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कम टेस्ट से कोरोना की रोकथाम का नायाब तरीक़ा

कोरोना की अधिक पॉजिटिव रिपोर्ट देना वैसे भी राष्ट्र विरोधी कार्य ही है। 
covid-19
प्रतीकात्मक तस्वीर

जब से कोरोना का प्रकोप विश्व में होना शुरू हुआ है, सारा विश्व उससे निजात पाने में लगा है। सारे विश्व में वैज्ञानिक, चिकित्सक और महामारीविद कोरोना का इलाज ढूँँढने, कोरोना के खिलाफ वैक्सीन बनाने में लगे हुए हैं। हम भी अपने यहाँँ कोरोना को कम करने में लगे हैं।

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जब कोरोना आया ही आया था तो हमने उसे नियंत्रित करने के लिए बहुत सारे काम किये। सबसे पहले तो जनता कर्फ्यू के दिन थाली बजाई, परात बजाई। इसका वैज्ञानिक भी आधार था। एक यूनिवर्सिटी है, गलगोटिया यूनिवर्सिटी, उसके वैज्ञानिकों ने हाल में ही यह खोज की है कि थाली परात पीटने से कोरोना के वायरस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वहाँ के वैज्ञानिकों ने यह खोज जरा देर में की। समय पर कर लेते तो शायद कोरोना का वायरस उस खोज को पढ़ हमारे देश से भाग जाता या फिर ऐसे वैज्ञानिकों की सोच पर सिर पटक पटक कर आत्महत्या कर लेता।

काम हमने और भी किये। इक्कीस दिन में महाभारत का आधूनिक युद्ध जीतने का दावा कर इक्कीस दिन का पूर्ण लॉकडाउन लगाया। युद्ध जीत नहीं पाये तो लॉकडाउन बढा़ते रहे। फिर हमने दिये बत्ती का खेल खेला। नवमी के दिन, रात्रि नौ बजे, नौ मिनट के लिए बत्ती गुल कर दिये जलाये। उसका भी बहुत बड़ा ज्योतिषीय महत्व बताया गया। उसके बाद फूल बरसा कर डॉक्टरों, नर्सों, पुलिस वालों, और सफाई कर्मचारियों को कोरोना वारियर्स बताया। और जब इससे भी बात नहीं बनी तो उन्हें पीट भी दिया। यहां तक कि एक पुलिस वाले का हाथ भी काट डाला। पर यह कमीना कोरोना किसी भी तरह से कम नहीं हुआ। 

उधर मीडिया ने भी प्रचार शुरू कर दिया। हमें बताया गया कि भारत में तो जो कोरोना वायरस की जो स्ट्रेन एक्टिव है वह पंथ निर्पेक्ष नहीं है। मीडिया के बहुत बड़े हिस्से ने समझाया कि अगर मरकज़ वालों का धर्म हमारे यहां नहीं होता तो कोरोना दो चार सौ लोगों को हो भारत से विदा हो जाता। साथ ही साथ मीडिया ने यह भी बताया गया कि किस प्रकार से पूरा विश्व कोरोना से लडऩे के मोदी जी के तरीकों की प्रशंसा कर रहा है। इस पर भी कोरोना को जरा सी भी शर्म नहीं आई कि भारत से चला ही जाये। दिन रात बढ़ता ही गया।

जब कोरोना किसी भी तरह से समाप्त नहीं हो रहा था तो कोरोना को समाप्त करने का तो नहीं लेकिन कम करने का हमने एक ऐसा नायाब तरीका ढूँढ लिया है कि पूरा संसार सोच में पड़ जायेगा कि यह तरीका उन्हें क्यों नहीं सूझा। सारे देश इस सिद्धांत पर चलते रहे कि मरीज ढूँढ़ो, क्वारंटाइन  करो, आइसोलेट करो, कांटैक्ट ढूँढ़ो और कांटैक्ट का भी टैस्ट करो, इलाज करो। भारत ने भी शुरू में देखा देखी यही किया। ट्रेस, टैस्ट एंड ट्रीट। पर इस तरीक़े में मरीज बहुत मिलते हैं। बडी़ भद्द पिटती है सरकार की कि सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है।

तो अब सरकार को लगा कि काम कर के तो बहुत देख लिया अब काम न करके देखा जाये। तो सरकार ने एक बहुत ही अच्छा और असरदार तरीका ढूँढ लिया है। इस तरीक़े से न तो मरीज अधिक मिलते हैं और न ही सरकारें असफल सिद्ध होती हैं। यह तरीका है कि मरीजों का टेस्ट कम से कम किया जायें। यानी काम कम करें। जब आप टेस्ट ही नहीं करेंगे तो बीमार कहाँँ से निकलेंगे। सरकारें भी श्रेय ले सकेंगी कि उन्होंने बीमारों की संख्या कम रख बीमारी को कंट्रोल करने में सफलता हासिल कर ली है।

पर यह इतना आसान भी नहीं है जितना कहने सुनने में लग रहा है। कम टेस्ट करने के लिए अधिक टेस्ट करने से अधिक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ज्यादा टेस्ट करने में क्या मुश्किल है। जिसमें भी लक्षण दिखें उनका टेस्ट करो। जो बीमार आयें, उनके कांटैक्ट का टेस्ट करो। जो करवाना चाहे, उसका टेस्ट करो। यानी सबका टेस्ट करो।

पर टेस्ट कम करने हों तो बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। सबसे पहले तो डॉक्टरों पर ही अंकुश लगाना पड़ता है कि वह कम से कम मरीजों को टेस्ट करवाने की सलाह दें। फिर टेस्ट करने की सुविधाएं भी कम से कम मुहैया करानी पड़ती हैं जिससे कि जिसे भी टेस्ट लिखा जाये वह टेस्ट करवाने के लिए जगह जगह घूमता फिरे । टेस्ट की जो भी जैसी भी सुविधाएं मौजूद हैं उन पर भी अँकुश लगाना पड़ता है। टेस्ट करने वाली लैब्स पर तरह तरह के आरोप लगा उन्हें बंद करवाना पड़ता हैं। उन पर प्रशासनिक अक्षमता का आरोप तो लगा ही सकते हैं, उन पर अधिक पॉजिटिव रिपोर्ट देने का आरोप भी लगा सकते हैं। कोरोना की अधिक पॉजिटिव रिपोर्ट देना वैसे भी राष्ट्र विरोधी कार्य ही है। 

यह टेस्ट कम करने का काम हमारे यहाँ लगभग सभी सरकारें कर रही हैं। ममता दीदी पर तो इसका आरोप शुरू से ही लगता रहा है, भले ही यह आरोप आने वाले चुनावों के कारण ही लग रहा हो। गुजरात में भी जब अधिक मरीज आने लगे और अधिक मौत होने लगीं तो उसने भी इसी चाल का सहारा लिया। दिल्ली में भी ऐसा ही हो रहा है। यूपी, बिहार, महाराष्ट्र सभी का यही हाल है। मतलब काम करने का मन किसी का भी नहीं है। और वैसे भी जब काम कम कर के भी काम बन जाये तो अधिक काम करने की जरूरत ही क्या है।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं)

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