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विश्वविद्यालय परिसरों में अब लोकतंत्र की जगह नहीं

यह साफ़ है कि परिसरों को जिस तरह RSS की विचारधारा का बंधक बनाया जा रहा है, शिक्षा का जो मूल लक्ष्य है- स्वतंत्र और आलोचनात्मक सोच-उससे हम तेजी से दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि वह अपने सारतत्व में इसकी anti-thesis है।
central University

मोदी जी की डिग्री पर सरगर्म विवाद से अधिक महत्वपूर्ण सवाल आज यह है कि उनकी सरकार जिस संघी विचारधारा द्वारा संचालित है, उसका शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण क्या है ? वह परिसर-लोकतंत्र को, शैक्षणिक संस्थानों की autonomy को, academic freedom को कैसे देखती है ?

क्या यह अनायास है कि देश के तमाम विश्वविद्यालय परिसरों में शिक्षा-विरोधी, छात्र-विरोधी अभियान आज सुर्खियों में है। पिछले कुछ हफ्तों के घटनाक्रम से साफ है कि भाजपा राज में परिसरों को शिक्षा और लोकतंत्र की कब्रगाह में तब्दील कर दिया गया है।

हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में BBC की post-गोधरा हिंसा पर बनी फ़िल्म दिखाने पर छात्रों को विश्वविद्यालय से निकाल बाहर किया गया, लोकतांत्रिक ढंग से इसका विरोध करने पर छात्रों पर जुल्म ढाया जा रहा है।

इलाहाबाद विवि के पूरे छात्रावास ( मुस्लिम बोर्डिंग हाउस ) को सील कर दिया गया और परीक्षाओं के बीच छात्रों को सड़क पर फेंक दिया गया, क्योंकि किसी हत्यारोपी का वहां किसी कमरे से सम्बंध था। हद तो तब हो गयी जब इसी की आड़ में विश्वविद्यालय के Science Faculty के गेट को कांक्रीट की दीवार से बंद कर उसे विश्वविद्यालय रोड और कला संकाय से काट दिया गया। लगभग डेढ़ सदी पुराने विश्वविद्यालय ने यह तुगलकी हरकत पहली बार देखी है मोदी-योगी राज में !

रामनवमी के दिन देश में अनेक जगहों पर दंगाई जुलूस निकाले गए, इसी क्रम में अनेक विश्वविद्यालय परिसरों में भी सम्भवतः पहली बार इन्हें आयोजित किया गया। अंबेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ में ABVP के लोगों ने जुलूस निकाला, छात्रों का आरोप है कि इसमें तमाम बाहरी तत्व थे। जब Dalit Students Union के छात्र कुलपति कार्यालय पर विरोध दर्ज कराने के लिए जमा हुए कि परिसर एक सेकुलर स्पेस है यहां धार्मिक जुलूस की इजाजत कैसे दी गयी, जिसमें तमाम out-siders भी शामिल हैं और साम्प्रदायिक-राजनीतिक नारे लग रहे हैं, तब उनके साथ मारपीट की गई, सुरक्षाकर्मी और प्रशासन मूकदर्शक बना रहा।

महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय वर्धा में दलित छात्र रजनीश अंबेडकर अपनी रिसर्च थीसिस जमा किये जाने के बाद गाइड बदले जाने और मूल्यांकन न करने व डिग्री अवार्ड न किये जाने के अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ कई दिनों से सत्याग्रह पर बैठे हैं, आरोप है कि रामनवमी के दिन जुलूस निकालकर ABVP के लोगों ने वहां उनके समर्थन में बैठे छात्रों पर हमला कर दिया जिससे गम्भीर रूप से घायल AISA नेता अन्तस् सर्वानन्द तथा विवेक मिश्रा अस्पताल में जीवन और मौत से जूझ रहे हैं।

28 मार्च को दिल्ली विश्वविद्यालय के महिला IP कॉलेज के फेस्ट के दौरान गुंडे-लम्पट दीवारों पर चढ़ गए और अश्लील नारे लगाने लगे, " मिरांडा, IP दोनों हमारा है। " दरअसल पिछले अक्टूबर में मिरांडा हाउस में भी यही हुआ था। AISA, SFI ने जब अगले दिन इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो पुलिस ने उनके साथ निर्ममता पूर्वक मारपीट की और हिरासत में ले लिया। इसमें कई छात्राओं को चोट आई। छात्राओं ने आरोप लगाया कि परिसर के अंदर लम्पट हमें harass करते हैं और जब हम बाहर अपना विरोध दर्ज कराने निकलते हैं तो पुलिस वही काम करती है।

यह स्वागत योग्य है कि छात्राएं इस regimentation को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और उसके खिलाफ बेखौफ प्रतिरोध में उतर रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में सैकड़ों छात्राएं अपने छात्रावासों और PG पर थोपी गए नई कर्फ्यू timing के खिलाफ आधीरात को सड़क पर निकल पड़ीं। भोर 3 बजे तक उनका विरोध मार्च, प्रतिवाद सभा चलती रही। उनका नारा था, " Reclaim the streets at night. "

रामनवमी की हिंसा के क्रम में दंगाइयों ने बिहार शरीफ के ऐतिहासिक अज़ीज़िया मदरसे में आग लगा दी और एक सदी पुराने पुस्तकालय की साढ़े चार हजार से ऊपर किताबें जलाकर खाक कर दिया। उन्होंने दुनिया को उसी नालंदा में हुए अग्निकांड की याद दिला दी, जब कभी ऐसे ही बर्बरों ने हमारे प्राचीनतम विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया था।

हमारे सर्वप्रमुख विश्वविद्यालयों JNU, जामिया, AMU, BHU में तो संघी एजेंडा लागू करने पर आमादा निरंकुश शासन-प्रशासन का कहर पहले से जारी ही है।

आज के Indian Express की खबर के अनुसार कक्षा 6 से 12 तक की NCERT की किताबों से गाँधी जी की उनके "हिन्दू-मुस्लिम एकता की पैरवी " के कारण हत्या, हत्या के बाद RSS जैसे संगठनों पर प्रतिबंध जैसी बातों को हटा दिया गया है।

नए सत्र के लिए UP बोर्ड तथा CBSE की NCERT किताबों में बदलाव करते हुए 10वीं की किताब Democratic Politics 2 से "लोकतंत्र और विविधता ", " लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन ", " लोकतंत्र की चुनौतियां " जैसे अध्याय हटा दिये गए हैं। 12वीं की किताब " Politics in India since Independence " से Rise of popular movements, Era of one party dominance तथा Themes in world history से " औद्योगिक क्रांति " और मुग़ल दरबारों का इतिहास हटा दिया गया है।

सिलेबस से फ़िराक़ गोरखपुरी और निराला को भी हटा दिया गया है। सुनते हैं गुलशन नन्दा, कुशवाहा कांत, ओमप्रकाश शर्मा औऱ वेदप्रकाश शर्मा आदि को " लोकप्रिय साहित्य " के नाम पर पाठ्यक्रमों में जगह दी जा रही है। NEP के तहत दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर ने इसकी पहल की है।

प्रगतिशील, लोकतांत्रिक scientific knowledge से देश की भावी पीढ़ी को वंचित करने, मुगल इतिहास जैसे विषयों को न पढ़ाकर उनके अंदर खंडित/विकृत इतिहास बोध विकसित करने और लोकप्रिय के नाम पर सस्ता pulp literature पढ़ाने का क्या उद्देश्य है और इससे कैसे नागरिक तैयार होंगे, यह स्वतः ही स्पष्ट है।

एक ओर विदेशी विश्वविद्यालय आ रहे हैं, दूसरी ओर गरीबों, हाशिये के तबकों के लिए स्कूल बंद करके, उनकी छात्रवृत्ति बंद करके, बेहद महंगी बनाकर शिक्षा के दरवाजे बंद किये जा रहे हैं। Quality education तो खैर उनके लिए सपना ही है।

मोदी-राज में शिक्षा व्यवस्था की तबाही से चिंतित सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. रोमिला थापर ने हाल ही में देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद की बायोग्राफी के विमोचन के अवसर पर कहा, " भारत आज संकट का सामना कर रहा है क्योंकि यहां साक्षरता को ही शिक्षा मान लिया गया है। पर, शिक्षा महज अक्षर ज्ञान का नाम नहीं है, बल्कि यह स्वतन्त्र ढंग से तथा आलोचनात्मक दृष्टि से सोच पाने की क्षमता का नाम है। मैं इसे जोर देकर रेखांकित करना चाहती हूं क्योंकि मेरे विचार में आज यह बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।"

" मौलाना आज़ाद का तर्क था कि नागरिक अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकते जब तक कि वे शिक्षित न हों। सोच सकने की क्षमता विकसित करने का नाम है शिक्षा। आपको बच्चे को यह सिखाना है कि सोचना कैसे है। बच्चे को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वह सवाल पूछे। सवाल तभी पूछे जा सकते हैं जब आपको स्वतंत्रतापूर्वक सोचने दिया जाए। "

प्रो. रोमिला थापर की कसौटी पर परखा जाय तो शिक्षा की मौजूदा तबाही का पूरा रहस्य खुल जाता है। दरअसल, जब सत्ता शीर्ष पर ऐसी ताकतें काबिज हों जिनका पूरा मिशन ही है कि लोग स्वतंत्र ढंग से सोचने न पाएं, ताकि झूठा मनगढ़ंत नैरेटिव उनके गले उतारा जा सके, तो फिर शिक्षा का आखिर कैसे विकास होगा ? यह तो शिक्षा के ध्वंस का रास्ता है।

सच यह है कि मीडिया की तरह ही शिक्षण संस्थानों को भी आज झूठ गढ़ने और उसे disseminate करने, उसे सच बनाकर स्थापित करने के काम में पूरी तरह झोंक दिया गया है। आज सम्पूर्ण शिक्षा- क्षेत्र को फासीवादी विचारधारा और राजनीति का आखेट-स्थल बना दिया गया है। शिक्षा को विराट भक्तमंडली तैयार करने का साधन बना दिया गया है। इसे फौरी तौर पर सारे संस्थानों पर संघी कब्जे ( संस्थानों में चहेते प्रशासनिक प्रमुखों, कुलपति-अध्यापकों की नियुक्ति, नंगे सरकारी-पुलसिया हस्तक्षेप, संघी संगठनों को अपने हमलावर लोकतंत्रविरोधी, साम्प्रदयिक अभियानों की खुलीछूट ) तथा दूरगामी दृष्टि से नई " राष्ट्रीय शिक्षा नीति " ( NEP ) के माध्यम से संस्थाबद्ध किया जा रहा है।

यह साफ है कि परिसरों को जिस तरह RSS की विचारधारा का बंधक बनाया जा रहा है, शिक्षा का जो मूल लक्ष्य है- स्वतंत्र और आलोचनात्मक सोच-उससे हम तेजी से दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि वह अपने सारतत्व में इसकी anti-thesis है।

आज न सिर्फ देश की युवा पीढ़ी का शिक्षा, रोजगार, पूरा भविष्य दांव पर है, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में हमारे गणतंत्र के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है।

आज समय की मांग है कि, बहुत देर हो जाय इसके पहले, सभी छात्र-युवा संगठन/आंदोलन, शैक्षणिक समुदाय, नागरिक समाज इस देश की युवा पीढी के भविष्य को बचाने के लिए-शिक्षा और रोजगार-की गारंटी के लिए तथा देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक मंच पर आएं और इसे 2024 के चुनावों का निर्णायक एजेंडा बना दें।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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