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गु़लाम रब्बानी ताबां : एक शायर जिसने एहतिजाज में अपना ‘पद्मश्री’ लौटा दिया

साल 1978 में जनता पार्टी की हुकूमत के दौरान अलीगढ़ में बहुत बड़ा दंगा हुआ, जो कई दिनों तक चलता रहा। यह दंगा सरासर सरकार और स्थानीय एडमिनेस्ट्रेशन की नाकामी थी। गु़लाम रब्बानी ताबां ने इसके इख़्तिलाफ़ में सरकार को अपना ‘पद्मश्री’ का अवार्ड लौटा दिया।
Gulam Rabbani Taban

पिछले दशक में केंद्र सरकार की सांप्रदायिक नीतियों से देश भर में असहिष्णुता का जो माहौल पैदा हुआ, उसने प्रगतिशील और जनवादी लेखकों को ज़ेहनी तौर पर काफ़ी परेशान किया। इन अदीबों और दानिश्वरों ने सरकार की नीतियों के इख़्तिलाफ़ में एक के बाद एक अपने अवार्ड वापस लौटाए। ज़ाहिर है कि यह सरकार से एहतिजाज का उनका एक अलग तरीक़ा था जिसकी दुनिया भर में ख़ू्ब चर्चा रही। तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े एक शायर ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने बीती सदी के सातवें दशक में सरकारी नीतियों के इख़्तिलाफ़ में अपना ‘पद्मश्री’ अवार्ड लौटा दिया था। जी हां, हम बात कर रहे हैं गु़लाम रब्बानी ताबां साहब की जो एक तरक़्क़ीपसंद शायर ही नहीं, बेदार सिटिजन भी थे। मुल्क में जब भी कहीं कुछ ग़लत होता, लेखों और शायरी के मार्फ़त वे अपना एहतिजाज ज़ाहिर करते। हिंदी और उर्दू दोनों ज़बानों में उन्होंने फ़िरक़ापरस्ती के ख़िलाफ़ ख़ूब मज़ामीन लिखे। उनकी नज़र में हिंदू और मुस्लिम फ़िरक़ापरस्ती में कोई फ़र्क नहीं था। फ़िरक़ापरस्ती को वे मुल्क की तरक़्क़ी और इंसानियत का सबसे बड़ा ख़तरा मानते थे। तरक़्क़ीपसंद ख़याल उनके जानिब महज़ उसूल भर नहीं थे, जब अपनी ज़िंदगी में वे सख़्त इम्तिहान से गुज़रे, तो उन्होंने ख़ुद इन उसूलों पर चलकर दिखाया।

साल 1978 में जनता पार्टी की हुकूमत के दौरान अलीगढ़ में बहुत बड़ा दंगा हुआ, जो कई दिनों तक चलता रहा। यह दंगा सरासर सरकार और स्थानीय एडमिनेस्ट्रेशन की नाकामी थी। गु़लाम रब्बानी ताबां ने इसके इख़्तिलाफ़ में सरकार को अपना ‘पद्मश्री’ का अवार्ड लौटा दिया। सरकार के ख़िलाफ़ एहतिजाज करने का यह उनका अपना एक जुदा तरीका था।

गु़लाम रब्बानी ताबां ने न सिर्फ़ शायरी की ज़मीन पर तरक़्क़ीपसंद ख़याल और उसूलों को आम करने की कोशिश की, बल्कि इसके लिए हर मोर्चे पर ताउम्र जद्दोजहद करते रहे। तमाम दुःख-परेशानियां झेलीं। शायरी उनके लिए महज़ दिल बहलाने का एक ज़रिया नहीं थी बल्कि एक कमिटमेंट था, उस मुआशरे को बेहतर बनाने के लिए जिसमें वे रहते थे। तरक़्क़ीपसंद तहरीक से गु़लाम रब्बानी ताबां का वास्ता शुरू से ही रहा। अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन (प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन) के वे सरगर्म मेंबर थे। अंजुमन की सरगर्मियों और अदबी महफ़िलों में वे हमेशा पेश रहते थे। ग़ुलाम रब्बानी ताबां ने अपनी शायरी की आगाज़ तंज़-ओ-मिज़ाह की शायरी से की। बाद में संजीदा शायरी की ओर मुख़ातिब हुए। दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह ग़ुलाम रब्बानी ताबां ने भी पहले नज़्में लिखीं लेकिन अपने पहले शे’री मज्मूए ‘साज़-ए-लर्ज़ां’ (1950) के शाया होने के बाद सिर्फ़ ग़ज़लें कहने लगे। ग़ज़ल को ही उन्होंने अपने अदब का मैदान बना लिया। ताबां की शायरी की नुमायां शिनाख़्त, उसका क्लासिकी और रिवायती अंदाज़ होने के साथ-साथ तरक़्क़ीपसंद ख़याल के पैकर में पैबस्त होना है। उनकी शायरी, ख़ालिस वैचारिक शायरी है। जिसमें उनके समाजी, सियासी और इंक़लाबी सरोकार साफ़ दिखाई देते हैं।

आसमां का शिकवा क्या वक़्त की शिकायत क्यूं
ख़ून-ए-दिल से निखरा है और भी हुनर मेरा
दिल की बे-क़रारी ने होश खो दिए 'ताबां’
वर्ना आस्तानों पर कब झुका था सर मेरा।

ताबां ने अपनी ग़ज़लों में भी बड़े ही हुनरमंदी से सियासी, समाजी पैग़ाम दिए हैं। सरमायेदारी पर तंज़ कसते हुए वे कहते हैं,

जिनकी सियासते हों ज़र-ओ-जाह की गु़लाम
उनको निगाहो दिल की सियासत से क्या गरज़।

ग़ुलाम रब्बानी तांबा ने गु़लाम मुल्क में अपने अदब से आज़ादी के लिए जद्दोजहद की। अवाम में आज़ादी का अलख जगाया। वामपंथी आंदोलन से निकले तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह उनके ख़्वाबों का मुल्क हिंदुस्तान और उसकी आज़ादी थी। जब मुल्क का बंटवारा हुआ, तो वे काफ़ी निराश हुए। शायरी में उन्होंने अपने इस ग़म का खुलकर इज़हार किया।

दे के हमको फ़रेबे आज़ादी
इक नई चाल चल गया दुश्मन।

बंटवारे को ग़ुलाम रब्बानी ताबां अंग्रेज़ी हुकूमत की साजिश मानते थे,

मैं किससे इंतिक़ाम लूं
बता किसे मैं दोष दूं
चमन में आग किसने दी है मौसमे बहार में
इक अजनबी सफ़ेद हाथ-आतशीं व शोलावार
फ़ज़ा-ए-तीरा-ए-वतन में रक्स कर रहा है आज।

(किताब ‘ग़मे दौरां’)

गु़लाम रब्बानी ताबां ने कम लिखा, लेकिन मानीख़ेज़ लिखा। बेमिसाल लिखा। उनकी शायरी में इश्क़-मुहब्बत के अलावा ज़िंदगी की जद्दोजहद और तमाम मसले-मसाएल साफ़ दिखाई देते हैं। ग़ज़ल में अल्फ़ाज़ों को किस तरह से बरता जाता है, कोई ताबां से सीखे। शाइस्तगी से वे अपने शे’रों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं।

दौर-ए-तूफ़ां में भी जी लेते हैं जीने वाले
दूर साहिल से किसी मौज-ए-गुरेज़ां की तरह।

मशहूर तन्क़ीद निगार एहतेशाम हुसैन अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में गु़लाम रब्बानी ताबां की ग़ज़लों पर तन्क़ीद करते हुए लिखते हैं, ‘‘उन्होंने अपनी ग़ज़लों में सूक्ष्म संकेतों, गहरी मनोभावनाओं और व्यक्तिगत अनुभूतियों से बड़ी रोचकता पैदा कर दी है।’’ मिसाल के तौर पर ताबां की ग़ज़ल के इन अश्आरों को देखिये,

उस ने ’ताबाँ’ कर दिया आज़ाद ये कह कर कि जा
तेरी आज़ादी में इक शान-ए-नज़र-बंदी भी है।

ग़ुलाम रब्बानी ताबां की शायरी में सादा बयानी तो है ही, एक अना भी है जो एक ख़ु़द्दार शायर की निशानदेही है।

रुस्वाई कि शोहरत कुछ जानो हुर्मत कि मलामत कुछ समझो
'ताबां' हों किसी उनवान सही, होते हैं मिरे चर्चे भी बहुत।

तांबा की शायरी में ज़िंदगी की जद्दोजहद और उसके जानिब एक पॉजिटिव रवैया हमेशा दिखाई देता है। तमाम परेशानियों में भी वे अपना हौसला, उम्मीदें नहीं खोते।

जुस्तुजू हो तो सफ़र ख़त्म कहां होता है

यूं तो हर मोड़ पर मंज़िल का गुमां होता है।

गु़लाम रब्बानी ताबां अपनी ग़ज़लों में पारंपरिक शैली का भी दामन नहीं छोड़ते और कुछ इस अंदाज़ में अपनी बात कह जाते हैं कि तर्ज़-ए-बयां नया हो जाता है।

बस और क्या कहें रूदाद-ए-ज़िंदगी ’ताबां’
चमन में हम भी हैं इक शाख़-ए-बे-समर की तरह।

ग़ुलाम रब्बानी ताबां की ग़ज़लों की अनेक किताबें शाया हुईं। ‘साज़-ए-लरज़ां’, ‘हदीस-ए-दिल’, ‘ज़ौक़-ए-सफ़र’, ‘नवा-ए-आवारा’, ‘गु़बार-ए-मंज़िल’ और 'हवा के दोश पर' उनकी ग़ज़लों के अहम मज्मूए हैं। ताबां ने अंग्रेज़ी की कई मशहूर किताबों का उर्दू में तर्जुमा किया। वे शायर होने के साथ-साथ, बेहतरीन तर्जुमा निगार भी थे। अच्छे तर्जुमे के लिए ताबां तीन चीज़ें ज़रूरी मानते थे। ‘‘पहला, जिस ज़बान का तर्जुमा कर रहे हैं, उसकी पूरी नॉलेज होनी चाहिए। दूसरी बात, जिस ज़बान में कर रहे हैं, उसमें और भी ज़्यादा क़ुदरत हासिल हो। तीसरी बात, किताब जिस विषय की है, उस विषय की पूरी वाक़फ़ियत होनी चाहिए। इन तीनों चीज़ों में से अगर एक भी चीज़ कम है, तो वह कामयाब तर्जुमा नहीं होगा।’’

शायरी और तर्जुमा निगारी के अलावा गु़लाम रब्बानी ताबां ने कुली कुतुब शाह वली दक्ख़नी, मीर और ‘दर्द’ जैसे क्लासिक शायरों के कलाम पर तन्क़ीद निगारी की। सियासी, समाजी और तहज़ीब के मसायल पर मज़ामीन लिखे। ‘शे’रियात से सियासियात’ तक उनके मज़ामीन का मज्मूआ है। गु़लाम रब्बानी ताबां का एक अहम कारनामा ‘ग़म-ए-दौरां’ का संपादन है जिसमें उन्होंने वतनपरस्ती के रंगों से सराबोर नज़्मों और ग़ज़लों को शामिल किया है। इसी तरह की उनके संपादन में आई दूसरी किताब ‘शिकस्त-ए-ज़िंदा’ है। इस किताब में उन्होंने भारत और दीगर एशियाई मुल्कों में चले आज़ादी के आंदोलन से मुताल्लिक़ शायरी को संकलित किया है।

गुलाम रब्बानी ताबां ने कई मुल्कों सोवियत यूनियन, पूर्वी जर्मनी, फ्रांस, इटली, मिडिल ईस्ट और अफ्रीका के देशों की साहित्यिक और सांस्कृतिक यात्राएं कीं। वे अदबी राजदूत के तौर पर इन मुल्कों में गए और भारत की नुमाइंदगी की। ताबां को अदबी ख़िदमात के लिए उनकी ज़िंदगी में बहुत से इनाम व एज़ाज़ से सम्मानित किया गया। उनको मिले कुछ अहम एज़ाज़ हैं साहित्य अकादमी अवार्ड, सोवियतलैंड नेहरू अवार्ड, उ.प्र. उर्दू एकेडमी अवार्ड और कुल हिंद बहादुरशाह ज़फ़र अवार्ड। इन सम्मानों के अलावा भारत सरकार ने उन्हें साल 1971 में ‘पद्मश्री’ के एज़ाज़ से भी नवाज़ा। गु़लाम रब्बानी तांबा के दिल में उर्दू ज़बान के जानिब बेहद मुहब्बत थी। वे कहा करते थे, ‘‘उर्दू क़ौमी यकजेहती की अलामत है। यह प्यार-मुहब्बत की ज़बान है। उर्दू ज़बान को फ़रोग़ देने के लिए सबने अपनी क़ुर्बानियां दी हैं।’’ यही नहीं उनका कहना था,‘‘उर्दू को ज़िंदा रखने के लिए हमें सरकार से भीख़ नहीं मांगना चाहिए, बल्कि उसके लिए जद्दोजहद करनी होगी।’’ 7 फरवरी, 1993 को गु़लाम रब्बानी ताबां ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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