिसके तहत-
 
वर्ष 1933 में स्कूल की गर्ल गाइड्स ने लेडी हाईली (Lady Hailey) चैलेंज शील्ड पर फतह हासिल की।

1935 में एंग्लो-वर्नाक्यूलर मिडिल एग्जाम की मेरिट लिस्ट में स्कूल की एक बच्ची का नाम शामिल हुआ।

1936 में म्यूजिक क्लासेस की शुरुआत हुई।

वर्ष 1937 में स्कूल की कुछ लड़कियों ने यू.पी. इंडस्ट्रियल एक्ज़ीबिशन में हिस्सा लिया जिनमें से चार सिल्वर मैडल की हक़दार बनीं और और इसी साल एक बार फिर से नवीं क्लास की शुरुआत हुई।

1938 में हाई स्कूल के इम्तिहान में शामिल 6 लड़कियों वाले पहले बैच का 100 फीसद कामयाब नतीजा भविष्य की अनगिनत कामयाबियों की तरफ इशारा कर रहा था।

अगले 2 वर्षों में लड़कियों की परफॉर्मेंस पर इस संस्था को यूपी बोर्ड की तरफ से हाई स्कूल के लिए मान्यता मिल गई।
टीचर्स की लगन और मेहनत के साथ छात्रों की प्रतिभा हर दिन निखर कर कामयाबी के नए सोपान रच रही थी। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो उस समय यहां पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 406 हो गई थी, यही नहीं दो और पायदान की तरक्की करता हुआ स्कूल इंटरमीडिएट की क्लासेस शुरू कर चुका था।

स्कूल को इंटर कॉलेज क्लासेस के लिए लिए 9150/- की सरकारी ग्रांट मिली और इसी वक़्त कॉलेज का नया नाम म्यूनिसिपल गर्ल्स इंटर कॉलेज पड़ा। इस काम के लिए शेष राशि का प्रबंध भीतरी माध्यम से किया गया।

1950 में इंटरमीडिएट की दो स्टूडेंट पूरे स्टेट में उर्दू में सबसे ज़्यादा नंबर लाईं, 1952 में स्पोर्ट्स और दूसरी एक्टिविटीज़ में मेडल बटोरे और 1953 में कॉलेज अपनी खूबियों के बल पर हाई स्कूल परीक्षा के लिए सेंटर के लायक साबित हुआ।

हाई स्कूल के लिए साइंस क्लासेस का प्रारम्भ 1956 में हुआ और 1958 में मेडिकल में भविष्य तलाशने वाली लड़कियों के लिए इंटरमीडिएट कक्षा की साइंस की शुरुआत के साथ एक साइंस लैब का भी निर्माण किया गया। इन सबके साथ अगले वर्ष तक यूनिफार्म, प्रार्थना और फिज़िकल ट्रेनिंग भी यहां के रूटीन का हिस्सा बन चुकी थी।

साल 1972 में बायोलॉजी फैकल्टी में नियुक्त होने वाली मिस शहनाज़ ज़रीना खान का कहना है- 'हमारे स्कूल की लेबोरेट्री शहर की सबसे रिच लेबोरेट्री हुआ करती थी। फ़िज़िक्स, केमेस्ट्री और बाइलॉजी की इन लेबोरेट्री में बच्चों की बेहतरीन ट्रेनिंग के लिए आला दर्जे के सभी टूल, फर्नीचर और साफ सुथरे हॉल का इंतिज़ाम किया गया था।'

1966 में कॉलेज ने हैदराबाद में होने वाले आल इंडिया कम्पटीशन में ऑल इंडिया राज कुमारी अमृत कुमारी ट्रॉफी जीती। कॉलेज शिक्षा के साथ खेल के मैदानों में कामयाबी का परचम लहरा रहा था। इसमें सेंट जॉन एम्बुलेंस की सरगर्मियां और पढ़ाई के शानदार नतीजे भी शामिल थे।

01मार्च 1967 को मिसिज़ गुप्ता रिटायर हुईं। उनकी 37 बरस और 3 माह की मेहनतों का नतीजा था कि इस वक़्त कॉलेज में 1133 बच्चियां शिक्षा प्राप्त कर रही थीं। हाई स्कूल की साइंस लेबोरेट्री के लिए 15000/- की राशि के साथ कॉलेज 33636/- की ग्रैंड हासिल कर रहा था। मिसेज़ ओ पी गुप्ता के रिटायरमेंट के समय कॉलेज को लखनऊ रीजन में 12000/- फंड इस कामयाबी पर मिला था क्योंकि यहां के बच्चों ने साइंस में सबसे शानदार परिणाम दर्ज किये थे। प्रिंसिपल के तौर पर मिसेज़ ओ पी गुप्ता ने इस संस्था के लिए पूरी मुस्तैदी से अपना फ़र्ज़ निभाया था। उनकी मेहनतों का परिणाम था ये स्कूल शानदार और वेल फर्निश्ड ईमारत बना। मिडिल स्कूल का सफर तय करते हुए ये संस्था आर्ट्स और साइंस के साथ एक इंटरमीडिएट कॉलेज बन गया। लड़कियों की शिक्षा और स्कूल की तरक्की लिए किये गए उनके ये प्रयत्न कोई मामूली कामयाबी नहीं थी।

मिसेज़ गुप्ता ने प्रिंसिपल के रूप में जिस समय स्कूल की ज़िम्मेदारी संभाली थी, उस वक़्त 149 बच्चे, सख्त पर्दा, चारों ओर खुले प्रतिरोध के मोर्चे और 2-3 विषय थे। मगर अपनी हिम्मत, लगन और मेहनत के बल पर उन्होंने इस स्कूल में शिक्षा की मशाल को ऐसा जगमगाया जिसने सारी दुनिया में अपनी चमक बिखेरी है।

मिसेज़ गुप्ता के रिटायरमेंट के समय कॉलेज के हर स्टाफ और कर्मचारी की आंख नम और दिल उनके ज़रिए मिलने वाली कामयाबियों का शुक्रगुज़ार था। एक कट्टर आर्य समाजी ज़िंदगी बिताने वाली मिसेज़ गुप्ता ने उनकी याद में कॉलेज में स्टेच्यू लगाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह "कर्म" में यकीन रखती थीं। 17 मई1979 को मिसेज़ गुप्ता ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मिसेज़ गुप्ता के बेटे कर्नल वी.के. गुप्ता ने मिसेज़ गुप्ता की मौत के बाद उनके नाम पर दो स्कॉलरशिप शुरू कीं- हर साल ये स्कॉलरशिप एक टॉपर स्टूडेंट के लिए और दूसरी गरीब मगर होनहार बच्ची के लिए थी। साल 2010 में बतौर प्रिंसिपल रिटायर होने वाली मिसेज़ शहनाज़ ज़रीना खान बताती हैं कि स्कूल से रिटायरमेंट के वक़्त तक उन्होंने स्कॉलरशिप के फंड को पूरी तरह मेनटेन रखा था।

1967 से 1982 तक इस स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज़ अख़्तर रहीं। शिक्षा के साथ डिसिप्लिन और अन्य एक्टिविटीज़ को उन्होंने मिसेज़ गुप्ता की तर्ज़ पर बरकरार रखने की मिसाल कायम की।

1982 में कॉलेज के प्राइमरी सेक्शन को अलग किया गया अब स्कूल एक ही ईमारत में दो शिफ्ट में चलने लगा। साल 1983 से 1988 तक मिसेज़ चंद्र मोहिनी हजेला ने प्रिंसिपल की ज़िम्मेदारी सँभालते हुए कालेज की परंपरा को बरकरार रखा। इनके बाद मिसेज़ शांति कुमार ने साल 1988 से 2003 तक इस ज़िम्मेदारी को निभाया।

20 वीं सदी की शुरुआत में बने हुए इस स्कूल ने हर मैदान में सफलता के परचम फहराए थे। यहां पढ़ने वाली लड़कियों ने इस स्कूल को गर्व करने के बेशुमार अवसर दिए और इस स्कूल में तैनात स्टाफ ने केवल शिक्षा ही नहीं संस्कार सीखने का ज़िम्मा भी निभाया। होम साइंस, म्यूज़िक, लिटरेचर के साथ फ़िज़िक्स केमेस्ट्री और बायोलॉजी की शिक्षा देने वाली टीचर के अलावा हर यहाँ शानदार लैब को स्कूल की शान का दर्जा मिला हुआ था। यहाँ की जैसी लैब सुविधा किसी अन्य स्कूल में नहीं थी। नगर निगम की सरपरस्ती में ये कॉलेज बड़ी ही मामूली फीस के साथ बेशुमार ऐसी बच्चियों की पढ़ाई का जरिया बना हुआ था जिनके लिए शायद यहां के अलावा इतनी आला तालीम हासिल करना मुमकिन नहीं था।

मगर 20 वीं सदी के खात्मे और 21 सदी की शुरुआत ने ये बता दिया था कि कामयाबी की इबारत सिर्फ अंग्रेज़ी ज़ुबान में ही लिखी जा सकती है और म्युनिसिपल गर्ल्स इंटर कॉलेज अपनी तमामतर खूबियों के बावजूद इस रेस में शामिल न हो सका। लगभग हर मोर्चे पर जीत हासिल करने वाले इस कॉलेज में अब सिर्फ वही बच्चे दाखिल होने लगे जो अंग्रेजी तालीम के लिए भारी कीमत अदा नहीं कर सकते थे। यहां धीरे धीर उन बच्चियों की तादाद बढ़ने लगी जिनके घरों में तालीम से पहले ज़िंदगी की दूसरी ज़रुरियात का इंतिज़ाम अहम था। इनमें से ज़्यादातर सरपरस्तों को तालीम का ठप्पा महज़ इस लिए चाहिए था ताकि बेटी की शादी के वक़्त उसे अनपढ़ कहने से बचा सकें और इस पर बिलकुल भी लागत न आये। इन सबके बावजूद टीचर्स की मुस्तैदी और लगन का नतीजा था जिसने कई ज़हीन बच्चों को तराशा और उस मुक़ाम तक पहुंचाने में मदद की जहां उन्होंने कॉलेज का नाम रौशन किया।

साल 2007 में मिसेज़ शहनाज़ ज़रीना खान ने बतौर प्रिंसिपल स्कूल का शताब्दी समाहरोह मनाया तो उस समय मौजूद सभी यादगार शख्सियतों को बुलाया था। जिसमें स्कूल फाउंडर सूरज नारायण बहादुर के पोते डॉ. हरी नारायण बहादुर, अख़्तर शकील (अब दिवंगत), महापौर दिनेश शर्मा के अलावा कई पुरानी टीचर्स और स्टूडेंट ने हिस्सा लिया। जुलाई 2006 से जून 2010 तक प्रिन्सिपल रही मिसेज़ शहनाज़ ज़रीना खान ने अपनी प्रिन्सिपलशिप के दौरान स्कूल की कम हुई साख को एक बार फिर से उरूज पर लाने की हर मुमकिन कोशिश की।

मिसेज़ ओ पी गुप्ता की तर्ज़ पर कर्म को अहमियत देते हुए वे न सिर्फ बच्चों की तालीम बल्कि स्पोर्ट्स और कल्चरल एक्टिविटीज़ के ग्राफ को फिर से उन्ही ऊंचाइयों तक लाने की जद्दोजहद में लगी रहीं। वॉटर हार्वेस्टिंग की कोशिश के साथ इंटर कालेज को डिग्री कॉलेज बनाने का हर जतन उन्होंने किया। यहां तक के जिस दिन उनका रिटायरमेंट होना था उस दिन भी अपने ही अलविदाई प्रोग्राम में शरीक होने से बजाए उन्होंने दफ्तरों के चक्कर काटते हुए गुज़ारा। उनकी सारी प्लानिंग, प्रेजेंटेशन और जी तोड़ कोशिशें नाकामयाब रहीं और उन्हें डिग्री कॉलेज की मंज़ूरी न मिलने का कोई माकूल जवाब तक न मिल सका।

पिछले कुछ बरसों से ये संस्थान बदहाली की मिसाल बना हुआ है। स्कूल की इमारत जर्जर होती जा रही है। यहाँ की लैब और कई क्लासेज़ ढह जाने की हालत में हैं। दरकी हुई दीवारें और जगह जगह उग आये झाड़ इसकी लापरवाही की दास्तान बयान कर रहे हैं। यहां पढ़ने वाली बच्चियों की संख्या हर दिन जा रही है। स्कूल के आस पास मौजूद लोग बताते हैं कि 80 और 90 के दशक में इस स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियों की संख्या इतनी थी कि छुट्टी के समय नीली सफ़ेद यूनिफार्म में जैसे एक सैलाब नज़र आता था। मगर अब स्कूल किस समय लगता है और कब बंद होता, कुछ पता ही नहीं चलता। 

(लखनऊ स्थित लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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