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खेती के संबंध में कुछ बड़ी भ्रांतियां और किसान आंदोलन पर उनका प्रभाव

इनमें पहली भ्रांति तो इस धारणा में ही है कि खेती किसानी पर कॉर्पोरेट अतिक्रमण तो ऐसा मामला है जो बस कॉर्पोरेट और किसानों से ही संबंध रखता है। यह ग़लत है। 
The Indian Agricultural Situation Must Not Be Misread
Image courtesy : The Indian Express

भारतीय खेती के संबंध में अनेक भ्रांतियां हैं, जिन्हें अगर फौरन दूर नहीं किया जाता है तो उनका, तीन कृषि कानूनों के खिलाफ इस समय चल रहे किसान आंदोलन पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इनमें पहली भ्रांति तो इस धारणा में ही है कि किसानी खेती पर कार्पोरेट अतिक्रमण तो ऐसा मामला है जो बस कार्पोरेट अतिक्रमणकारियों और किसानों से ही संबंध रखता है। यह गलत है। किसानी खेती पर अतिक्रमण ऐसा मामला है, जिसका असर समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इसका सबंध सभी से है। यह सिर्फ जुमलेबाजी की बात नहीं है। यह शब्दश: सही है। इस अर्थ में कार्पोरेटों के अतिक्रमण के खिलाफ किसानों का आंदोलन, किसी एक कारखाने की औद्योगिक कार्रवाई की तरह, सिर्फ दो पक्षों के बीच का मामला नहीं है। कार्पोरेट अतिक्रमण के खिलाफ लड़ने की प्रक्रिया में किसान वस्तुगत रूप से समूचे समाज के लिए लड़ रहे हैं। वे भारत को ‘खाद्य साम्राज्यवाद’ के आधीन किए जाने के खिलाफ लड़ रहे हैं। इसका कारण इस प्रकार है।

किसानी खेती पर कार्पोरेटों के अतिक्रमण का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं है कि कार्पोरेट, किसानों की आय का एक हिस्सा उड़ा लेंगे। वे ऐसा प्रत्यक्ष रूप से, सीधे-सीधे किसानों की आय का एक हिस्सा उनसे निचोड़ने के जरिए भी कर सकते हैं और परोक्ष तरीके से भी, पैदावार की बाजार में कीमतें गिरने की सूरत में गिरावट का बोझ किसानों पर डालने किंतु कीमतों में बढ़ोतरी का लाभ किसानों तक नहीं पहुंचने देने के जरिए भी कर सकते हैं। इसके साथ ही किसानी खेती पर कार्पोरेटों के अतिक्रमण का अनिवार्य रूप से अर्थ, उनके द्वारा कृषि भूमि के उपयोग के पैटर्न का बदलवाया जाना है।

खासतौर पर खाद्यान्न उत्पादन से हटाकर, जिनके मामले में विकसित पूंजीवाद देश फालतू उत्पादन करते हैं, जिसे वे तीसरी दुनिया के देशों में बेचना चाहते हैं, खेती की जमीनों को ऐसी पैदावारों की ओर धकेला जाता है, जिनकी उन्हें यानी विकसित पूंजीवादी देशों को जरूरत होती है। इसमें गर्म इलाकों में पैदा होने वाली ऐसी गैर-खाद्य फसलें आती हैं, जो विकसित पूंजीवादी देश पैदा नहीं कर सकते हैं और ऐसी फसलें भी आती हैं जो वे पैदा तो कर सकते हैं, लेकिन खास मौसम में ही पैदा कर सकते हैं।

इसलिए, किसानी खेती पर कार्पोरट अतिक्रमण का अर्थ अनिवार्य रूप से खाद्यान्न के उत्पाद का घटना और खेती के रकबे का खाद्यान्न की पैदावार से हटकर, ऐसी पैदावारों की ओर जाना होता है, जिनकी विकसित पूंजीवादी देशों में जरूरत होती है। वास्तव में, अर्थव्यवस्था को इस दिशा में और ज्यादा धकेलने के लिए एक अतिरिक्त हथियार का भी इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को ही छुड़वाया जा रहा है, जो इस समय भारत में मुख्यत: खाद्यान्नों पर ही लागू होती है। मोदी सरकार हजार बार इसका दावा कर सकती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था जारी रहेगी, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि उनकी तरफ से एक बार भी इसका वादा नहीं किया गया है कि कृषि कानूनों में संशोधन कर, उक्त आश्वासन को कानूनी रूप दिया जाएगा। मंशा एकदम साफ है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को ही समेटा जाना है, जिससे खाद्यान्न उत्पादन में किसानों का जोखिम बहुत बढ़ जाएगा और जोखिम के तत्व का हिस्सा निकाल दें तो, इस तरह की पैदावार की लाभकरता घट जाएगी। 

यह अनिवार्यत: खाद्यान्न की पैदावार को कम कर देगा क्योंकि किसान, इतने गरीब होते हैं कि जोखिम उठा ही नहीं सकते हैं और इसलिए, जोखिम उठाने से बहुत बचते हैं। इस तरह किसानों पर, खाद्यान्न की पैदावार को छोड़ने के लिए दोतरफ़ा दबाव पड़ रहा होगा। एक तरफ तो कार्पोरेटों की तरफ से उन पर गैर-खाद्य पैदावारों के लिए दबाव डाला जा रहा होगा और दूसरी ओर, सरकार की तरफ से खाद्यान्न उत्पादन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मुहैया कराने से हाथ खींचने के  जरिए, इसी के लिए दबाव डाला जा रहा होगा।

लेकिन, यह पूछा जा सकता है कि अगर भारत जैसे देश, खाद्यान्न उत्पादन से हाथ खींच लेते हैं और इसकी जगह पर खाद्यान्न का आयात करने लगते हैं, जिसकी भरपाई वे दूसरी फसलों के निर्यात से कर सकते हैं, तो बुराई क्या है? पहली बात तो यह है कि खाद्यान्न का आयात करने में समर्थ होने के लिए, किसी भी देश के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा होनी जरूरी है और ऐन मुमकिन है कि किसी देश के पास हमेशा इतनी विदेशी मुद्रा ही नहीं हो। एक तो खाद्यान्नों और अन्य नकदी फसलों के उतार-चढ़ाव परस्पर विसंगति में चल सकते हैं और इसके चलते ऐन मुमकिन है कि इन देशों द्वारा निर्यात की जाने वाली नकदी पैदावारों की कीमतों में सापेक्ष गिरावट से, ऐसी स्थिति पैदा हो जाए कि आयात के लिए देश के पास कोई खास विदेशी मुद्रा रह ही नहीं जाए। 

इसके अलावा, यह भी याद रखना चाहिए कि जब भारत जैसा कोई विशाल देश खाद्यान्नों की खरीद के लिए विश्व बाजार में उतरता है, विश्व बाजार में खाद्यान्न के दाम फौरन बढ़ जाएंगे और इसका नतीजा यह होगा कि खाद्यान्न की किसी भी मात्रा के आयात के लिए, अन्यथा जितनी विदेशी मुद्रा की जरूरत होती, उससे ज्यादा विदेशी मुद्रा की जरूरत होगी।

दूसरे, अगर संबंधित देश के पास खाद्यान्नों का आयात करने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा हो तब भी, इस आयातित खाद्यान्न को खरीदने के लिए जनता के हाथों में पर्याप्त क्रय शक्ति होना भी तो जरूरी है। और जब कोई देश खाद्यान्न उत्पादन से हटता है, तो सामान्यत: उसकी जनता के हाथों में क्रय शक्ति नीचे खिसक जाती है। वास्तव में, खाद्यान्नों की जगह पर ऐसी स्थिति में पैदा की जाने वाली अनेक फसलें, खाद्यान्नों के मुकाबले बहुत कम श्रम-सघन होती हैं और इसलिए, ऐसी फसलें पैदा किए जाने का अर्थ होगा, कृषि से मिलने वाले रोजगार का और इसलिए जनता की क्रय शक्ति का भी घट जाना। इसका नतीजा यह होगा कि लोग आयातित खाद्यान्न को खरीद ही नहीं पाएंगे। 

इन कारकों के अलावा साम्राज्यवादी दाब-धोंस का मामला भी है। चूंकि खाद्यान्नों का आयात उन्नत पूंजीवादी देशों से ही किया जा रहा होगा, अगर किसी मुद्दे पर भारत उनकी हां में हां नहीं मिलाएगा, तो वे उसे खाद्यान्न बेचने से ही इंकार कर सकते हैं। वास्तव में इस साधारण सी सचाई को पहचान कर ही इंदिरा गांधी की सरकार ने, खाद्यान्न के मामले में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए, हरित क्रांति का रास्ता अपनाया था। लेकिन, मोदी सरकार के कृषि कानून देश पर यही स्थिति थोप रहे हैं कि इस मामले में वह घड़ी की सुई उल्टी घुमाए और खाद्यान्न के मामले में हमारे देश की आत्मनिर्भरता को नष्ट कर दे, जबकि यह आत्मनिर्भरता भी, जनता के हाथों में क्रय शक्ति आवश्यक खाद्यान्न उपभोग की जरूरत के मुकाबले कमतर स्तर पर बनी रहने पर टिकी हुई है। साम्राज्यवाद, बहुत लंबे अर्से से इसकी मांग करता आ रहा था और मोदी सरकार इतनी रीढ़विहीन है कि वह उनका मनचाहा करने के लिए तैयार है।

किसान आंदोलन इस आत्मसमर्पण के खिलाफ खड़ा है। इसलिए, कार्पोरेट खेती के आने की इजाजत देना और सिर्फ इस पर सौदेबाजी करना कि किसानों का हिस्सा कितना होना चाहिए और कार्पोरेटों का हिस्सा कितना होना चाहिए, असली मुद्दे को अनदेखा ही कर देना है। यह देश की बची-खुची संप्रभुता भी साम्राज्यवाद के हाथों बेच देना है। और यह इस सच्चाई के ऊपर से है कि इस तरह के रुख का नतीजा होगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ही समेट दिया जाना क्योंकि इस प्रणाली को उस खाद्यान्न आयात के भरोसे नहीं चलाया जा सकता है, जिसके तहत किसी साल में कितना अनाज आएगा, हमेशा इसी को लेकर अनिश्चितता बनी रहेगी।

दूसरी भ्रांति का सम्बंध इस धारणा से है कि भारत में, न्यूनतम समर्थन मूल्य सह सरकारी खरीदी की, किसी देशव्यापी व्यवस्था की जरूरत ही नहीं है। इस मामले में यह दलील दी जाती है कि तीन फालतू पैदावार करने वाले इलाकों- पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भारतीय खाद्य निगम जो खरीदी करता है, वही पूरे देश में सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की जरूरतों की पूर्ति करने के लिए काफी है। इसलिए, देश भर में न्यूनतम समर्थन मूल्य सह खरीदी व्यवस्था तो, सरकार के हाथों में खाद्यान्न के भंडार बहुत बढ़ाने का ही करेगी, जिससे भंडारण का खर्चा तथा खरीदी के लिए बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण पर ब्याज के भुगतान का खर्चा बढ़ जाएगा। और इन दोनों खर्चों का बोझ बजट संसाधनों पर पड़ रहा होगा।

इसलिए, इस तर्क के हिसाब से सरकारी खरीदी का दायरा, उक्त तीन फालतू पैदावार वाले क्षेत्रों से ज्यादा फैलाना तो, दुहरी बर्बादी करना ही है। इसमें एक तो सरकारी गोदामों में अनाज की बर्बादी होती है और दूसरे, खाद्यान्नों की खरीद तथा भंडारण पर बजटीय संसाधनों की बर्बादी होती है। इसलिए, सबसे अच्छा यही होगा कि मूल्य समर्थन तथा खरीद के दायरे को सीमित ही रखा जाए।

लेकिन, यह दलील भी गलत है और भारतीय खेती के संबंध में नाजानकारी को ही दिखाती है। भारतीय खाद्य निगम वैसे भी अन्य राज्यों से कोई खास खरीद नहीं करता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढ़ने से, उस पर होने वाले खर्च में कोई खास बढ़ोतरी नहीं होती है। लेकिन, न्यूनतम समर्थन मूल्य एक आधार मूल्य या फ्लोर प्राइस है और इस आधार मूल्य में बढ़ोतरी से, खुले बाजार में बिक्री की कीमतें भी बढ़ जाती हैं। इसलिए, न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी करती यह है कि भारतीय खाद्य निगम से इतर बिक्री पर मिलने वाले वास्तविक मूल्य को बढ़ाने के जरिए, किसानों की आय बढ़ा देती है। और यह कोई सरकारी खरीद में बढ़ोतरी की वजह से नहीं होता है बल्कि ऐसी बढ़ोतरी के भी बिना ही होता है।

लेकिन, खुले बाजार में दाम, खुले बाजार में मांग में गिरावट के बिना कैसे बढ़ सकते हैं और इस गिरावट का अनिवार्य रूप से मतलब होगा, भारतीय खाद्य निगम द्वारा खरीदी का बढ़ाया जाना? इस पहेली का जवाब इस तथ्य में छुपा हुआ है कि उच्चतर आय वर्ग के बीच, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से बाहर रहता है, खाद्यान्न की मांग आम तौर पर कीमत से अप्रभावित रहती है। इसका अर्थ यह है कि खुले बाजार में खाद्यान्नों के दाम बढ़ने की सूरत में भी, इस मांग में खास संकुचन नहीं होता है। 

इसलिए, इस मामले में यह मुद्दा उठता ही नहीं है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी से, समांतर रूप से खुले बाजार में दाम में जो बढ़ोतरी होगी, उसके चलते न बिकने वाले खाद्यान्न के भंडार, भारतीय खाद्य निगम के पास जमा होने चाहिए और इस तरह उसके पास और भी अतिरिक्त भंडार जमा हो जाने चाहिए।

इस तरह, न्यूनतम समर्थन मूल्य की देशव्यापी व्यवस्था, हर जगह किसानों के लिए एक सुनिश्चित आय पक्की करती है, जबकि इसका सरकार के भंडारों पर कोई खास असर नहीं पड़ता है। और न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी से, सरकारी भंडारों में कोई खास बढ़ोतरी हुई बिना ही, यह सुनिश्चित आय बढ़ जाती है। बेशक, उक्त तीन अतिरिक्त पैदावार वाले क्षेत्रों को छोडक़र, खरीदी के मामले में भारतीय खाद्य निगम का काम बिल्कुल ढीला-ढाला है और भारतीय खाद्य निगम की इस नामौजूदगी की भरपाई करने के लिए, कुछ राज्य सरकारों को अपनी ही एजेंसियों के जरिए हस्तक्षेप करना पड़ा है। जहां कहीं भी इस तरह की एजेंसियां सक्रिय रही हैं, इन एजेंसियों ने खुद तो कोई खास खरीदी नहीं की है, फिर भी उन्होंने किसानों को एक सुनिश्चित आय दिलायी है। इसलिए, यह जरूरी है कि भारतीय खाद्य निगम के ऑपरेशनों को अखिल भारतीय स्तर से सिकोड़ा नहीं जाए बल्कि उन्हें हर जगह तक पहुंचाया जाए और उनके दायरे को सचमुच अखिल भारतीय बनाया जाए।

इसका अर्थ यह है कि उक्त दोनों ही धारणाएं गलत हैं। पहली, यह कि कृषि के क्षेत्र में कार्पोरेटों के अतिक्रमण का असर सिर्फ किसानों के ही हिस्से पर पड़ता है और इसलिए यह तो, किसानों और कार्पोरेटों के बीच का द्विपक्षीय मामला भर है। दूसरी, यह कि पूरे देश के पैमाने पर एक प्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था करना और हालात के अनुसार उसमें समुचित बढ़ोतरियां करना, सरकार पर इतना बोझ डालता है जो वह उठा नहीं सकती है। गलत होने के बावजूद, इस तरह की धारणाएं किसानों के आंदोलन को कमजोर कर सकती हैं, जिसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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