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सामाजिक यथार्थवाद को चित्रित करने वाले चित्रकार कृष्ण खन्ना और शिल्पकार विवान सुंदरम

कृष्ण खन्ना की कई महत्वपूर्ण भारतीय कलाकार जैसे जगदीश स्वामीनाथन, सैयद हैदर रज़ा और विवान सुंदरम से घनिष्ठ मित्रता रही है।
Krishna Khanna
चित्रकार कृष्ण खन्ना, साभार: क पत्रिका

समाज और‌ यथार्थवादी ढंग से नजरिया, साथ में कलाकार के अनुभव, उसकी कल्पना में जब समावेश हो तो कलाकृति और कलाकार सार्थक ही होगा। ऐसे कलाकारों को बार-बार याद करने की जरूरत है और सामने लाने की आवश्यकता है। नहीं तो कला रूढ़िग्रस्त हो जाएगी, प्रगतिशील विचार से प्रेरित होने वाले कलाकार और कलाकृतियां हाशिए पर रखी जाएंगी। नव कलाकार दिशाहीन और भ्रमित होंगे कि क्या रचा जाए और क्यों रचा जाए, उन्हें कभी समझ नहीं आयेगा।

पराधीन भारत में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कई कला संस्थान जरूर खुले,जिनका उद्देश्य ही था कि यहां के कुशल और बेहतरीन शिल्पकारों, चाहे वो काष्ठ कला के हों,  वस्त्र निर्माण (हथकरघा कला)  या मूर्तिकला के हों, या चित्रकला को अपनी सुविधानुसार और अपने उपयोग के लिए प्रशिक्षित करें, बढ़ावा दें। क्षेत्रीय कलाओं  में, हर जगह अभी भी वह दौर लगता है हावी हो रहा है। बहरहाल कला की धारा भी नदी की ही धारा है, क्षुद्र नदियां थोड़े से अधिक जल होते ही उफनाने लगती हैं और गहरी नदी अविरल बहती रहती है। इसलिए जो भारत की परंपरा रही है, यहां भी कला‌ओं और संस्कृति का उत्थान जरूर होगा जिससे नई पीढ़ी पोषित होगी। सबसे जरूरी है नव तकनीक वाद से दूरी बनाते हुए अभिव्यक्ति के लिए जो माध्यम सुगम और सरल है उसे बढ़ावा देने की ।

चालीस से पचास के दशक में भारत में  कई  कलाकार हुए है  जिन्होंने अपनी कला अभिव्यक्ति के द्वारा सामाजिक यथार्थ को दर्शाया। कृष्ण खन्ना प्रगतिशील कलाकार समूह के एक सक्रिय और महत्वपूर्ण सदस्य रहे हैं।

प्रगतिशील आर्टिस्ट ग्रुप की (पैग) अंतिम प्रदर्शनी जो 6 दिसंबर 1952 में हुई थी उसका कैटलाग कृष्ण खन्ना ने ही बनाया था।

कृष्ण खन्ना का जन्म 5 जुलाई 1925 में लायलपुर, पंजाब में, वर्तमान में फैसलाबाद ( पाकिस्तान ) में हुआ था। बंटवारे के दौरान उन्हें मुंबई आना पड़ा। कृष्ण खन्ना ने चित्रकला की कोई विधिवत् अकादमिक शिक्षा नहीं ली। फिर भी चित्रकला पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ है।

कृष्ण खन्ना उस दौर के चित्रकार हैं, जब बम्बई के कई समकालीन कलाकारों ने (पैग) कला तकनीक में दक्षता हासिल करने से साथ साथ अपने बौद्धिक स्तर को भी प्रगतिशील बनाया। कृष्ण खन्ना ने आम लोगों के जीवन, श्रम और संघर्षों को अपनी कला अभिव्यक्ति में स्थान दिया। उनके चित्र आकृति मूलक रहे हैं और पाश्चात्य कला सौंदर्य और कला शैली से प्रेरित रहे हैं। समाज का यथार्थ उनके चित्रों में मुख्य विषय के रूप में प्रकट हुए हैं। वह यथार्थ जो उनके जीवन अनुभवों का साक्षी है। वे चित्र-विषय के चयन के दौरान गहन अध्ययन करते हैं। निरीह आम जनों के युद्ध, दंगों आदि के दौरान हुए सामूहिक मृत्यु को लेकर वे बेहद संवेदनशील रहे हैं। इसके लिए उन्होंने बांग्लादेश के युद्ध आदि का गहन अध्ययन किया था। बौद्धिक रूप से समृद्ध कलाकार के तौर पर आम जनों प्रति खासकर समाज में निचले पायदान पर रहने वाले जनों के प्रति बेरहम और उन्हें इस्तेमाल करने वाली और राजनीति को उन्होंने गहराई से महसूस किया और इस विषय पर चित्र श्रृंखला बनाई। उदाहरण स्वरूप ' द गेम ' शीर्षक चित्र में एक मेज के इर्द गिर्द एक जनरल और कुछ नेता समान लोग मशवरा कर रहे हैं और मेज के नीचे धराशाई मानव शरीर के अंग दिख रहे हैं, ऊपर बैठे लोग उससे बेखबर हैं। यह चित्र सक्षम लोगों की बेरहमी और आम लोगों की पीड़ा, उत्पीड़न और यंत्रणा को ही दर्शाता है।

कन्सर्निंग अ ड्राउंड गर्ल, तैल चित्र, वर्ष 1971. चित्रकार कृष्ण खन्ना

कृष्ण खन्ना को कविताओं से लगाव था। उन्होंने सत्तर के दशक में ब्रेख्त की कविताओं से प्रेरित होकर चित्र श्रृंखला बनाई जिसका शीर्षक था ' कन्सर्निंग ए ड्राउन्ड गर्ल‌' ।


बैंड वाला, तैल माध्यम, चित्रकार: कृष्ण खन्ना

1990 की ' बैंड वाला' चित्र श्रृंखला कृष्ण खन्ना की बेहद चर्चित रही है। इन चित्रों में भारत के मध्यम वर्गीय समाज की शादियों में होने वाले बनावटी और उत्सवी धूमधाम का माखौल तो उड़ाया ही है, साथ ही बैंड बाजे को बजाने वाले श्रमिकों की पीड़ा को भी दिखाया है। इन चित्रों में चटकीले लाल और पीले रंगों का प्रयोग प्रभावपूर्ण है।

कृष्ण खन्ना के चित्रों में मानव आकृतियां तो हैं लेकिन आकृतियों पर उनके तीव्र तूलिका घात (बोल्ड ब्रश स्ट्रोक) का प्रयोग उन्हें कई बार धूमिल कर देता है। कृष्ण खन्ना के रंग प्रयोग भारतीय लघु चित्रण शैली में प्रयुक्त चटख लाल, पीला और नीला ही है लेकिन रेखाएं धूमिल हैं। इसके बावजूद उन्हें (चित्रों को ) अमूर्त नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनमें आकृतियां विलुप्त नहीं होती हैं, धब्बों और ऊर्जावान महसूस तूलिका संचालन के रूप में मौजूद रहती हैं। कृष्ण खन्ना के चित्र अक्सरहां वृहद आकार में रहते हैं। जिसमें मोटी परतों में तैल रंगों का इस्तेमाल किया गया है। उनकी शैली अभिव्यंजनावाद के करीब होते हुए भी मौलिकता लिए हुए है।

कृष्ण खन्ना पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनी जिसका शीर्षक है, ' फार आफ्टर नून : पेंटेड सागा बाय कृष्ण खन्ना'। इस फिल्म को बनाने में परिमल आर्ट फाउंडेशन का मुख्य योगदान है। यह फिल्म एक कलाकार के कला सृजन और उसके दौरान वह किस तरह विभिन्न मन: स्थितियों से गुजरता है, उस प्रक्रिया को लोगों को समझाने के उद्देश्य से भी बनी है। इसकी स्क्रीनिंग पंजाब कला भवन में हुई थी। इसके साथ ही उनके मूल चित्रों को भी प्रदर्शित किया गया था।

सार्थक कलाकार और उसकी कला किसी सम्मान या पुरस्कार की मोहताज नहीं रहती। फिर भी यह बता देना आवश्यक है कि 1962 में कृष्ण खन्ना को रॉकफेलर फेलोशिप मिला। 1965 में इन्हें ललित कला अकादमी पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने 1990 में पद्मश्री और 2011 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा है।

वर्तमान समय में कृष्ण खन्ना गुड़गांव में निवास करते हुए सृजनरत हैं।

उनकी कई महत्वपूर्ण भारतीय कलाकार जैसे जगदीश स्वामीनाथन, सैयद हैदर रजा और विवान सुंदरम से घनिष्ठ मित्रता रही है। कृष्ण खन्ना 98 वर्ष के हो गए हैं उन्हें स्वस्थ और लंबी उम्र के लिए शुभकामनाएं।

नाव (कागज, स्टील, काष्ठ वीडियो), विवान सुंदरम, 1996, साभार: समकालीन कला पत्रिका

विवान सुंदरम

विवान सुंदरम, कृष्ण खन्ना के अभिन्न मित्र थे। 29 मार्च 2023 को उनका बीमारी से इंतकाल हो गया। भारत के महत्वपूर्ण कलाकार विवान सुंदरम ने भारतीय कला जगत में एक खाली जगह पैदा किया है। वे महान कलाकार थे।

वैसे तो कलाकार की भाषा उसकी कला अभिव्यक्ति ही है चाहे जो माध्यम या तकनीक हो। लेकिन जब वह अपनी कला शैली या कलाकृति के बारे में बात करता है तो वह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत के वरिष्ठ और संवेदनशील कलाकार विवान सुंदरम से मैं कभी नहीं मिली लेकिन उनकी महत्वपूर्ण चित्रों से मेरा साक्षात्कार अनेक बार हुआ है। ललित कला अकादमी की कला वीथिका में उनके प्रभावशाली संस्थापन कला ( इंस्टालेशन) से भी रूबरू होने का सुअवसर मिला है मुझे।

अपनी संस्थापन कला पर विवान सुंदरम के विचार महत्वपूर्ण हैं। जोकि उन्होंने समकालीन कला के लिए राजेश कुमार शुक्ला के साथ साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किया था।

"मैंने इंस्टालेशन एकाएक शुरू नहीं किया। यह एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। जब मैंने पेंटिंग करना बंद किया उस समय भारतीय और अंतरराष्ट्रीय वातावरण काफी तेजी से बदल रहा था। राजीव गांधी ने उदारीकरण  की नीति के तहत भारत में वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। भारतीय कला संसार में उस समय पेंटिंग और मूर्ति शिल्प के अलावा कुछ नया नहीं है रहा था जबकि यूरोपीय देशों में बहुत कुछ घट रहा था। उस समय मैंने कुछ नवयुवक मूर्ति शिल्पियों को लेकर एक वर्कशॉप की थी। उस वर्कशॉप में कुछ नई बात थी। मूर्तिशिल्प और पेंटिंग को लेकर जो प्रयोग मैंने शुरू किए उनसे एक अलग ही चीज का जन्म हुआ। मूर्तिशिल्प मेरे इंस्टालेशन विकास का एक महत्वपूर्ण तत्व है।' इंजन ऑयल' श्रृंखला' का जो पहला शो मैंने किया था उसमें पेंटिंग और स्कल्पचर दोनों के तत्व थे। मूर्तिशिल्प बनाने के प्रक्रिया में ही एक दिन इंस्टालेशन का जन्म हुआ। खाड़ी युद्ध सीरिज में तो मूर्तिशिल्प पूरी तरह से खुल गए। नया विस्तार सामने आया।

यह मेरा एक दायरें से दूसरे दायरे में जाना था। एक खिड़की से नक्शे की तरफ प्रस्थान था । इस परिवर्तन ने मुझे नये तत्वों का प्रयोग करने की आजादी प्रदान की। हालांकि इस समय तक मैंने इंस्टालेशन नहीं किया था। यह एक अलग तरह की रूप रचना का दौर था जहां रूप (फार्म) से मैंने जो कहना चाहा वह कहने की कोशिश की। लेकिन दूसरी दृष्टि से यह इंस्टालेशन का प्रारंभ भी था। मसलन मेरी प्रदर्शनी ' अग्नि के चिह्न ' में छोटे-छोटे बॉक्स के साथ चारकोल की ड्राइंग संयोजित की गई थी। यह संरचना कुछ-कुछ इंस्टालेशन जैसी लगती थी लेकिन वास्तव में वह मूर्तिशिल्प ही था" ।

अपने मूर्तिशिल्प और चित्रकला को संस्थापन तक ले जाने की प्रक्रिया के बारे में विवान सुंदरम बताते हैं "मैंने एक गैलरी ली 'आईफैक्स ' जिसका सब कुछ हमारे इंस्टालेशन का हिस्सा था'। इस शो का नाम था 'वन‌ ऑफ दोज फिंगर्स देन डाइड।' यह मुम्बई के दंगों में मरे हुए लोगों का याद ‌में मेमोरियल था। मैंने सोचा सबके मरने के बाद एक मेमोरियल बना दिया जाता है।....... लेकिन उन लोगों को कैसे याद रखा जाए जो बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय मरे या मुम्बई ब्लास्ट में? तो मैंने यह प्रदर्शनी की। यह सही मायने में मेरा पहला इंस्टालेशन था। इसके बाद विक्टोरिया में जो बड़ी प्रदर्शनी की वह इंस्टालेशन को पा लेने जैसे अनुभव था। उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा । (" साभार समकालीन कला, ललित कला अकादमी प्रकाशन )

आज विवान सुंदरम नहीं हैं लेकिन भारतीय दृश्य कला के क्षेत्र में उनकी वैचारिक रूप समृद्ध, अनोखी, कल्पनाशील और संवेदनशील कला अभिव्यक्तियां, उनकी खोज कला प्रेमियों और कला मर्मज्ञों के स्मृतियों में बसी रहेंगी। विवान सुंदरम को मेरी विनम्र भावभीनी श्रद्धांजलि।

(लेखिका स्वयं एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिंदी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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