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भारतीय विज्ञान में वामपंथ की अनकही कहानी

मेघनाद साहा, हुसैन ज़हीर, साहब सिंह सोखे जैसे कई वैज्ञानिक न सिर्फ़ भारतीय विज्ञान के संस्थापक थे, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के क़रीबी भी थे।
भारतीय विज्ञान में वामपंथ की अनकही कहानी

भारतीय विज्ञान की कहानी आम तौर पर देश के पहले प्रधानमंत्री,जवाहरलाल नेहरू और उन वैज्ञानिक संस्थानों पर केंद्रित है,जिनका निर्माण भारत के औद्योगिकीकरण में मदद करने के लिए किया गया था। यह कहानी तबतक अधूरी है,जबतक कि इसमें भारत के मेघनाद साहा, साहिब सिंह सोखे, सैयद हुसैन ज़हीर जैसे वामपंथी वैज्ञानिकों  के साथ-साथ जेडी बर्नाल और जेबीएस हल्डाने जैसे उन अंतर्राष्ट्रीयवादी वामपंथियों के योगदान को शामिल नहीं किया जाता है, जो इस कहानी के मूल में हैं और जिनकी अहमियत बहुत ज़्यादा है।

भारत में विज्ञान उस नज़रिये से जुड़ा हुआ था कि एक आधुनिक राष्ट्र का निर्माण सिर्फ़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ज़रिये ही किया जा सकता है,जिसे नेहरू ने योजना विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अर्थव्यवस्था, और इस देश के लिए एक अहम भूमिका वाला ’वैज्ञानिक मिज़ाज कहा है। हालांकि आज यह सामान्य नज़रिया हो सकता है कि विज्ञान की योजना भी बनायी जा सकती है,लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वैज्ञानिक समुदाय में यह पूरी तरह से धर्म विरोधी नज़रिया था।

1917 की क्रांति, इसके नियोजित औद्योगिक विकास ने विज्ञान का दोहन किया था और इससे एक आधुनिक राष्ट्र का निर्माण हुआ था, लेकिन वैज्ञानिक समुदाय में यह स्थापित व्यवस्था के लिए अभिशाप था। निकोलाई बुकहरिन के नेतृत्व में लंदन में 1931 के अंतर्राष्ट्रीय इतिहास विज्ञान के सोवियत प्रतिनिधिमंडल ने इस बात की झलक दिखायी थी कि समाज में विज्ञान का एक अलग नज़रिया क्या हो सकता है। प्रतिभाशाली, युवा ब्रिटिश वैज्ञानिकों का एक समूह—जेडी बर्नाल, जेबीएस हाल्डेन, जोसेफ़ नीधम, लांसेलॉट होग्बेन यहां प्रस्तुत किये गये सोवियत पत्रों से प्रेरित थे। इसके चलते बर्नाल का मशहूर कार्य, द सोशल फंक्शन ऑफ़ साइंस सामने आया, विज्ञान और सामाजिक आंदोलन का गठन किया गया, और वैज्ञानिक श्रमिकों के रूप में वैज्ञानिकों का एकीकरण भी हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस विज्ञान आंदोलन ने वर्ल्ड फ़ेडरेशन ऑफ़ साइंटिफ़िक वर्कर्स को जन्म दिया, और यह वैश्विक शांति आंदोलन-विश्व शांति परिषद का एक महत्वपूर्ण घटक बन गया। बर्नाल और हाल्डेन का भारतीय विज्ञान के साथ नज़दीकी रिश्ता था, जबकि बाद में नीधम ने अपने चीनी सहयोगियों के साथ साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना नाम से इतिहास के 16 यादगार खंडों पर काम किया। तीनों ही ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे।

ठीक इसी तरह,कलकत्ता में मेघनाद साहा के साथ वैज्ञानिकों का एक युवा समूह 1930 के दशक में विज्ञान, योजना और सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोग में लगा हुआ था। वह साहा ही थे, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनने के बाद सुभाष चंद्र बोस को एक योजना समिति की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया था। बोस ने नेहरू के नेतृत्व में योजना समिति की स्थापना की और भारत के औद्योगिकीकरण और विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों के निर्माण की योजना की रूपरेखा तैयार की। यही योजना समिति भारत की स्वतंत्रता के बाद योजना आयोग बन गयी, और इस आयोग ने भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए आधार प्रदान किया।

सीएसआईआर (वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद) की प्रयोगशालायें, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और आईआईटी सहित शैक्षिक संस्थानों का विस्तार उसी योजना के दृष्टिकोण और आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए विज्ञान को दिये जाने वाले महत्व का एक नतीजा था।

नेहरू इस बात से अच्छी तरह अवगत थे कि अगर भारत का औद्योगिकीकरण करना है, तो देश को न सिर्फ़ अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभानी होगी, बल्कि ऐसे वैज्ञानिक संस्थानों का भी निर्माण करना होगा,जो इस तरह के उपायों में मददगार साबित हो सके। वैज्ञानिक संस्थानों के निर्माण की अपनी इस तलाश में उन्होंने कई बार बर्नाल को भारत आने के लिए न्योता भी दिया। आनुवंशिकी वैज्ञानिक, जेबीएस हल्डाने तो भारतीय नागरिकता अपनाते हुए भारत का ही होकर रह गये। हाल्डेन भारत के नौकरशाही विज्ञान प्रतिष्ठान से नहीं पार पा सके, और उन्होंने नेहरू से कहा कि सीएसआईआर का नाम बदलकर सेंटर फ़ॉर सप्रेशन ऑफ़ इंडिपेंडेंट रिसर्च यानी स्वतंत्र अनुसंधान दमन केंद्र रख दिया जाना चाहिए (एस.इरफ़ान हबीब, लिगेसी ऑफ़ द फ़्रीडम स्ट्रगल: नेहरूज़ साइंटिफ़िक एंड कल्चरल विज़न, सोशल साइंटिस्ट, मार्च-अप्रैल, 2016)।

भारत में मेघनाद साहा, हुसैन ज़हीर, साहब सिंह सोखे जैसे कई वैज्ञानिक न सिर्फ़ भारतीय विज्ञान के संस्थापक थे, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के क़रीबी भी थे। उन्हें अमेरिकी विद्वानों की उस सम्मान सूची में शामिल किया गया था,जो कुख्यात मैकार्थी युग में "फ़ेलो ट्रेवलर्स" के तौर पर एक "लोकप्रिय" शब्द बन गया था। साहा ने होमी भाभा के साथ मिलकर देश में परमाणु भौतिकी(Nuclear Physics) की नींव रखी और सीएसआईआर के महानिदेशक के रूप में हुसैन ज़हीर ने इसका महत्वपूर्ण तरीक़े से विस्तार किया।

सोखे को 1932 में हॉफ़कीन इंस्टीट्यूट के पहले भारतीय निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया। भले ही वह ब्रिटिश भारतीय सेना में एक कर्नल रहे थे, लेकिन उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की योजना समिति के स्वास्थ्य अनुभाग का नेतृत्व भी किया था। आज़ादी के बाद सोखे ने उन दो सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों की नींव रखी, जिन्होंने आत्मनिर्भरता के लिए भारत के सफ़र की शुरुआत की।ये दोनों इकाइयां थीं -इंडियन ड्रग्स एंड फ़ार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (IDPL) और हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड (HAL)।  वह विश्व शांति परिषद के एक हिस्से,अखिल भारतीय शांति परिषद के अध्यक्ष भी बने, और बाद में वर्ल्ड फ़ेडरेशन ऑफ़ साइंटिफिक वर्कर्स के भारतीय सहयोगी संस्था, एसोसिएशन ऑफ़ साइंटिफ़िक वर्कर्स ऑफ़ इंडिया (ASWI) के अध्यक्ष बने। नेहरू 1947 में इस एसोसिएशन ऑफ़ साइंटिफ़िक वर्कर्स ऑफ़ इंडिया (ASWI) के पहले अध्यक्ष थे।

जोसेफ नीधम ने कोरिया और चीन में जीवाणु युद्ध(Bacterial Warfare) की जांच के लिए उस अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक आयोग की अध्यक्षता की थी,जिसने अपनी 1952 की रिपोर्ट में अमेरिका पर युद्ध अपराधों का आरोप लगाया था। सोखे उस समिति में शामिल होने के लिए सहमत हो गये थे, लेकिन भारत सरकार ने उन्हें ऐसा नहीं करने के लिए कहा था। अमेरिका लंबे समय तक इस बात से इनकार करता रहा था कि उसने कोरिया और चीन के लोगों पर जैविक हमले किये थे। अमेरिकी अभिलेखागार अब ऐसी कई घटनाओं की पुष्टि करता है,जिसका दावा नीधम आयोग ने किया था।

लेकिन,अब सार्वजनिक हो चुकी इससे भी ज़्यादा घातक अभिलेखीय जानकारी यह है कि जापानी यूनिट 731 ने चीनी और उस युद्ध के युद्धबंदियों पर जैविक युद्धाभ्यास का इस्तेमाल किया था, जिसमें 3,000 लोग मारे गये थे। इस यूनिट के नेताओं को अमेरिका द्वारा युद्ध अपराधों के ख़िलाफ़ पूरी सुरक्षा मुहैया करायी गयी थी, ताकि वे अपने सभी "अनुसंधान" को अमेरिका के हक़ में कर सकें। उनका यही वह "शोध" है,जिसने कुख्यात जैविक हथियार अनुसंधान केंद्र, फ़ोर्ट डिट्रिक को बहुत तेज़ी से शुरू किया था।

आज़ादी के बाद भारत के विज्ञान के बुनियादी ढांचे में वामपंथियों का योगदान सिर्फ़ विज्ञान और अनुसंधान संस्थानों के विस्तार तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता के लिए भी लड़ना था। लेकिन, यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों, और कई वैज्ञानिकों और राजनीतिक नेताओं की औपनिवेशिक मानसिकता के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त लड़ाई के बिना मुमकिन नहीं था।यह लड़ाई कामयाबी के साथ लड़ी गयी और आज भी जारी है।

वामपंथ की इस बड़ी कहानी और भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी में वामपंथ के योगदान को एक लेख में समेट पाना मुमकिन नहीं है। मैं इस कहानी के कुछ पहलुओं को सामने लाने के लिए सिर्फ़ एक क्षेत्र-दवा उद्योग को सामने रखूंगा। वामपंथियों की तरफ़ से निभायी गयी उनकी पहली भूमिका वैज्ञानिक संस्थानों का निर्माण और उन्हें आत्मनिर्भरता की बड़ी लड़ाई में एकीकृत करना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण करना है। दूसरी भूमिका विज्ञान को आगे बढ़ाने में उनका योगदान है। इस आलेख को  हाल ही में लेफ़्टवर्ड प्रकाशन में प्रकाशित पॉलिटिकल जर्नी इन हेल्थ एसेज़ बाइ एंड फ़ॉर अमित सेन गुप्ता नामक लेखों की श्रृंखला में सविस्तार शामिल किया गया है।

जब अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गये, तो उस समय फ़ार्मास्युटिकल उद्योग पूरी तरह से ब्रिटिश पूंजी के हाथों में था। यह उद्योग यूके में एक्टिव फ़ार्मास्युटिकल इन्ग्रीडिएंट (API) का उत्पादन करता था और बिक्री के लिए यहां सिर्फ़ पैकेजिंग की जाती थी। भारत में छोटी-छोटी भारतीय फ़ार्मा कंपनियां थीं, इनमें वैज्ञानिक अनुसंधान की कमी थी, और ऐसे हालात में क़ानूनी एकाधिकार से कैसे लड़ा जा सकता था,जबकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां ब्रिटिश काल के भारतीय पेटेंट क़ानून का इस्तेमाल कर रही थीं।

यह एक दोहरी लड़ाई थी। पहली लड़ाई तो भारतीयों के हित के लिए पेटेंट क़ानूनों में बदलाव लाने की थी; दूसरी लड़ाई वैज्ञानिक बुनियादी ढांचे का निर्माण और स्वदेशी दवा उद्योग के लिए ज़रूरी जानकारी जुटाने की थी। हमने आलेखों की इस कड़ी में पेटेंट की कहानी और वामपंथियों की भूमिका को कवर किया है, इसलिए मैं यहां इसके वैज्ञानिक योगदान के बारे में बात करूंगा।

हफ़काइन इंस्टीट्यूट के पहले भारतीय निदेशक के रूप में सोखे ने इस संस्थान को टीके को उत्पादित करने वाले एक कुटीर उद्योग से पूरी तरह आधुनिक सुविधा संपन्न उद्योग में बदल दिया था। यही वह कोर टीम थी, जिसने बाद में सोवियत संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से भारत की अनुभवहीन मानव  संसाधन वाले सार्वजनिक क्षेत्र की इन इकाइयों-हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड या एचएएल और इंडियन ड्रग्स एंड फ़ार्मास्युटिकल लिमिटेड या आईडीपीएल को सक्षम बनाया था।

इसके बाद, हुसैन ज़हीर के नेतृत्व में बनाया गया सीएसआईआर ढांचा, सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट, लखनऊ के निदेशक,नित्यानंद, और नेशनल केमिकल लैबोरेट्रीज़, पुणे ही था, जिसने भारतीय दवा उद्योग के लिए यह संभव कर दिखाया कि भारतीय बाज़ार में वैश्विक एमएनसी के बोलबाले को ध्वस्त किया जा सकता है। और आख़िरकार इसमें पीएम भार्गव और सेंटर फ़ॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (CCMB), हैदराबाद के उनके नेतृत्व का प्रमुख योगदान है, जिसने दवाओं के क्षेत्र में भारत की जैविक क्रांति को एक मजबूत आधार दिया। आज इन्हीं भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित नींव की बदौलत भारत दुनिया में जेनेरिक दवाओं और टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है।

हम अभी भी उस जाति-आधारित ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सोपानिक आधिपत्य का सामना कर रहे हैं, जो पूरी तरह माने जाने वाले पुराने शास्त्रों और मौजूदा व्यवस्था पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता है। चाहे वह पुराना औपनिवेशिक आका रहे हों,या फिर सत्ता में मौजूद मौजूदा राजनीतिक दल,दोनों के लिए आलोचनात्मक सोच और सवाल उठाना राजद्रोह है

विज्ञान और कार्य-कारण को लोकप्रिय आंदोलनों के साथ जोड़े जाने की ज़रूरत है,क्योंकि यही विज्ञान जनांदोलन की कहानी रही है। अविवेक, घृणा और विभाजनकारी सामाजिक ताकतों के मौजूदा परिवेश में विज्ञान और कार्य-कारण भी संघर्ष के हथियार हैं।कहीं ऐसा तो नहीं कि बहुत सारे लोगों की तरह हम भी किसी और समय के लिए उस कहानी को छोड़ देंगे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Untold Story of the Left in Indian Science

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