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पूर्वांचल के मुसहर टोलों में ‘पैकेज्ड फूड्स’ बन रहा कुपोषण का कारण 

"ग्राहक अगर किसी खाद्य उत्पाद को खरीदता है तो उसे यह जानने का अधिकार है कि उसमें क्या इंग्रिडियंट हैं? शाकाहारी पैकेट मेंमांसाहारी चीजें मिलाना खाद्य संरक्षण अधिनियम-2013 का उलंघन है। इसके तहत धार्मिक भवानाओं को ठेस पहुंचाने, क्षपिपूर्ति, दो साल तक सजा और पांच लाख तक जुर्माने का प्रावधान है। कंपनियां टर्म्स एंड कंडीशन को छोटे अक्षरों में और चेतावनी को नलिखकर भी ग्राहकों के साथ धोखा कर रही हैं।"
Musahar tolls

उत्तर प्रदेश के बड़ागांव प्रखंड स्थित अनेई गांव के मुसहर टोले में महिलाएं चिंतित हैं, क्योंकि उनके बच्चों की डिब्बाबंद खाद्य पदार्थोंकी लत उन्हें जिगर की बीमारियों से पीड़ित कर रही है, उनके संज्ञानात्मक कार्य को प्रभावित कर रही है और उनमें गूंगापन, हताशा वअवसाद भर रही है। यहां के मुसहर समुदाय के 56 परिवार पहले ईंट-भट्ठों पर मजदूरी करते थे, लेकिन अब बटाईदार के रूप में कामकर रहे हैं। सामाजिक कार्य समूहों के हस्तक्षेप के कारण, जिन लोगों को चूहा पकड़ने वालों के रूप में उपहास किया जाता था औरउन पर व्यापक अस्पृश्यता का आरोप लगाया जाता था,  अब वो चार-चार बिस्वा (5400 वर्ग फुट) जमीन के मालिक हैं। लेकिनइनके बच्चों के अंदर जो बदलाव आया है वो न सिर्फ चौंकाने वाला, हैरान करने वाला है।

जौनपुर के ईंट-भट्ठे पर श्रमिकों को पैक्ड फूड के नुकसान की जानकारी देते एक्टिविस्ट

25 साल की सविता के दो बच्चे हैं, जिनमें पांच साल की बेटी अंकिता (बदला नाम) और दो साल का बेटा मोहन (बदला नाम) है।सविता कहती है, "मेरी बेटी को हर रोज चिप्स अथवा कुरकुरे चाहिए। कुरकुरे न मिलने पर वह रोती है, नखरे करती है और आंसूबहाती है। उसके लगातार रोने पर उसकी दादी शमा नाराज हो गई और बच्चों की डिमांड के मुताबिक हर रोज उसे 14 पैकेट कुरकुरेखिलाने लगीं। कुछ दिनों बाद मेरी बेटी बीमार हो गई। बच्ची को लेकर बड़ागांव प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर गई। डॉक्टरों ने मुझे उसेकुरकुरे खिलाना बंद करने की सलाह दी। मेरी बेटी अब बोल भी नहीं पाती और हमेशा अपनी दादी की गोद से लिपटी रहती है।"

अंकिता बचपन से ही गंभीर रूप से कुपोषित थी और उसे पुराना बुखार भी था। कुरकुरे और चिप्स की लत ने उस पर गहरा असरडाला। वह पहले बातें करती थी और अब रोती रहती है। उसके अंदर गूंगापन का अवसाद भर रहा है। अंकिता की दादी शमा कहतीहैं, "जब वह छोटी थी तो गंभीर रूप से कुपोषित थी। बहुत अधिक कुरकुरे और चिप्स खाने की वजह से शारीरिक और मानसिक रूपसे अक्षम हो गई। वो दिन भर रोती है और मेरी गोद से कभी नहीं उतरती। लाचारी में उसे उसे बिस्किट अथवा टॉफ़ी दिलाना पड़ता है।मुझे अच्छी तरह से पता है कि  पैकेज्ड फूड बच्ची की सेहत के लिए अच्छा नहीं है लेकिन क्या करें?—अंकिता की हालत देखकरसविता ने अपने बेटे को पैकेज्ड फूड से दूर रखा है। वह कहती है, "मेरे बेटे को प्रोटीन और फैट की जरूरत है। इसलिए मैं उसे हरअंडा खिला रही हूं। पहले उसका वजन कम था। प्रोटीन खिलाने से उसकी सेहत में सुधार हुआ है।"

पैकेज्ड फूड बिगाड़ रहा सेहत

बेशक पैक्ड फूड ने हमारी जिंदगी को थोड़ा सा आसान बनाया है, लेकिन हमारे खाने की आदतों को काफी हद तक बिगाड़ दिया है।आर्थिक और सरकारी तंत्र के चरमराने के कारण कोविड ने बच्चों के अस्तित्व, स्वास्थ्य और पोषण को प्रभावित किया है। महामारीके बाद मुसहर समुदाय और दलित जातियों के बच्चों में पैकेज्ड फूड की लत बढ़ी है। अनेई गांव में मुसहर समुदाय के कई बच्चों मेंकुरकुरे, चिप्स और क्रीम बिस्कुट जैसे अस्वास्थ्यकर पैकेज्ड खाद्य पदार्थ खाने की लत लग गई है। खासतौर पर वो पैकेज्ड फूडजिनमें नमक, चीनी और वसा की मात्रा ज्यादा होती है। अनियमित और अति-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के नियमित सेवन ने उन्हेंकुपोषण के गहरे दलदल में धकेल दिया है, जिससे वे गैर-संचारी रोगों के लिए अतिसंवेदनशील हो गए हैं। यह तस्वीर सिर्फ अनेईकी नहीं है, बल्कि बनारस के आयर, दल्लीपुर, बरहीकला, भटराहीं, परमंदापुर में भी साफ-साफ दिखती है।

अनेई मुसहर बस्ती में एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी

हाशिये के लोगों के अधिकार के लिए मुहिम चला रहे प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक डॉ लेनिन रघुवंशी और उनकीपत्नी श्रुति नागवंशी को खाना बनाने के लिए ज्यादा समय नहीं मिलता है। वह अक्सर पैकेज्ड फूड पर निर्भर रहते हैं। अपनी अज्ञानताके चलते इन्होंने अपनी इम्युनिटी खो दी। इसका एहसास इन्हें तब हुआ जब कोविड की दूसरी लहर में वो इस बीमारी की जद मेंआए। कोविड के संक्रमण के चलते डा.लेनिन करीब 12 दिनों तक आईसीयू में रहे। डाक्टरों ने इन्हें अपने स्वास्थ्य के बारे में अधिकजागरूक रहने के लिए सचेत किया। डॉ लेनिन कहते हैं, "कोविड के हमले के बाद अपनी इम्युनिटी को बढ़ाने के लिए हमने अपनेभोजन में उच्च प्रोटीनयुक्त आहार को शामिल किया। तब मुझे पता चला कि डिब्बाबंद भोजन कितना जानलेवा है?  पैकेज्ड फूड मेंवसा, चीनी और नमक की मात्रा अधिक होती है, जो मोटापे के साथ मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और दूसरे गैर-संचारी रोगों(एनसीडी) का कारण बनती है।"

शाक-भाजी के साथ डिब्बाबंद सामान

कोविड से उबरने के बाद डॉ लेनिन ने पैकेज्ड फूड्स के खिलाफ मुहिम शुरू की है। खासतौर पर उन खाद्य पदार्थों के खिलाफ जिन्हेंमल्टीनेशनल कंपनियां पब्लिक की सेहत को नजरंदाज करते हुए बनाती हैं और मुनाफा लूटती हैं। डॉ लेनिन कहते हैं, "अब मैं फ्रंटऑफ पैकेज लेबलिंग (एफओपीएल) अभियान का नेतृत्व कर रहा हूं। खासतौर पर वंचित तबके के लोगों के बीच पैकेज्ड फूड्स केखतरों से सावधान कर रहा हूं। हमें कोविडकाल में सच्चाई का एहसास हुआ कि कुरकुरे, चिप्स, और क्रीम बिस्कुट जैसे अनियंत्रितपैकेज्ड खाद्य पदार्थों से बच्चों सेहत बिगड़ रही है। बाल अस्तित्व, स्वास्थ्य और पोषण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। गरीबी का दंशझेल रहे लोगों के बच्चों को कुपोषण और गैर-संचारी रोग का दोहरा बोझ झेलना पड़ रहा है। भारत में हर तबके के बच्चे जंक फूडअथवा अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड का सेवन कर रहे हैं, जिसमें अनुशंसित सीमा से कई गुना अधिक नमक, वसा और चीनी होती है। ये खाद्यपदार्थ बच्चों में न सिर्फ अवसाद भर रहे हैं, बल्कि मोटापे और मधुमेह जैसी बीमारियों में इजाफा कर रहे हैं।"

हर घर में जंक फूड की घुसपैठ

डा.लेनिन की संस्था मानवाधिकार जननिगरानी समिति (पीवीसीएचआर) की पहल पर दिल्ली स्कूल आफ सोशल वर्क के सोशलवर्क विभाग की प्रो.अर्चना कौशिक और बनारस के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के सोशल वर्क विभाग की प्रो.शाइला परवीन नेउत्तर प्रदेश और बिहार के कई जिलों में पैकेज्ड खाद्य पदार्थों से पब्लिक की सेहत पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया तो चौंकानेवाले तथ्य सामने आए। अध्ययन में पाया गया कि शहरी और ग्रामीण परिवारों में 53 फीसदी बच्चे सप्ताह में दो बार नमकीन, पैकेज्ड फूड जैसे चिप्स और इंस्टेंट नूडल्स का सेवन करते हैं। साथ ही 56 फीसदी बच्चे हर हफ्ते दो मर्तबा चॉकलेट और आइसक्रीमजैसे मीठे पैकेज्ड फूड का सेवन करते हैं। इसी तरह 49 फीसदी बच्चे चीनी मिले पेय पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें ज्यादातरबहुराष्ट्रीय कंपनियां बना रही हैं। पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के सेवन के मामले में चीन अव्वल है तो भारत का दूसरा स्थान है। यूपी औरबिहार की ज्यादातर महिलाएं टीवी और मोबाइल पर प्रचार देखकर अपने बच्चों को पैकेज्ड खाद्य पदार्थ दे रही हैं।

पैक्ड फूड पैकेट खाद्य पदार्थ के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाते पीवीसीएचआर के स्वयंसेवक

अध्ययन के मुताबिक, "उत्तर प्रदेश के लोग करीब 11 करोड़ 26 लाख रुपये का अनाज, फल, सब्जी और मछली-मीट पर खर्च करतेहैं, जबकि बिहार में यह आंकड़ा 17 करोड़ 97 लाख है। इस  तरह यूपी में दूध, काफी, चाय-नाश्ता पर 83 लाख 97 हजार औरबिहार में इस मद में सिर्फ तीन लाख 56 हजार रुपये खर्च किए जा रहे हैं। यूपी में हर परिवार अपने भोजन पर 34,200 रुपये खर्चकरता है, जिसमें नाश्ते पर 23,100 और अन्य खाद्य पदार्थ पर 15,780 रुपये खर्च किया जा रहा है। औसत राशि 420 रुपयेरोजना है। कुल आमदनी का ज्यादातर हिस्सा भोजन, नाश्ता और अन्य खाद्य पदार्थों पर खर्च हो जाता है। सर्वेक्षण में शामिलउत्तरदाताओं का झुकाव पैक्ड फूड पर ज्यादा रहा। ग्रामीण इलाकें के बाजार की दुकानें पैक्ड फूड (कुरकुरे, चिप्स, टकाटक, टाफी, कैंडी आदि) से भरी हुई मिलीं।

अध्ययन से यह भी पता चला कि गांवों में भी पारंपरिक और प्रसंस्कृत भोजन तक का संक्रमण हो रहा है। बच्चों में पैकेज्ड खाद्यपदार्थों के सेवन के मामले में पिता का प्रभाव कम, माताओं का ज्यादा है। ज्यादातर उत्तरदाताओं ने स्वीकार किया कि उन्होंनेटेलीविजन के विज्ञापन से प्रभावित होकर अपने बच्चों को पैकेज्ड फूड देना शुरू किया। बाद में बच्चे इसके लिए जिद करने लगे।ज्यादातर उत्तरदाताओं ने माना कि पैकेज्ड फूड बच्चों की सेहत के लिए अच्छा नहीं है, लेकिन उन्हें उनका स्वाद उन्हें बहुत पसंद है।ज्यादातर बच्चे अपने जिद्दी व्यवहार के चलते माता-पिता पर पैकेज्ड फूड खाने के लिए दबाव बनाते हैं। शोधकर्ता प्रो.अर्चना कौशिकऔर प्रो.शाइला परवीन कहती हैं,  "भारत में FoP लेबल पर लिखा जाना चाहिए कि खाद्य पदार्थ 'टोटल फैट', 'टोटल शुगर' और'सॉल्ट' है, बजाय 'सैचुरेटेड फैट', 'एडेड शुगर' या 'सोडियम' कितना है? FoP लेबल उपभोक्ताओं को जानकारी देने के लिए होनाचाहिए जबकि, पैक के पीछे वाला लेबल वैज्ञानिक समझ के लिए। दोनों एक दूसरे के पूरक होने चाहिए। FoP पर सोडियम लिखदेने से उपभोक्ता की मदद नहीं होगी।"

गांवों में मोपेड पर बेचे जाते हैं नकली जंक फूड

कंस्यूमर फ्रेंडली नहीं होते FoP लेबल

पब्लिक पीस प्राइज विजेता श्रुति नागवंशी बच्चों और महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य, खान-पान के बाबत लंबे समय से जागरुकताअभियान चला रही हैं। वह कहती हैं, "भारतीय बच्चों के स्वस्थ भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए एक सरल, व्याख्यात्मक औरअनिवार्य फ्रंट-ऑफ-पैक लेबल (एफओपीएल) सबसे अच्छी रणनीति हो सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसारनीति निर्माताओं, पोषण नेताओं और उद्योग को यह याद दिलाने का प्रयास किया जा रहा है कि बच्चों को स्वास्थ्य और पोषण काअधिकार है। यह सुनिश्चित करने का समय है कि बच्चों को उनका अधिकार दिया जाए, उनकी भलाई को गंभीरता से लिया जाए।यह गंभीर चिंता का विषय है कि महामारी के दौरान भी, खाद्य कंपनियों ने अपने व्यवसाय को बढ़ाना जारी रखा और अल्ट्रा-प्रोसेस्डभोजन के विज्ञापन पर लाखों रुपये खर्च किए।  ऐसे में हमें मजबूत फ्रंट ऑफ पैकेज लेबलिंग (एफओपीएल) की जरूरत है, क्योंकिइसका सीधा संबंध जीवन और स्वास्थ्य के अधिकार से है। भारत में बड़ी-बड़ी कंपनियों में तैयार खाद्य पैकेज गलत सूचनाओं से भरेहुए हैं, इसलिए एक कड़ी चेतावनी लेबल जरूरत है। हर बच्चे को यह जानने का हक है कि वो जिस पैकेज्ड फूड को खा रहे हैं उसमें हैक्या? 

श्रुति यह भी कहती हैं, "उपभोक्ताओं को यह भी  पता होना चाहिए कि कौन सा खाद्य पदार्थ खराब है और कितना खराब है? हर FoP लेबल कंस्यूमर फ्रेंडली नहीं होते हैं। ऐसे में घर का बना खाना खाने की आदत डाली जानी चाहिए। पिछले दस सालों में पैकेज्ड औरप्रोसेसेड फूड्स पर प्रति व्यक्ति जीडीपी ख़र्च दस गुना बढ़ गया है। अब लोग बाहर जाकर या टेकअवे से खाना पसंद कर रहे हैं। ऐसेमें उपभोक्ताओं को पता होना चाहिए कि कौन सा खाद्य पदार्थ खराब है और कितना खराब है? यह बेहद जरूरी है कि ऐसे प्रोडक्ट्सपर पैक के पीछे लगे हुए न्यूट्रिशनल इनफार्मेशन लेबल के अलावा फ्रंट ऑफ पैक (FoP) लेबलिंग में क्या-क्या अंकित है? एफओपीएल की चेतावनी माता-पिता को भी खतरों से सावधान करेगा। कनाडा जैसे देशों में खाद्य पदार्थों पर इन लेबल के होने सेलोग आठ सेकंड से भी कम समय में तय कर लेते हैं कि उन्हें क्या खरीदना है? चिप्स, कुरकुरे और नूड्ल्स बनाने वाली कंपनियों कोयह छूट नहीं होनी चाहिए कि वे अपनी मर्जी के मुताबिक इस प्रणाली को अपनाएं। नियमों में अगर कोई बदलाव होता भी है, तो उनमेंछूट देने की बजाय उन्हें और कड़ाई से लागू किया करना चाहिए।"

मानवाधिकार जननिगरानी समिति के संस्थापक व संयोजक डॉ. लेनिन रघुवंशी ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, "भारतीय खाद्य सुरक्षा औरमानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने हाल ही में बहुप्रतीक्षित एक स्टार रेटिंग फूड लेबल आधारित एफओपीएल विनियम कोजारी करके, उपभोक्ताओं को स्वस्थ विकल्प चुनने के अधिकार के बारे में चिंताएं बढ़ा दी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि नकारात्मकऔर सकारात्मक दोनों तरह के पोषक तत्वों के साथ खाद्य लेबलिंग उपभोक्ताओं को सचेत निर्णय लेने में मदद करने के बजाय भ्रमितही करेगा। खाद्य लेबलिंग के कई डिजायन हैं, जिनमें चेतावनी लेबल, ट्रैफ़िक लाइट सिस्टम, न्यूट्री-स्कोर, गाइडलाइन डेली अमाउंट, और हेल्थ स्टार रेटिंग (एचएसआर) प्रमुख हैं। लोग स्पष्ट चेतावनी लेबल पसंद करते हैं जो यह बताता है कि उत्पादों में अस्वास्थ्यकरसामग्री अधिक है या नहीं? भारत में हर साल 58 लाख से अधिक लोग गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) जैसे कैंसर, मधुमेह, अनियंत्रितउच्च रक्तचाप और हृदय रोगों की वजह से मौत के मुंह में समा जाते हैं। एक बेहतर स्वस्थ्य खाद्य सिस्टम से ही इसे रोका जा सकताहै। बच्चों और युवाओं में एनसीडी के बढ़ते मामलों को देखते हुए, यह उचित समय है कि देश पोषण संबंधी लेबलिंग पर ध्यान केंद्रितकरे जो उपभोक्ताओं के लिए 'चेतावनी लेबल' के रूप में सबसे अधिक कारगार है। हमें उम्मीद है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञोंऔर नागरिक समाज के सुझावों पर विचार किया जाएगा।"

उत्तराखंड के ऋषिकेश स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (एम्स) के डॉ प्रदीप अग्रवाल कहते हैं, "भारत मधुमेह औरबच्चों में मोटापे की वैश्विक राजधानी बनने की ओर अग्रसर है। हम देश में खान-पान की आदतों में बड़ा बदलाव देख रहे हैं। प्रोसेस्डऔर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों की खपत ऊपर जा रही है। अल्ट्रा प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ भोजन नहीं, बल्कि फैक्ट्री का उत्पाद लगतेहैं। उनमें नमक, चीनी, रिफाइंड, कार्बोहाइड्रेट्स, रसायन और अरिक्त कैलोरीज अत्यधिक मात्रा में होती हैं। इन पदार्थों कोजबरदस्त बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे वे आसानी से सभी जगह उपलब्ध हो जाते हैं। एम्स ने देश के सभी राज्यों में अध्ययन कियातो पाया कि पैकेज्ड फूड में कई पदार्थ चेतावनी लेबल से बहुत ज्यादा हैं। भारत में करीब 34 मिलियन टन पैकेज्ड फूड (खाद्य व पेय) की बिक्री होती है। ज्यादातर बच्चे नमकीन, चिप्स, इंस्टेंट नूडल्स, चाकलेट और आइसक्रीम जैसे मीठे पैकेज्ड फूड का सेवन करतेहैं। सेहत को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाने वाले ये आहार किसी दूसरे जोखिम की तुलना में मौतों के लिए अधिक जिम्मेदार औरमोटापा, मधुमेह और हृदय रोग के प्रमुख कारक हैं। अध्ययनों ने संकेत दिया है कि खाद्य और पेय पदार्थों को बेहतर बनाने से व्यापारके हित प्रभावित नहीं होते हैं और न ही इससे बेरोजगारी बढ़ती है।"

यूपी में हर चाय-पान की दुकानों पर चिप्स और कुरकुरे कि लड़ियां

ग्राहकों को धोखा दे रही कंपनियां

आपाधापी भरे माहौल में भले ही फटाफट खाने (रेडी टू ईट फूड) का चलन जोर पकड़ रहा है। पैकेटबंद खाद्य पदार्थ का चलन एकबड़े उद्योग की शक्ल ले चुका है। केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि एक दशक में आसानी से तैयार हो जानेवाले पैकेटबंद फूड के बाजार में 70 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसके साथ ही कूड़ेदान में प्लास्टिक का बोझ भी बढ़ा है। रही-सहीकसर ढाबों में प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक के रेडीमेड बर्तनों ने पूरी कर दी है। पैकेट में बंद खाद्य सामग्री के इस्तेमाल में एक बड़ीपरेशानी यह भी है कि ज्यादातर कंपनियां इस तथ्य का खुलासा करने से बचती हैं कि पैकेट बंद खाने में कितनी मात्रा में प्रिजरवेटिव्सऔर रंग का इस्तेमाल किया गया है? हालांकि ऐसे तत्वों के इस्तेमाल के लिए एक मानक तय कर दिया गया है,  लेकिन जागरूकताकी कमी कानून के लागू होने की राह में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है।

अब तक हुए सभी अध्ययनों में बताया गया है कि डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का सेवन मधुमेह, हृदय रोग और अन्य स्वास्थ्य प्रभावों सेजुड़े एक रसायन के आवरण की वृद्धि करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ का कहना है कि डिब्बा बंद मीट खाने सेकैंसर हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिन में 50 ग्राम डिब्बा बंद मीट से आंत के कैंसर होने का ख़तरा 18 प्रतिशत बढ़ जाताहै। डब्लूएचओ ने डिब्बा बंद मीट को सिगरेट और शराब वाली श्रेणी में रख दिया है। एक अनुमान के अनुसार डिब्बा बंद मीट काअधिक सेवन करने से होने वाले कैंसर से हर साल 34 हज़ार लोगों की मौतें होती हैं। पैक्ड फूड में बहुत सारी दिखावटी सामग्री काउपयोग होता है। फ्रेश न होने के कारण ऐसे खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की कमी होती है। पैक्ड फूड में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बहुतज्य़ादा होती है।

बनारस के जाने-माने अधिवक्ता संजीव वर्मा कहते हैं, "ग्राहक अगर किसी खाद्य उत्पाद को खरीदता है तो उसे यह जानने काअधिकार है कि उसमें क्या इंग्रिडियंट हैं? शाकाहारी पैकेट में मांसाहारी चीजें मिलाना खाद्य संरक्षण अधिनियम-2013 का उलंघनहै। इसके तहत धार्मिक भवानाओं को ठेस पहुंचाने, क्षपिपूर्ति, दो साल तक सजा और पांच लाख तक जुर्माने का प्रावधान है।कंपनियां टर्म्स एंड कंडीशन को छोटे अक्षरों में और चेतावनी को न लिखकर भी ग्राहकों के साथ धोखा कर रही हैं। एफएसएसएआईऔर मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर को हर राज्यों में सार्वजनिक परामर्शदाता रखना चाहिए, ताकि नए नियमों के बारे मेंपर्याप्त जागरूकता पैदा की जा सके।"

असंतुलन पैदा कर रहा जंक फूड

"बेटियां नहीं हैं बोझ, आओ बदले सोच" का नारा बुलंद करते हुए बच्चियों का मुफ्त प्रसव कराने के लिए मुहिम चला रही बनारस कीजानी-मानी स्त्री रोग विशेषज्ञ डा.शिप्राधर कहती हैं कि पैकेज्ड फूड न सिर्फ सेहत बिगाड़ रहा है, बल्कि समाजिक असंतुलन भी पैदाकर रहा है। वह कहती हैं, ''मेरे पास कई युवा लड़कियां आती हैं, जिनकी उम्र 30 साल की होती है जो प्रेग्नेंसी प्लान कर रही होती हैंअथवा प्रेग्नेंट होती हैं तो उनका वज़न 85 किलो के पार होता है। ऐसी महिलाओं की ओवरी में अंडाशय में अंडा परिपक्व होने कीप्रक्रिया बाधित होती है  जिससे बांझपन की समस्या पैदा हो जाती है। मोटापा बढ़ने से मासिक धर्म अनियिमित हो जाता है, जोचिड़चिड़ेपन को बढ़ाता है। हम देख रहे हैं कि युवा लड़कियों में मोटापा बढ़ रहा है और इसका मुख्य कारण छोटी उम्र से जंक फ़ूड कासेवन है। कामकाजी महिलाएं ज्यादातर बैठकर काम कर रही होती हैं और घर के काम के लिए भी किसी सर्वेंट की मदद लेती हैं, वहींसमय के अभाव में वे वॉकिंग या व्यायाम भी नहीं कर पाती हैं, क्योंकि वो घर और ऑफिस की ज़िम्मेदारी निभा रही होती हैं। इस बीचजंक फूड और बाहर का खाना, ये सब मिलाकर महिलाओं में मोटापे का एक बड़ा कारण बनता है।"

डा.शिप्राधर यह भी कहती हैं, "स्कॉटलैंड में चार हजार बच्चों पर हुए हालिया अध्ययन से साफ हुआ कि ताजा खाना खाने वाले बच्चोंका आईक्यू लेवल (बौद्धिक स्तर) अन्य बच्चों की अपेक्षा 19 गुना ज्यादा पाया गया, जबकि जंक फूड, सॉफ्ट ड्रिंक्स या डायट सोडासे करीब 40 फीसदी बच्चों में शार्ट टर्म मेमोरी लॉस पाया गया है। रेडी टू कुक फूड, डिब्बाबंद फूड, कुकीज, डिब्बाबंद नूडल्स, फ्रोजन फूड, ब्रेड, चिप्स, पिज्जा, बर्गर बच्चों को हाइपर कर रहे हैं। दरअसल, पैकेट बंद नूडल्स और सूप में काफी मात्रा में स्टार्चऔर नमक की मौजूदगी होती है। इस के अलावा मोनोसोडियम ग्लुटैमेट (एमएसजी) मात्रा मौजूद होती है। पैकेट बंद खाद्य पदार्थोंकी गुणवत्ता छह माह से लेकर एक वर्ष तक बरकरार रखने के लिए इनमें प्रिजरवेटिव्स मिलाए जाते हैं। इसके कारण इनमें से एकविशेष गंध महसूस की जाती है।"

वाराणसी स्थिति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्त्री  रोग विभाग में सीनियर रेजिडेंट चिकित्सक डा.श्वेता वर्मा कहती हैं, "पैक्ड फूडखरीदते समय कुछ जरूरी बातों का हमेशा ध्यान रखें। जिन खाद्य पदार्थों में ट्रांस फैट मौजूद हो उन्हें लेने से बचें। ऐसे पैक्ड फूड परजरूर ध्यान दें जिनमें नमक बिलकुल न हो। हर डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ सेहत को नुकसान नहीं पहुंचाते। अगर किसी भी सामग्री मेंशुगर, हाई फ्रक्टोज कॉर्न सीरप और नमक मौजूद हो तो इनका इस्तेमाल कम करें। पैक्ड फूड खाने में कोई बुराई नहीं है। लेकिनहमेशा इन्हें लेने और खाने से पहले न्यूट्रीशियस फैक्ट्स और सामग्री को जरूर चेक करें। इससे आपको उसकी गुणवत्ता का पता चलजाएगा। पैकेज्ड फूड खरीदने से पहले पैकेट के लेबल को जरूर पढ़ लें। खाद्य पदार्थ की पौष्टिकता के ब्योरे पर विशेष ध्यान दें।मैन्युफैक्चरिंग डेट, बैस्ट बिफोर, पैकेज सील को अच्छी तरह से जांच लेनी चाहिए। पैकेट को एक बार खोलने के बाद खाद्य पदार्थको पूरी तरह इस्तेमाल करें।"

डा.श्वेता सलाह देती हैं, "जंक फूड जनित बीमारियों से बचाने का उपाय यह है कि नियमित व्यायाम करें और सक्रिय रहें। उच्च वसा, नमक और चीनी और तंबाकू के उपयोग से भरे अल्ट्रा-प्रोसेस फूड से परहेज करें। जंक फुट अथवा पैकेट बंद खाने में नमक की इतनीअधिक मात्रा होती है कि लगातार इनका सेवन करने वालों को हाइपरटैंशन का खतरा बन जाता है। गर्भवती महिलाओं के लिए ऐसाहोना खतरनाक साबित हो सकता है। ऐसे खाद्य पदार्थों को हाइड्रोजेनेटेड या आंशिक तौर पर हाइड्रोजेनेटेड तेल में तैयार किया जाताहै। इनमें मौजूद ट्रांसफैट की मात्रा सेहत के लिए हानिकारक होती है। यह ट्रांसफैट हाइड्रोजन गैस और तेल के मिश्रण से तैयार होताहै। हालांकि प्राकृतिक रूप से यह ट्रांसफैट मांसाहार और दुग्ध उत्पाद में पाया जाता है। यह कोलेस्ट्रौल को बढ़ाता है। इसी से मोटापेके खतरे के साथ धमनियों में चरबी जमने की संभावना बढ़ती है। पैकेट बंद खाद्य पदार्थ का सेवन करने के बेहतर है कि अपना भोजनघर पर बनाएं। बाजारू खाद्य पदार्थों में पौष्टिक तत्वों की कमी होती है। इनसे हर समय पेचिस, अल्सर, लीवर और आंत में संक्रमणका खतरा बना रहता है। बच्चों के मामले में जंक फूड से उनका शारीरिक विकास प्रभावित हो सकता है।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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