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अतीत के आपातकाल और वर्तमान में स्वतंत्रता का ढकोसला

कोई भी निज़ाम लंबे समय तक भारतीय लोगों की आकांक्षाओं को कुचल नहीं सकता है।
modi and indira

चाहे मैं 1975 के आपातकाल को देखूं या आज के अघोषित आपातकाल को, मैं किसी पीड़ित के दृष्टिकोण से इस पर बात नहीं करना चाहता हूं। पीड़ित होना इतिहास के निर्माण में हमारी भागीदारी को छीन लेता है। यह हमें केवल इतिहास की वस्तु मात्र बना देता है। इसके बजाय, मैं इतिहास के निर्माता के रूप में लोगों की सहूलियत के बिंदु को मानना चाहूंगा। हाँ, आज सरकार के पास ऐसी शक्तियाँ हैं जो व्यक्तियों और संगठनों पर भारी पड़ती हैं। लेकिन यह लोग और उनके काम हैं, जो अंततः इतिहास का निर्धारण करते हैं - जैसा कि हम चाहते हैं या जब हम चाहते हैं, लेकिन उन तरीकों से नहीं जिनकी न तो लोगों को और न ही उनके शासकों को आशा होती है।

इंदिरा गांधी के आपातकाल को अंततः 1977 के चुनाव में एक तरह से समाप्त कर दिया गया था, जिसकी विपक्षी दलों को भी उम्मीद नहीं थी। आपातकाल के बारे में लोगों की भावनाओं से अनभिज्ञ एक झिझकने वाला विपक्ष सत्ता में आ गया, ठीक उसी तरह जैसे हैरान कांग्रेस का सफाया हो गया था। यदि आपातकाल के दौरान हुकूमत मंच के प्रमुख अभिनेता के तौर पर मौजूद थी, तो लोगों ने उसे बर्खास्त कर उस मंच पर कब्ज़ा कर लिया था।

लोगों की चुप्पी को सहमति न समझें: यह हमारी पीढ़ी के लिए आपातकाल का महत्वपूर्ण सबक था। श्रीमती गांधी और कांग्रेस पार्टी ने मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सेक्युर्टी एक्ट (मिसा) और डिफेंस ऑफ इंडिया रूल के माध्यम से लोगों को चुप कराने को सहमति समझ लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने, अपनी शर्मिंदगी भरे कदम में, एडीएम जबलपुर के फैसले में स्वीकार किया था - मैं उस मामले में एक याचिकाकर्ता था, जिसके बारे में एनएम घटाटे ने सुप्रीम कोर्ट में मेरी ओर से दलील दी थी - कि हममें से जिन लोगों को एमआईएसए के तहत हिरासत में लिया गया था, उन्हें जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार था लेकिन न्याय प्रणाली के माध्यम से इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। तत्कालीन अटॉर्नी-जनरल निरेन डे के वे डरावने शब्द, जिसमें उन्होने कहा था कि अगर आपातकाल के दौरान एक कांस्टेबल भी किसी को गोली मार देता है, तो लोगों के पास बचने का कोई रास्ता नहीं है।

आपातकाल के बजाय, भारतीय जनता पार्टी ने आज, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन अधिनियम या यूएपीए और धन शोधन निवारण अधिनियम या पीएमएलए जैसे कई कानूनों को हथियार बना लिया है। दोनों मामलों में ही जमानत लेना कठिन है। कथित तौर पर अलग-अलग उद्देश्यों से बनाए गए इन कठोर कानूनों को वर्तमान सरकार किसी भी उस व्यक्ति को डराने, परेशान करने या चुप कराने के लिए इस्तेमाल कर रही है जिसे वह पसंद नहीं करती है। इस पुनर्निर्मित नीति के हथियार न केवल पुलिस है बल्कि प्रवर्तन निदेशालय और राज्य का पुराना हथियार, आयकर विभाग भी हैं। प्रेस को सीधे तौर पर बंद नहीं किया गया है, जैसा कि आपातकाल के दौरान किया गया था। लेकिन ज़बरदस्ती के विभिन्न हथियार पूरी तरह से चलन में हैं: समाचार संगठनों पर छापे मारे जाते हैं, उनके खिलाफ फ़र्जी मुक़दमे दर्ज़ किए जाते हैं, विज्ञापन रद्द कर दिए जाते हैं, आदि।

हुक्‍म न मानने वाले डिजिटल मीडिया को काबू में करने के लिए नए कानून बनाए जा रहे हैं। सूचना और प्रसारण मंत्रालय एक "तथ्य-जांच" विभाग की स्थापना करेगा, जो सत्य के ऑरवेलियन मंत्रालय का एक संस्करण होगा और जिसके आदेश "अंतिम" या सब पर मान्य होंगे।

हालाँकि हुकूमत का इन क़ानूनों ज़रिए शस्त्रीकरण कई मायनों में आपातकालीन युग के समान है, लेकिन इसमें असमानताएँ भी हैं। आज की हालात में कानून की अदालतें न्यायिक सुरक्षा का के छोटा सा रास्ता प्रदान करती हैं, जो कि पहले के आपातकाल के दौरान मौजूद नहीं था। लेकिन संविधान पर विभिन्न रूपों में हमला जारी है। नागरिकता कानून, धर्मांतरण विरोधी कानून, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून और कई राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून इन हमलों के कुछ उदाहरण हैं। इसके साथ ही, उनके दायरे का विस्तार करने के लिए कई कानूनों के नियमों को बदलना और धन विधेयक के रूप में नए प्रावधानों को शामिल करना हुकूमत की शक्ति का विस्तार करने की एक नियमित रणनीति बन गई है।

हालाँकि अदालतों ने नागरिकों को कुछ राहत प्रदान की है, लेकिन वे भाजपा सरकार की मूल परियोजना का मुकाबला करने से कतरा रहे हैं - मौजूदा कानूनी संरचना का इस्तेमाल करना, यहाँ और वहाँ भाषा को बदलना, राज्य के धर्मनिरपेक्ष मूल ढांचे को सांप्रदायिक ढांचे में बदलना है जो मुसलमान और ईसाई को दूसरे दर्जे के नागरिक बनाता है। 

हुकूमत के शस्त्रीकरण में गायों की "रक्षा" के नाम पर गठित विभिन्न सशस्त्र सेनाएं और दल शामिल हैं। ऐसी कई ब्रिगेडों के स्थानीय पुलिस के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और उन्हें गौ संरक्षण कोष से वित्त पोषित किया जाता है। उदाहरण के लिए, हरियाणा के जुनैद और नासिर, उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक और राजस्थान के अलवर में पहलू खान की मॉब लिंचिंग, गौरक्षकों के साथ हुकूमत की मिलीभगत को बयान करती है।

फिर ऐसे कई भक्त हैं जिनकी भावनाएं इतनी आसानी से आहत हो जाती हैं कि पुलिस को इन संवेदनशील आत्माओं को शांत करने के लिए तुरंत एफआईआर दर्ज करनी पड़ती है और आपराधिक जांच शुरू करनी पड़ती है। फिर सोशल मीडिया पर उनके महान नेता या उनकी पार्टी की आलोचना करने की हिम्मत करने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ उनके निंदनीय हमलों, उनके खिलाफ़ हिंसा का आह्वान और अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ उनके नफरत भरे भाषणों को दिल पर न लें। 

हम लुईस कैरोल की लुकिंग-ग्लास दुनिया में रह रहे हैं, जहां सच झूठ है, और झूठ सच है - धर्मनिरपेक्ष विचार अब सिकुलर हो गया है, और कुत्सित विचार "नया धर्मनिरपेक्ष" हैं। इस विचार के लिए, लोगों ने आज़ादी की आंदोलन की लड़ाई के ज़रिए भारत को आज़ादी नहीं दिलाई थी; जिस विचार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, अमृत काल के दौरान, नए संसद भवन में तिरुववदुथुराई अधीनम के पुजारियों के अमद्यम से अभिषेक कराने के बाद राजदंड (सेनगोल) को स्थापित किया।

अमृत काल की परिकल्पना और मोदी को महान नेता के रूप में स्थापित करने के पीछे उस धर्मनिरपेक्ष राज्य को बदलने की वास्तविकता है जिसकी घोषणा भारत का संविधान "हम लोग" के माध्यम से करता है। यह भारत के लोग ही हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई के ज़रिए देश को आज़ाद कराया और डॉ. बीआर अंबेडकर ने संविधान रचा था। यह "हम लोग" की इच्छा, उनकी आकांक्षाओं और स्वतंत्र भारत में विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और समानता की इच्छा का प्रतीक है - ऐसा देश नहीं जहां स्वतंत्रता का मतलब ब्रिटिश राज से अरबपति राज में बदलाव करना हो। 

श्रीमती गांधी जानती थीं कि उन्हें वास्तव में स्वतंत्र चुनाव करकार आम लोगों से समर्थन जुटाने की जरूरत है। वर्तमान सरकार का मानना है कि सोशल मीडिया सहित मीडिया पर नियंत्रण के मामध्यम से आज़ादी का मुखौटा ही काफी है। हां, कुछ राज्यों में थोड़े समय के लिए ऐसा करना संभव हो सकता है, अक्सर पड़ोसियों के बीच युद्ध जैसी स्थिति पैदा करके और फिर लोगों से अपील करना कि वे महान नेता के पीछे खड़े हो जाएँ। लेकिन लंबे समय तक ऐसा नहीं चल सकता है, और पूरे देश में भी नहीं चल सकता है। जैसा कि अंग्रेजी कवि पीबी शेली की अमर पंक्तियाँ कहती हैं: "आप अनेक हो, और वे चंद हैं"।

यह लेख पीयूसीएल के आगामी विशेष बुलेटिन और वेब फीचर, "वर्तमान के रूप में अतीत: आपातकाल को याद रखना और एक अघोषित आपातकाल में जीना" के लिए लिखा गया था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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