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सावरकर के पैदा होने से बहुत पहले ही 1857 की जंग को लिख दिया गया था- राष्ट्रीय क्रांति

लंदन में बैठकर अमेरिकी अख़बारों के लिए लिखे लेखों में एक "पत्रकार'' ने उसे न सिर्फ भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम बताया था, बल्कि वे कारक भी बता दिये थे जिनके चलते  अब हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज का ख़त्म होना तय था।
History of savarkar

इतिहास को 'तड़ीपार' करने की तैयारी ! 

जब 1857 की जंग जारी थी, उसी वक़्त लंदन में बैठकर अमेरिकी अख़बारों के लिए लिखे लेखों में एक "पत्रकार'' ने उसे न सिर्फ भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम बताया था, बल्कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में रखी अनेक रिपोर्ट और वाइसरायों के जरिये इंग्लैंड भेजे जा रहे डिस्पेचों के आधार पर वे कारण भी गिनाये थे जिनकी वजह से यह संग्राम शुरू हुआ था और वे कारक भी बता दिये थे जिनके चलते  अब हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज का ख़त्म होना तय था।

इस पत्रकार का नाम था ; कार्ल मार्क्स !!

गुरुवार, 17 अक्टूबर को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शीर्ष नेतृत्व में - जिसकी संख्या जहां समाप्त हो जाती है उस - दो नंबरी श्रेणीक्रम पर आसीन अमित शाह का दावा पढ़ा तो 1857 के महासमर से जुड़ी अनेक बातों के साथ यह भी याद आया।
देश के गृह मंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का कहना है कि सावरकर न होते तो 1857 का स्वतंत्रता संग्राम इतिहास में दर्ज न हो पाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में उन्होंने कहा कि वक्त आ गया है जब इतिहास नए नज़रिये से लिखा जाए।

ऐसा नहीं है कि उन्हें नहीं पता कि सावरकर के जन्म (1883) लेने के भी 26 साल पहले जुलाई 1857 और अक्टूबर 1858 के बीच कार्ल  मार्क्स ने 'न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून' को भेजे अपने 37 और इस बगावत को कुचल दिये जाने के बाद के 5 डिस्पेचेज़ में इस महासमर का जो विवरण दिया है, मूल्यांकन किया है,  वह इतिहास मे दर्ज किसी आँखों देखे हाल से कम नहीं है।  

मार्क्स पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 31 जुलाई 1857 के अपने डिस्पेच में कहा कि " सरकारी प्रवक्ता इसे अराजकता वाला गदर गलत कहते हैं, यह सिपाहियों का गदर (म्यूटिनी) नहीं है, सच  यह है कि यह एक राष्ट्रीय क्रांति; नेशनल रिवोल्ट है । "
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इसके पहले जून 1857 मे अपने लेख मे एक महीने पहले शुरू हुयी इस जंग या बगावत पर मार्क्स की टिप्पणी थी कि "सिपाहियों के जरिये अंग्रेज़ो की भारतीय सेना ही क्रांति का जरिया बनने जा रही है ।'' इसमें उन्होंने किसानों की बढ़ी चढ़ी भूमिका का भी उल्लेख किया है।

30 जून 1857 की अपनी टिप्पणी मे मार्क्स इस क्रांति के एक और गुणात्मक रूप से महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित करते है जब वे कहते हैं कि "इस बग़ावत की ख़ास बात यह है कि इसने हिन्दू और मुसलमानों के बीच के वैमनस्य को खत्म कर दूरी को पाट दिया है ।" 

वे लंदन के अखबारों मे चलाये जा रहे उस झूठे प्रचार का भी खंडन करते हैं जिसमें दावा किया गया था कि "हिन्दू इस क्रांतिके साथ नहीं है।"  वे इसे सरासर कल्पित बताते हैं और अवध से लेकर मेरठ, झांसी से ग्वालियर तक के उदाहरणों से अपनी बात की ताईद करते हैं।
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लंदन और ब्रिटेन  के सारे अखबार उन दिनों इस बगावत के दौरान अंग्रेज़ों और उनकी महिलाओं तथा परिवारों के साथ की  जा रही कथित "क्रूरता और जघन्य हिंसा" की  अतिरंजित खबरें छापकर राष्ट्र उन्माद फैलाने मे लीन थे। ठीक उसी बीच ठेठ लंदन मे बैठकर मार्क्स इन अतिरंजित खबरों का न केवल खंडन करते हैं बल्कि खुद ब्रिटिश फौजों द्वारा की जा रही बर्बरता को भी विश्व समुदाय और ब्रिटिश जनता के सामने पूरे साहस के साथ उजागर करते हैं।

दूर लंदन मे बैठे मार्क्स न केवल भारत के घटनाक्रम को गहराई से देख रहे थे बल्कि उसके सारे आयामों की तथ्यों और आंकड़ों के साथ जांच परख कर इस बगावत द्वारा भारतीय समाज पर छोड़ी जा रही गुणात्मक छाप को भी जांच और आंक रहे थे।

इस क्रांति को कुचल दिये जाने के बाद के लेखों और एंगेल्स तथा लासाल के साथ अपने पत्राचार की 13 चिट्ठियों मे मार्क्स दर्ज करते हैं कि "प्रतिहिंसा में उन्मादी अंग्रेज़ फौजें जो कर रही हैं उससे भी कहीं ज्यादा जुल्म सरकार टेक्सों मे जानलेवा बढ़ोत्तरी करके कर रही हैं। इन सबका नतीजा सिर्फ एक ही निकलेगा और वह यह कि विक्टोरिया को अपना बिस्तरा गोल करके वापस लौटना ही होगा। क्रांतिभले विफल हो गई है, भारत को अब ज्यादा दिन गुलाम बनाना असंभव काम है ।"

ख़ैर, चलिये थोड़ी देर के लिए अमित शाह के इतिहास को ही इतिहास मान लेते हैं, मगर इसमे भी पेच हैं। आज़ादी की इस पहली लड़ाई की जो दो विशिष्ट उपलब्धि थी उसके बारे में पता नहीं इस इतिहासविहीन, ज्ञानवंचित, सूचना-कुपोषित  मण्डली को कुछ पता भी है कि नहीं। पहली तो यह कि 1857 के इस महासमर में रानी झांसी, तात्या टोपे, मंगल पांडे से लेकर गंगू मेहतर तक ने अपने प्राण जिस  मकसद के लिए दिये थे उसकी तार्किक परिणिती दिल्ली सल्तनत के तख़्त पर बहादुर शाह ज़फ़र की बादशाहत बहाल करने के  रूप मे होनी थी! क्या यह उम्मीद करें कि सावरकर इस मकसद के साथ थे !!  

दूसरी अनूठी बात थी दिल्ली से अंग्रेजों को भगाने के बाद राज चलाने के लिए लागू की गई शासन प्रणाली। बादशाह तख़्त पर ही बैठते थे। असली राज चलाने के लिए एक साझी, सेक्युलर, मेहनतकश लोगों की परिषद बनाई गयी थी। इसमें हिन्दू मुसलमानों का ही नहीं सिपाहियों और किसानों का भी बराबरी का प्रतिनिधित्व रखा गया था। धर्म मजहब की आड़ मे होने वाली बेहूदगी और उग्रता को दबाने के प्रबंध किए गए थे।  यही काउंसिल थी जो सारे फ़ैसले लेती थी और बहादुर शाह ज़फ़र से उन्हीं पर अपनी सील मोहर लगाने के लिए कहती थी। सावरकर इस तरह की आज़ादी के पक्षधर थे क्या ?

इतिहास बनाने वाले कम होते हैं, लिखने वाले उनसे कुछ अधिक, पढ़ने वाले कुछ और अधिक ; किन्तु इतिहास गवाह है कि जिनका इतिहास माफ़ीख़ोरी का रहा वे कभी इतिहास नहीं लिख पाये, बनाना तो दूर की बात। मगर फिर भी इस तरह की जानबूझकर कही जा रही झूठी बातों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। एक तो इसलिए कि गोयबल्स को आराध्य  मानने वाली इस मंडली को विश्वास है कि उनके द्वारा एक झूठ को हज़ार बार दोहराने से वह सच बन जाएगा। दूसरा इसलिए भी कि, जैसा नाजी यातनागृह  मे बंद और बाद में महज 38 वर्ष की आयु मे हिटलर की फासी हुकूमत द्वारा गोली से भून दिये गए नाजी विरोधी धर्मशास्त्री  दिएत्रिच बोनहाइफर (Dietrich Bonhoeffer) ने कहा है कि "कपट और द्वेष से ज्यादा ख़तरनाक मूढ़ता होती है, क्योंकि कपट का अनुमान लगाकर आप उसका सामना करने की तैयारी कर भी सकते हैं। मूढ़ता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।" आइंस्टीन तक कह गए हैं कि "ब्रह्मांड की भी अंतत: एक सीमा होगी, किन्तु मूर्खता असीम है।" ख़ासतौर से तब और जब वह धूर्तता के तड़के के साथ हो।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।) 

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