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रजत घोष की मिट्टी की मूर्तियां : जन कला से प्रभावित

रजत घोष एक प्रतिभाशाली मूर्तिकार और समर्पित कलाकार हैं, मिट्टी की मूर्तियों का सृजन ही उनका जुनून है। उनके आत्मिक उत्कर्ष का बेचैन संगीत है जो उनकी मृण्मय मूर्तियों में मुखरित हो अभिव्यक्त हो रहा है।
Rajat Ghosh

सरल मिज़ाज, फक्कड़ भावभंगिमा, पैरों में साधारण चप्पल, साधारण कुर्ता पहने, कंधे पर एक थैला उठाए कभी पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय के प्रांगण में तो कभी डाक बंगला चौराहे, पटना के पास सड़क के किनारे चलते हुए हमने बिहार के मशहूर मूर्तिकार रजत घोष को देखा है।

प्रारंभ में देखती थी तो थोड़ी घबराहट ही होती थी कि पता नहीं अजीब से कलाकार होते हैं क्या? बाद में उच्चतर कला अध्ययन के दौरान अनुभव हुआ कि मूर्तिकला कर्म एक कठिन परिश्रम वाला कार्य तो है ही बल्कि सृजन कर्म ही ऐसी श्रमसाध्य प्रक्रिया है जिसमें संवेदनशील और भावुक कलाकार डूब कर सृजन करेगा तभी एक सुंदर कलाकृति बनेगी। इस दौरान आपको बनने-ठनने, खाने पीने की सुध ही नहीं रहती।

आग में तपकर ही लोहा कोई रूप लेता है। कलाकार के कठोर श्रम से ही सुंदर और सार्थक कलाकृति सृजित होती है।

हमें रजत घोष की अनेक कलाकृतियों से रूबरू होने का मौका मिला बिहार म्यूजियम के अस्थाई कला विथीका‌ में। संग्रहालय में रजत घोष साधारण कपड़े में ही संजीदा नजर आ रहे थे। ज्यादातर लोगों के पसंद के अनुसार बिहार म्यूजियम, पटना के शानदार सुसज्जित गैलरी के बेजान भित्ति पर रजत घोष के मुक्तहस्त संचालित (फ्री हैंड) लयबद्ध गतिशील रेखाओं वाले बड़े बड़े रेखाचित्र बहुत अच्छे लग रहे थे। विषय ज्यादातर कलाकारों के पसंद अनुसार धार्मिक ही थे। वहां संजीदा और चिंतनशील कलाकार और कलाकृतियां ही सजीव सी प्रतीत हो रहीं थीं। यह प्रदर्शनी 4 दिसंबर से 25 दिसंबर 2022 तक चली।

मूर्तिकार रजत घोष

रजत घोष मुख्यतया मूर्तिकार हैं। उन्होंने सबसे सस्ती और सहज प्राप्य मिट्टी को ही अपनी मूर्तियों का माध्यम बनाया है। हालांकि कांक्रीट की दुनिया में अच्छी मिट्टी और उनको पकाने का माध्यम भी काफी महंगा हो गया है।

रजत घोष अपने कला सृजन के प्रति बेहद समर्पित हैं। उनकी सृजन शैली भी बगैर किसी तामझाम के, सरल तकनीक लेकिन सिद्धहस्त कौशल और‌ भारतीय मूर्तिकला शैली में ही है। जो कभी भारतीय शास्त्रीय मूर्तिकला का रूप लेती है तो कभी बच्चों द्वारा खेल-खेल में गढ़ी गई मिट्टी की मूर्तियों सी। एक दृष्टि समर्थ कलाकार ही ऐसी सार्थक कलाकृतियां सृजित कर सकता है ।

भारतीय मूर्तिकला नदी घाटी सभ्यता से अत्यंत विकसित शैली में अस्तित्व में आ गई थी। यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि हजारों साल पहले से ही मनुष्य कितना कलाप्रेमी था। मिट्टी की मूर्तियां कभी बच्चों के खिलौने के रूप में, एवं धार्मिक उद्देश्य से बनाई जाती रही हैं। जो पुरातात्विक अन्वेषण से हमारे सामने आई हैं। मिट्टी की पका कर बनाई जानी वाली मूर्तियां आज भी आकर्षक,सस्ती और लोकप्रिय हैं। भारतीय त्योहारों, रीति रिवाजों में ही सही निर्मित हो रही हैं।

रजत घोष एक प्रतिभाशाली मूर्तिकार और समर्पित कलाकार हैं, मिट्टी की मूर्तियों का सृजन ही उनका जुनून है। उनके आत्मिक उत्कर्ष का बेचैन संगीत है जो उनकी मृण्मय मूर्तियों में मुखरित हो अभिव्यक्त हो रहा है।

जिसमें वे अपनी कलाकृतियों के विषय, अपनी कला यात्रा के विकास की चर्चा करते हैं। वे बताते हैं कि किस तरह बिहार की संस्कृति, यहां के रिती -रिवाज, उनसे जुड़े मिथक, यहां की लोक गाथाएं,यहां के लोकनायक आदि ने उन्हें बहुत प्रभावित किया है और उन्होंने इसी को अपने मूर्तियों का विषय बनाया। भारतीय लोककथाओं से कभी वे आल्हा- ऊदल, हीरिया खिरिया, हिरनी-बिरनी, जाटिन जैसे जन मानस में बसे चरित्रों को लेते हैं,तो कभी ऐतिहासिक लोकप्रिय, कवि विद्यापति, गायक तानसेन से लेकर, रविन्द्र नाथ ठाकुर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मूर्तिकार रामकिंकर बैज को अपने मूर्त शिल्प में रूप देते हैं। उनकी मूर्तियों में स्वतंत्रता सेनानी कुवंर सिंह, बहादुर शाह ज़फ़र, रानी रासमणि जो जमींदार परिवार से , कोलकाता, बंगाल की स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने समाज सेविका थीं। उन्होंने जनता का साथ देने के लिए अंग्रेजों से टक्कर ली।

मूर्तिकार : रजत घोष, टेराकोटा माध्यम, सौजन्य: शुभम कृष्ण क्यूरेटर (उपेन्द्र महारथी शिल्प संस्थान, पटना)

रजत घोष ने अपने साक्षात्कार में बताया कि उन्हें आदिवासी, विशेषकर संथाली चेहरा विशेष कर पसंद आए। इसके लिए 1970 के दशक में उन्होंने आदिवासी लोगों का बारीकी से अध्ययन किया।‌ भारत के मूल निवासियों के मूर्तन भाव-भंगिमा लाने के लिए उन्होंने पंद्रह दिनों तक विशेष रूप से अंडमान में प्रवास किया।‌ आदिवासियों को करीब से देखा। एक सच्चा कलाकार की ही यह विशेषता है कि दुनिया के चकाचौंध से दूर अपनी कला को उत्कृष्टतम बनाने के लिए अपने चरित्रों का गहन अध्ययन करता है। तभी रजत घोष की मूर्तियों में सरल और सहज भाव प्रकट हुए हैं, विशेषकर उनके मुखाकृति वाली मूर्तियों में, उनकी मां-बच्चे, बाउल वादक, हिंदू देवी-देवता वाली आकृतियां भी इह लोक के मानव ही लगते हैं।

उनमें परंपरागत लोक कलाकार मिट्टी के बर्तन बनाने वाले, दुर्गा की मूर्तियां बनाने वालों जैसी सुघड़ता है। ये भाव और लयात्मकता गतिशीलता भारत के गुप्त काल तक के मूर्तियों में तक ही दृष्टिगोचर होता है। एक अच्छे मूर्तिकार के समान रजत घोष मूर्ति बनाने से पहले ढेरों रेखाचित्र बनाते हैं। जो उनके निजी संग्रह में मौजूद हैं।

रजत घोष ने 1956 में भिखना पहाड़ी,पटना में रहने वाले मशहूर फोटोग्राफर मनोरंजन घोष के घर जन्म लिया था। बचपन से ही रजत घोष की मूर्तिकला में अभिरूचि थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पी एन एंग्लो स्कूल में हुई थी। कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना से उन्होंने मूर्तिकला में डिप्लोमा हासिल किया था। उस दौर में कला एवं शिल्प महाविद्यालय से डिप्लोमा कोर्स ही होते थे। रजत घोष का पारिवारिक परिवेश ही कला के प्रति समर्पित था। उनके पिता मनोरंजन घोष मशहूर फोटोग्राफर थे। उनसे‌ संबंधित कुछ लिखित सामग्री मिली दैनिक जागरण में विश्व फोटोग्राफी दिवस पर पत्रकार प्रभात रंजन द्वारा की गई रिपोर्टिंग से। जिसके अनुसार रजत घोष के पिता मनोरंजन के पूर्वज 1790 में बंगाल छोड़ कर पटना आए थे। मनोरंजन घोष को चित्रकारी में भी रूचि थी। उन्होंने पटना सिटी में अपनी माता जी के नाम से अपना स्टूडियो खोला जिसका नाम राधा स्टूडियो था। जिसे उन्होंने बाद में पटना काॅलेज के सामने‌ स्थान परिवर्तन कर के एम के घोष स्टूडियो नाम दिया। रजत घोष के अनुसार उनके पिता जी ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के साथ साथ, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, अब्दुल गफ्फार खान, अबुल कलाम के साथ ही इंदिरा गांधी के भी फोटो लिए थे। मनोरंजन घोष का स्टूडियो पटना का पहला स्टूडियो था। उन्होंने 1960 में छोटे से निगेटिव से छवि तैयार करने वाला छोटा प्रोजेक्टर तैयार किया था। मनोरंजन घोष ने फोटोग्राफी से संबंधित छोटी-छोटी जानकारियों पर लिखा भी‌ जिनमें से कुछ अभी भी रजत घोष के पास मौजूद हैं। सबसे बड़ी बात ये कि रजत घोष ने अपने पिता द्वारा संग्रहित पुराने ढंग के कैमरों के संग्रह को संभाल कर रखा है।

वर्तमान दौर में जबकि सत्ता और सरकारी तंत्र के चापलूसों और मौकापरस्त कलाकारों की जय हो रही है। उनकी भरपूर मदद की जा रही है। जिनकी कोई आनुभविक अकादमिक पृष्ठभूमि नहीं है वो विश्वविद्यालयों में विशेषज्ञ के रूप में आमन्त्रित किए जा रहे हैं। उन्हें हर तरफ से भरपूर लाभ मिल रहे हैं। ऐसे में अनुभवी, विचारवान और मौलिक शैली में काम करने वाले कलाकार बेहद अभावों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। स्वाभाविक है अगर रजत घोष एक आदर्श विचारधारा वाले सर्जक हैं तभी वे विषय के रूप में आम आदिवासी जन, स्वतंत्रता सेनानियों और लोक नायकों को ही चयनित करते हैं।

रजत घोष बेहद क्षुब्ध कलाकार हैं। अपने साक्षात्कार में उनका कहना है कि उनकी लगातार उपेक्षा की जा रही है। रजत घोष का कहना है कि अगर उन्हें मौका मिलता तो बिहार में नये कलाकार तैयार करते। छात्रों को प्रशिक्षित करते।

अंडमान निकोबार के आदिवासी श्रृंखला, मूर्तिकार: रजत घोष, सौजन्य: शुभम कृष्ण, क्यूरेटर उपेन्द्र महारथी संस्थान, पटना

रजत घोष को राष्ट्रीय और अतंराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। देश के महत्वपूर्ण संस्थानों में उनकी मूर्तियां संग्रहित हैं।

खाली तारीफ से और कभी-कभार के पुरस्कारों से किसी का पेट नहीं भरता। उनका छोटा परिवार है। जिसमें उनकी पत्नी और एक बेटी है। बिहार म्यूजियम में कला प्रदर्शनी के अंतिम दिन रजत दा से मुलाकात हुई। उनकी कोई कलाकृति बिकी नहीं थी। उनके चेहरे पर मार्मिक दुख था।

मूर्तिकार वीर को दिए साक्षात्कार में रजत घोष कहते हैं, "मेरा काम करने का जो संतुष्टि है वो हमको नहीं हुआ है। अभी हम काम करेंगे। चाहे तकलीफ़ में भी हो काम करेंगे। वर्किंग आर्टिस्ट रहेंगे।" भर आई आवाज में रजत घोष कहते हैं " चाहे भूखे रहें काम करेंगे।"

दरअसल उम्र के जिस पड़ाव पर हैं रजत घोष, वो बहुत ज्यादा तो नहीं है, लेकिन कम भी नहीं है। और उन्हें अभी तक संघर्ष करना पड़ रहा है। वे प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए कहते हैं कि, "यहां के कलाकारों को स्कालरशिप या पेंशन मिलनी चाहिए।"

(लेखिका एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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