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सियासत: राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरे का नैरेटिव और विपक्ष को पंगु बना देने की रणनीति

आने वाले दिन विपक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों के लिए और अधिक चुनौतीपूर्ण होंगे।
nda vs india
फ़ोटो : PTI

राष्ट्रीय राजनीति अब उस निर्णायक चरण में प्रवेश कर गयी है, जहां आने वाले चंद महीनों में यह तय होना है कि मोदी की सत्ता में पुनर्वापसी होगी या नहीं और देश में लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा। जाहिर है पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए 2024 का आम चुनाव जीवन-मरण संग्राम है।

सत्तारूढ़ गठबंधन इसमें अपने सारे अस्त्र-शस्त्र लेकर उतर चुका है। चंद्रयान की वैज्ञानिक उपलब्धि से लेकर G-20 के मेगा इवेंट तक, एशियाई खेलों में खिलाड़ियों के मेडल से लेकर राममंदिर के उद्घाटन तक-हर चीज के चुनावी दोहन की तैयारी है।

यही अब फिलिस्तीन-इजराइल संकट पर हो रहा है।

वैश्विक जनमत की खुले आम अवहेलना करते हुए मोदी सरकार ने गज़ा में मानवीय युद्ध विराम ( humanitarian ceasefire ) के प्रस्ताव के साथ खड़ा होने से इनकार कर दिया। इसके लिए मोदी सरकार ने आतंकवाद की आड़ ली है, पर युद्ध रोकने के लिए प्रचण्ड बहुमत से पारित संयुक्त राष्ट्रसंघ का प्रस्ताव आतंकवाद का समर्थन नहीं करता है वरन मासूम नागरिकों, बच्चों, बुजुर्गों के सामुहिक जनसंहार को रोकने की माँग करता है। यह साफ है कि युद्ध जारी रहता है तो यह खतरनाक ढंग से फैल सकता है, जिससे प्रभावित होने से अंततः कोई नहीं बचेगा। 

युद्धविराम के सवाल पर मोदी सरकार का आतंकवाद को ढाल बनाना आक्रामक अमेरिका-इजराइल धुरी के साथ खड़े होने का बहाना मात्र है। यह इंसाफ, इंसानियत और मध्य-पूर्व में हमारे राष्ट्रीय हितों के तक़ाज़ों के खिलाफ है। स्वाभाविक रूप से इससे भारत global south और दुनिया के शांतिप्रेमी जनमत से अलगाव में पड़ गया है।

दरअसल, सरकार की यह विदेश नीति  देश के अंदर पिछले साढ़े नौ साल से जारी उसकी घोर लोकतंत्रविरोधी नीतियों का ही  विस्तार है। एक अभूतपूर्व मानवीय त्रासदी का- जिसमें अबतक 10 हजार से ऊपर लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें 3000 से ऊपर बच्चे हैं -अपने संकीर्ण घरेलू राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

विपक्ष पर आरोप लगाया जा रहा है कि भारत में जो लोग युद्धविराम की बात कर रहे हैं और इजराइल ( के हमलावर युद्ध ) का समर्थन नहीं कर रहे हैं, वे आतंकवाद का समर्थन कर रहे हैं और तुष्टीकरण की राजनीति कर रहे हैं ! केरल के मलप्पुरम में फिलिस्तीन के समर्थन में हुई रैली में किसी हमास नेता के वर्चुअल भाषण को लेकर लेफ्ट, कांग्रेस और INDIA गठबंधन की घेरेबंदी की जा रही है।

29 अक्टूबर को केरल के एर्नाकुलम में हुए धमाके को लेकर, जिसमें चर्च में प्रार्थना कर रहे एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी, मोदी जी के मंत्री और "रिपब्लिक भारत" के मालिक राजीव चंद्रशेखर ने इस बम ब्लास्ट का ज़िम्मेदार "हमास" को बताकर मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया। जबकि अब किसी डोमिनिक मार्टिन ने घटना की जिम्मेदारी लेते हुए आत्मसमर्पण किया है कि उसने इसे अंजाम दिया क्योंकि वह यहोवा के साक्षियों की शिक्षाओं से सहमत नहीं है।

दरअसल, मोदी-भाजपा के सामने इस समय जनता के बीच एक ऐसा  नैरेटिव  गढ़ने की चुनौती है जिससे जनता 10 साल की उसकी सारी विफलताओं को भूलकर तथा बेहतर विकल्प के विपक्षी गठबंधन के वायदों और दावों को नकारकर पुनः उन्हें सत्ता में ले आये। 

इसके लिए National Security threat का परसेप्शन बनाया जा रहा है। यह ग्रैंड नैरेटिव गढ़ा जा रहा है कि अर्बन नक्सल, कल्चरल मार्क्सिस्ट, आंदोलनजीवी कम्युनिस्ट, कांग्रेस, INDIA-ये सब बाहरी दुश्मन ताकतों से मिलकर भारत को बदनाम कर रहे हैं, देश के खिलाफ साजिश रच रहे हैं और कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक को देश से अलग करना चाहते हैं तथा मुस्लिम तुष्टिकरण और आतंकवाद का समर्थन करके राष्ट्रीय सुरक्षा एवं हिंदुओं के लिए गम्भीर खतरा पैदा कर रहे हैं।

पूरे संदर्भ-प्रसंग से काटकर इजराइल-हमास प्रकरण को भारतीय संदर्भ से जोड़कर यह subtle सन्देश दिया जा रहा है कि 7 अक्टूबर को जैसे इजराइल में हमला हुआ, उसी तरह हमारे ऊपर भी कभी भी आतंकी हमला हो सकता है ! और इन खतरों से मोदी जी ही देश को और हिंदुओं को बचा सकते हैं !

न्यूज़क्लिक पर जिस तरह चीनी फंडिंग, उसके पक्ष में प्रोपगंडा करने, अरुणाचल को भारत से अलग दिखाने आदि के अनर्गल आरोप लगे, अरुंधती रॉय के कश्मीर सम्बन्धी लगभग एक दशक पुराने बयान को लेकर मुकदमे की जो सनसनी पैदा की गई, हिंडनबर्ग और जॉर्ज सोरोस आदि द्वारा भारत को अस्थिर करने के जिस तरह आरोप लगाए गए और इनमें वामपंथ के साथ साथ प्रमुख विपक्षी नेता राहुल गांधी की संलिप्तता दिखाई गई, और अब आते आते फिलिस्तीन-इजराइल प्रकरण में जेहादी आतंकवाद का angle उभारा जा रहा है और उसमें विपक्ष को जबरदस्ती घेरा जा रहा है, वह सब इस नैरेटिव बिल्डिंग का हिस्सा है।

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद के चश्मे से, स्वाभाविक रूप से, भारत की विविधता को सेलिब्रेट करने वाले, क्षेत्रीय स्वायत्तता और संघवाद की बात करने वाले, जाति जनगणना की वकालत करने वाले  विपक्षी दल villain  बताए जा रहे हैं जो देश को कमजोर कर रहे हैं! इसीलिए मोदी जी ने दशहरे के दिन " जातिवाद और क्षेत्रवाद " के रावण को भी जलाने का आह्वान किया !

आने वाले दिनों में नेशनल सिक्योरिटी थ्रेट का बड़ा परसेप्शन बनाकर विपक्ष पर हमले  को सम्भवतः और तेज किया जाएगा।

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए निराशाजनक संकेतों के बीच जनवरी में राम मंदिर के उद्घाटन का ऐलान हो चुका है और फिर उसके चंद हफ्तों के अंदर आम चुनाव की घोषणा हो जाएगी, अगर वह समय पर हुआ तो।

आज वस्तुस्थिति यह है कि चंद कारपोरेट घरानों और ऊपरी तबकों को छोड़ दिया जाय तो मोदी राज में, लफ्फाजी चाहे जितनी हुई हो, आम जनता को असल ज़िंदगी में निराशा ही हाथ लगी है। जहाँ तक मोदी के बहुप्रचारित करिश्मे और हिंदुत्व/राष्ट्रवाद की बात है, कर्नाटक चुनाव के बाद तो  संघ यह स्वयं स्वीकार कर चुका है कि इनके बल पर अब चुनाव नहीं जीते जा सकते।

दरअसल, संघ-भाजपा को आज इस बात का अच्छी तरह एहसास है कि राजनीति के मैदान में अगर level-playing फील्ड रही तो आम चुनाव में मोदी की पुनर्वापसी की राह आसान नहीं है। इसीलिए, जैसे- जैसे 2024 का आम चुनाव नजदीक आ रहा है, देश में विपक्षी नेताओं और लोकतांत्रिक ताकतों पर हमला तेज होता जा रहा है।

वैसे तो मोदी सरकार अपने हर तरह के विरोधियों की घेरेबन्दी और दमन में दोनों कार्यकाल में लगी ही रही, पर अब चुनाव-पूर्व के इस निर्णायक चरण में वह किसी भी असहमति और प्रतिवाद के स्वर को कत्तई बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है।  वह अपने खिलाफ मुखर हर आवाज को चाहे वह संसदीय विपक्ष के नेता हों या जनान्दोलन/नागरिक समाज की शख़्सियतें हों या पत्रकार/ बुद्धिजीवी/ संस्कृतिकर्मी हों, डरा/ धमकाकर अथवा जेल में डालकर उन्हें निष्क्रिय और खामोश कर देने पर आमादा है।

राहुल गांधी, संजय सिंह, महुआ मोइत्रा जैसे प्रखर विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो या ऐन चुनाव के बीच में राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विपक्षी मुख्यमंत्रियों के निकट सम्बन्धियों के यहां छापे, ममता-तेजस्वी-केजरीवाल की घोषित, और चंद्रशेखर राव-अखिलेश-मायावती-पवार जैसों की अघोषित घेरेबंदी इसी श्रृंखला की कड़ी हैं।

ठीक  इसी तरह अकेले अक्टूबर के एक महीने में देख लिया जाय, तो न्यूज़क्लिक पर हमला, उसके संस्थापक सम्पादक प्रबीर पुरकायस्थ और उनके एक और सहकर्मी की UAPA में गिरफ्तारी, उससे जुड़े तमाम नामचीन पत्रकारों के फोन, लैपटॉप आदि की जब्ती, सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय के सर पर गिरफ्तारी की लटकती तलवार, UP में पूर्व पुलिस महानिरीक्षक, AIPF के राष्ट्रीय अध्यक्ष दारापुरी जी, पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ रामू व अन्य की गरीबों-दलितों के लिए जमीन का सवाल उठाने पर गिरफ्तारी, फिलिस्तीन के समर्थन पर देश भर में हिरासत-गिरफ्तारियां, युवा-मंच के नेताओं राजेश सचान व अनिल सिंह की मुख्यमंत्री से नौकरियों की बहाली के लिए मिलने के निवेदन पर हिरासत, छात्रों-युवाओं-बुद्धिजीवियों पर जगह जगह छापे, गिरफ्तारियां -सबका एक ही उद्देश्य लगता है कि विरोध की हर आवाज को खामोश कर दिया जाए और पूरे समाज को इतना डरा दिया जाय कि कोई  भी उनके विनाशकारी राज के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत ही न जुटा सके।

तमाम तिकड़मों द्वारा मोदी-शाह की सारी  कोशिश यह है कि विपक्ष की शक्तियों को इस तरह पंगु बना दिया जाय कि वे राजनीतिक लड़ाई लड़ ही न सकें, फलस्वरूप जनता के पास संघ-भाजपा के  "देश खतरे में है, हिन्दू खतरे में हैं और मोदी ही saviour हैं" के उनके नैरेटिव के झाँसे में फिर फँसने के अलावा और कोई विकल्प ही न बचे! ऊपर से मोदी के नेतृत्व में 2047 तक भारत के विश्वगुरु, विकसित राष्ट्र बनने और ओलंपिक का आयोजक होने का दिवास्वप्न!

विपक्ष की ताकतों की कामयाबी की शर्त यही है कि वे एकजुट होकर  संघ-भाजपा की इस रणनीति को विफल करें।

आने वाले दिन विपक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों के लिए और अधिक चुनौतीपूर्ण साबित होने वाले हैं। उन्हें अपनी एकजुटता और जनता के लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर सत्ता के हर दमन और साजिश का मुकाबला करना होगा तथा सर्वांगीण फासीवाद के शिकंजे में  जाने से देश को बचाने की इस फैसलाकुन लड़ाई को जीतना  होगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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