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तिरछी नज़र: सरकार जी की कृपा से... अमेरिका में नौकरी!

"अब देखो, सरकार जी ने स्पष्ट कर दिया है। जिसे डार्विन की थ्योरी पढ़नी है, विदेश जाए। हम तो यहां पढ़ाएंगे नहीं। ऐसे ही जिसे नौकरी चाहिए,  हम तो देंगे नहीं, वह विदेश जाए।”
satire
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: गूगल

सुबह सुबह ही गुप्ता जी मिठाई लेकर घर आए। ठीक है, मित्रता है, और अच्छी खासी है पर घर पर आना जाना कम ही है। जहां तक याद पड़ता है, पिछली बार वे बेटी की शादी का कार्ड देने आए थे। उसके बाद वे कभी आए हों, याद नहीं आता। और मिठाई लेकर तो कभी नहीं आए। मैं भी उनके यहां तब ही गया था जब उनकी माता जी गंभीर रूप से बीमार थीं।

आए तो बड़े खुश थे। मैं खुशी का राज पूछता उससे पहले ही मिठाई का डिब्बा थमाते हुए बोले, "बेटे को अमेरिका में नौकरी मिल गई है। यह सब सरकार जी का ही प्रताप है। और बेटा भी बहुत होनहार है, हिम्मत नहीं हारी। लगा ही रहा, बाहर अप्लाई करने के पीछे"। वे जिस बेटे की बुराई करते नहीं थकते थे, कि चार साल हो गए पढ़ाई खत्म किए, घर में बैठा पलंग तोड़ रहा है। बाप की पेंशन‌ पर रोटी तोड़ रहा है। आज उसी बेटे की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे।

" यह तो अच्छा हुआ। अच्छी बात है कि बेटा सैटल हो गया", मैं बोला।

"हां...अच्छा है, लेकिन अभी सैटल कहां हुआ है। अभी तो किसी एजेंट के थ्रू नौकरी लगी है। आधी तनख़ा तो वही एजेंट रख लेगा। फिर भी वह अमेरिका जा रहा है, यही ख़ुशी है। अभी तो वहां सैटल होने में टाइम लगेगा। बस सब ऊपर वाले की कृपा है। सब सरकार जी की कृपा है"।

"चलो ठीक है। एक बार अमेरिका पहुंच गया तो सैटल हो ही जाएगा" मैनें कहा।

"हां, हो ही जाएगा। सरकार जी की कृपा से। हालांकि इतना आसान नहीं है वहां सैटल होना। सालों बाद तो ग्रीन कार्ड मिलता है। और सिटिजनशिप, उसमें तो पूरी जिंदगी ही खप जाती है। हमारे ऑफिस में एक वर्मा था। उसका बेटा अमेरिका गया तो मां को कंधा देने भी नहीं आ सका। उसका ग्रीन कार्ड का पेच फंसा हुआ था। एक बार आ जाता तो उसका ग्रीन कार्ड आगे सालों के लिए अटक जाता। मैं तो यही दुआ कर रहा हूं कि सरकार जी कायम रहें, उनकी कृपा बनी रही और आयुश जल्दी से अमेरिका में सैटल हो जाए"। 

"यह तुमने बार बार बार सरकार जी की कृपा है, सरकार जी की कृपा है, क्या लगा रखी है। आयुश विदेश जा रहा है, आयुश ही नहीं, इतने सारे बच्चे विदेश जा रहे हैं, पढ़ाई करने जा रहे हैं, नौकरी करने जा रहे हैं, अपनी मेहनत से जा रहे हैं। इसमें सरकार जी की क्या कृपा?" मैंने प्रश्न किया।

"सरकार जी की कृपा ही तो है। क्या हम और तुम गए विदेश? पढ़ने-लिखने या नौकरी करने? नहीं ना। तुम ही बताओ। हमारे तुम्हारे जमाने में कितने लोग विदेश जाते थे पढ़ने या फिर कोई नौकरी करने भी विदेश गया था क्या? यहीं सरकारी स्कूल कॉलेज में पढ़ लिए। यहीं सरकारी नौकरी कर ली। अगर यहां नौकरी नहीं मिलती तो हाथ पैर मारते क्या? तो फिर विदेश भी जाते ना"।

"अब देखो, सरकार जी ने स्पष्ट कर दिया है। जिसे डार्विन की थ्योरी पढ़नी है, विदेश जाए। हम तो यहां पढ़ाएंगे नहीं। ऐसे ही जिसे नौकरी चाहिए,  हम तो देंगे नहीं, वह विदेश जाए। अमेरिका जाए या फिर कनाडा जाए। आस्ट्रेलिया जाए या इंग्लेंड जाए। हम तो यहां नौकरियां देंगे नहीं। यहां रहना है तो पकोड़े तलो, पंक्चर लगाओ। तो बताओ आयुष के विदेश जाने में सरकार जी की कृपा है या नहीं"?

गुप्ता जी तो चले गए। बस मुझे इस ऊहापोह में छोड़ गए कि काश ये वाले सरकार जी हमारे जमाने में ही आ जाते। इनकी कृपा हमारे जमाने में ही हो जाती, तो हम भी इंग्लेंड में पढ़ते और अमेरिका में बसते।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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