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इतवार की कविता: ...तब तक मुझे पता नहीं था बन्दगी का कोई जवाब नहीं आता

आपातकाल की 47वीं बरसी है और गुजरात दंगे भी 20 साल बाद एक बार फिर याद आ गए हैं। वजह कई सारी हैं। ऐसे में मंगलेश डबराल की कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ को एक बार फिर पढ़ा जाना चाहिए।
Manglesh Dabral

आपातकाल की 47वीं बरसी है और गुजरात दंगे भी 20 साल बाद एक बार फिर आंखों के सामने हैं। वजह गुजरात की हिंसा में मारे गए सांसद एहसान जाफ़री की पत्नी ज़ाकिया जाफ़री की याचिका का सुबूत के अभाव में ख़ारिज होना और फिर तत्काल ही इस सिलसिले में सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड़ की गिरफ़्तारी इत्यादी की घटनाएं होना। ऐसे में मंगलेश डबराल की कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ बरबस ही याद आ जाता है। आइए आज इतवार की कविता में पढ़ते ही यही कविता और सोचते हैं नए भारत के बारे में।

गुजरात के मृतक का बयान

पहले भी शायद मैं थोड़ा-थोड़ा मरता था
बचपन से ही धीरे-धीरे जीता और मरता था
जीवित बचे रहने की अन्तहीन खोज ही था जीवन


जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता भी नहीं था


मैं तो रँगता था कपड़े ताने-बाने रेशे-रेशे
चौराहों पर सजे आदमक़द से भी ऊँचे फ़िल्मी क़द
मरम्मत करता था टूटी-फूटी चीज़ों की
गढ़ता था लकड़ी के रँगीन हिण्डोले और गरबा के डाण्डिये
अल्युमिनियम के तारों से छोटी-छोटी साइकिलें बनाता बच्चों के लिए


इस के बदले मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल, एक तहमद
दिन भर उसे पहनता, रात को ओढ़ लेता
आधा अपनी औरत को देता हुआ ।

मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था, पता नहीं उसका क्या हुआ
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
उनमें जो जीवन था, जो हरकत थी, वही थी उनकी कला
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो ।

और जब मुझसे पूछा गया — तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रँगरेज़, एक कारीगर, एक मिस्त्री, एक कलाकार, एक मजूर था
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के
नन्हे पहिए
तभी मुझपर गिरी आग, बरसे पत्थर
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बन्दगी का कोई जवाब नहीं आता ।

अब जबकि मैं मारा जा चुका हूँ, मिल चुका हूँ
मृतकों की मनुष्यता में, मनुष्यों से भी ज़्यादा सच्ची ज़्यादा स्पन्दित
तुम्हारी जीवित बर्बर दुनिया में न लौटने के लिए
मुझे और मत मारो और न जलाओ, न कहने के लिए
अब जबकि मैं महज़ एक मनुष्याकार हूँ, एक मिटा हुआ चेहरा, एक
मरा हुआ नाम
तुम जो कुछ हैरत और कुछ खौफ़ से देखते हो मेरी ओर
क्या पहचानने की कोशिश करते हो
क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र परिचित को या ख़ुद अपने को
अपने चहरे में लौटते देखते हो किसी चहरे को ।

-    मंगलेश डबराल

(1948-2020)

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