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ख़बरों के आगे-पीछे: पैसिव बनाम एक्टिव राज्यपाल

अपने साप्ताहिक कॉलम में वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों की भूमिका के साथ ओडिशा और झारखंड आदि की राजनीति का विश्लेषण कर रहे हैं। 
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पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार के साथ टकराव को लेकर अक्सर चर्चा में रहने वाले राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने अब राज्यपाल के कामकाज को नए सिरे से परिभाषित करने का जिम्मा उठाया है। हालांकि केरल में आरिफ मोहम्मद खान, तमिलनाडु में आरएन रवि सहित कई विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपाल भी यही काम कर रहे हैं लेकिन उनमें से किसी ने खुल कर आनंद बोस की तरह यह नहीं कहा कि पैसिव यानी निष्क्रिय राज्यपाल का समय अब चला गया। लेकिन पिछले कुछ दिनों से राजभवन की एक महिला कर्मचारी के यौन शोषण के आरोप का सामना कर रहे सीवी आनंद बोस ने कहा है कि अब पैसिव राज्यपाल का समय चला गया है। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि कब से चला गया और क्यों चला गया? क्या कोई आदेश जारी हुआ है या संविधान में कोई बदलाव हुआ है या ऐसा क्या राजनीतिक घटनाक्रम हुआ, जिससे राज्यपालों की भूमिका बदल गई है? 

उन्होंने यह भी नहीं बताया कि क्या देश के सभी राज्यों में पैसिव राज्यपाल का समय समाप्त हो गया है या सिर्फ विपक्ष के शासन वाले राज्यों में ऐसा हुआ है और भाजपा शासित राज्यों में अब भी पैसिव राज्यपाल का ही समय चल रहा है? बहरहाल, बंगाल के राज्यपाल और ममता बनर्जी सरकार के संबंध अब पहले से भी ज्यादा बिगड गए हैं। मामला यहां तक पहुंच गया है कि राज्यपाल ने मानहानि का मुकदमा किया है तो राज्य सरकार उन पर लगे यौन शोषण के आरोप को राजनीतिक मुद्दा बना रही है। यानी संवैधानिक कामकाज से आगे दोनों के संबंध आपराधिक मुकदमों तक चले गए हैं। यह एक्टिव राज्यपाल होने का एक नमूना है।

ओडिशा के ऑपरेशन लोटस से सहयोगी चिंतित

भाजपा ने ओडिशा मे ऑपरेशन लोटस यानी दलबदल कराने का खेल शुरू कर दिया है। इस ऑपरेशन के तहत पहला शिकार ममता महंता को बनाया गया है। वे बीजू जनता दल (बीजद) और राज्यसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गई हैं। जाहिर है उप चुनाव में बीजू जनता दल की यह राज्यसभा सीट भाजपा को मिलेगी। ममता महंता के बाद बीजद के कई और नेता पार्टी छोड़ने की तैयारी में हैं। भाजपा के एक विधायक ने दावा किया है कि बीजद के कम से कम 30 बड़े नेता भाजपा में शामिल होना चाहते हैं। 

सत्ता से बाहर हुए बीजद के 51 विधायक और नौ राज्यसभा सदस्य हैं। बहरहाल, ओडिशा में शुरू हुए ऑपरेशन लोटस ने भाजपा के कई सहयोगी दलों के कान खड़े कर दिए हैं। इस समय भाजपा की सहयोगी पार्टियों में तेलुगू देशम पार्टी, जनता दल (यू), शिव सेना और एनसीपी मुख्य है। इनके अलावा परोक्ष समर्थन करने वाली पार्टी वाईएसआर कांग्रेस है। महाराष्ट्र में इसी साल और बिहार में अगले साल विधानसभा के चुनाव होना हैं। सो, संभव है कि अभी इन दोनों राज्यों में भाजपा अपने सहयोगियों से कोई छेड़छाड़ न करे। लेकिन आंध्र प्रदेश में जगन मोहन की पार्टी के खिलाफ यह ऑपरेशन शुरू हो सकता है। इस संभावना ने सहयोगी पार्टियों की चिंता बढ़ाई है। उन्हें लग रहा है कि जरुरत खत्म होने के बाद उनकी पार्टी भी तोड़ी जा सकती है। सबको पता है कि महाराष्ट्र में शिवसेना और बिहार में जनता दल (यू) पर भाजपा की खास नजर है। 

पंजाब और हरियाणा सरकार के बीच विज्ञापन युद्ध

सरकारी विज्ञापनों के जरिए अपनी छवि चमकाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी का मुकाबला सिर्फ अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ही कर सकती है। हरियाणा में अगले दो महीने में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। हरियाणा से ही सटे पंजाब में 2027 में विधानसभा का चुनाव होगा। लेकिन दोनों राज्यों की सरकारों के बीच विज्ञापन की होड़ मची है। दोनों राज्यों की सरकारें दिल्ली के अखबारों में रोजाना कम से कम एक-एक पन्ने का विज्ञापन दे रही हैं। हरियाणा में अभी चुनाव होना है, लिहाजा उसका तो समझा जा सकता है कि वहां आचार संहिता लगने से पहले राज्य सरकार को सरकारी पैसे से जम कर भाजपा का प्रचार करना है। लेकिन पंजाब का क्या मकसद है? दरअसल पंजाब सरकार के इतना विज्ञापन देने का मकसद भी हरियाणा का चुनाव ही है। आम आदमी पार्टी ने हरियाणा की सभी 90 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। हरियाणा अरविंद केजरीवाल गृह राज्य है और उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल वहां लगातार प्रचार कर रही हैं। पिछली बार भी पार्टी हरियाणा में चुनाव लड़ी थी लेकिन कुछ खास हासिल नहीं हुआ था। उसके बाद पंजाब में जरूर आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई। सो, उसका फायदा उठाते हुए पंजाब सरकार के विज्ञापन दिल्ली और हरियाणा के अखबारों में छप रहे है और इससे आम आदमी पार्टी का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है। 

चिराग, अठावले आदि सेफ्टी वॉल्व

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के बंटवारे के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कुछ ऐसी पार्टियों ने विरोध किया है, जो भाजपा की सहयोगी हैं। इसके अलावा सोशल मीडिया में कुछ ऐसे प्रभावी लोगों और यूट्यूबर्स ने भी इसका विरोध किया है, जो हर वक्त भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन करते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने वाले नेताओं में लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान आरपीआई के रामदास अठावले हैं। सवाल है कि ये नेता क्यों इसका विरोध कर रहे हैं? क्या इन नेताओं के विरोध से एनडीए की स्थिति पर कोई फर्क पड़ेगा? असल में इन नेताओं की नाराजगी एक राजनीतिक पैंतरेबाजी है। इन्हें सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से ज्यादा आपत्ति नहीं होगी, या कम से कम वैसी आपत्ति नहीं होगी, जैसी मायावती या चंद्रशेखर को है। दूसरे, इनकी भाजपा से भी कोई नाराजगी नहीं है। हकीकत में ये नेता सेफ्टी वॉल्व का काम कर रहे है। ये दलित और आदिवासी समाज के गुस्से को आवाज देकर उनका गुस्सा ठंडा कर रहे हैं। 

अगर मुख्यधारा की पार्टियां इस फैसले के विरोध में नहीं उतरतीं तो हाशिए पर पड़ी पार्टियों और दूसरे फ्रिंज एलीमेंट्स को राजनीति करने का मौका मिलता। सोशल मीडिया में इस फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जैसी टिप्पणियां की जा रही हैं, उसका असर बहुत बड़ा हो सकता था। इसीलिए भाजपा की सहयोगी पार्टियों के जो नेता इसका विरोध कर रहे हैं, वे असल में इन दोनों समुदायों के लोगों का गुस्सा कम कर रहे हैं।

झारखंड में गंगवार को राज्यपाल बनाने का मतलब

भाजपा के वरिष्ठ नेता और बरेली से आठ बार सांसद रहे संतोष गंगवार को पहले मोदी सरकार से हटाया गया और उसके बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में टिकट भी नहीं दिया गया। लेकिन अब उन्हें अचानक बड़ी अहम जिम्मेदारी सौपी गई है। वे झारखंड के राज्यपाल बनाए गए हैं, जहां इस साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। गंगवार उत्तर प्रदेश के हैं और कुर्मी जाति से आते हैं गौरतलब है कि झारखंड में आदिवासियों के बाद सबसे बड़ी आबादी कुर्मी बिरादरी की ही है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 22 फीसदी कुर्मी हैं। राज्य की आठ सामान्य लोकसभा सीटों में से दो सीटों पर कुर्मी सांसद हैं। झारखंड में ऐतिहासिक रूप से कुर्मी का वोट झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) को जाता है। उसके बाद सुदेश महतो की पार्टी आजसू को भी इसका वोट मिलता है। अब जयराम महतो नए खिलाड़ी उभरे हैं, जिन्हें कहीं से अदृश्य मदद हासिल हो रही है। लोकसभा चुनाव में जयराम महतो और उनके प्रत्याशियों ने कई सीटों पर जबरदस्त प्रदर्शन किया। विधानसभा चुनाव में जयराम महतो एक बड़ा फैक्टर सकते हैं। इस बीच राज्य में कुर्मी जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का एक आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन जेएमएम के साथ टकराव का कारण बन सकता है। इन तमाम राजनीतिक हालात के बीच भाजपा ने कुर्मी जाति के एक बड़े नेता को झारखंड का राज्यपाल बनाया है। भाजपा की कोशिश है कि कुर्मी वोट का कुछ हिस्सा उसको भी मिले और बाकी वोट जेएमएम, आजसू और जयराम महतो के बीच बंट जाए। इससे जेएमएम की ताकत घटेगी।

भाजपा को भारी पडेगा खट्टर का हरियाणा प्रेम

दिल्ली के अखबार इन दिनों हरियाणा सरकार के विज्ञापनों से भरे होते हैं। रोजाना पूरे एक या दो पन्ने के विज्ञापन होते हैं, जिनमें राज्य सरकार की उपलब्धियां बताई जाती हैं। इसके बावजूद राज्य सरकार के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी यानी लोगों में सत्ता विरोधी भावना खत्म नहीं हो रहीं है। वैसे तो इसके कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन एक मुख्य कारण यह बताया जा रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर हरियाणा की राजनीति से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। केंद्र में मंत्री बन जाने के बावजूद वे पूरे समय हरियाणा की राजनीति में सक्रिय रहते हैं। वे नौ साल से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे और जब हटाए गए तो उनकी पसंद के नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया। सैनी ने खट्टर की खाली की हुई विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और खट्टर खुद सैनी की लोकसभा सीट से चुनाव लड़ कर सांसद बने। दोनों में बहुत गहरा लगाव है। सो, हर जगह सैनी खुद को खट्टर का आदमी बताते हैं और हर जगह खट्टर भी पहुंचे रहते हैं। केंद्र में दो बड़े विभागों का मंत्री बनने के बाद भी उनका मन हरियाणा में रमा हुआ है। इसीलिए भाजपा के ही नेताओं का मानना है कि जब तक खट्टर हरियाणा की राजनीति से दूर नहीं होंगे, तब तक उनकी सरकार से उपजी लोगों नाराजगी भी खत्म नहीं होगी और सैनी का नेतृत्व भी मजबूती से स्थापित नहीं होगा। ऐसे में पिछड़ी जातियों का एकमुश्त वोट लेने का भाजपा इरादा भी पूरा नहीं होगा।

झारखंड में सहयोगियों ने बढ़ाई भाजपा की मुश्किलें 

बिहार में भाजपा की सहयोगी पार्टियों ने झारखंड में उसकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। एनडीए में शामिल कम से कम तीन पार्टियां झारखंड में इसी साल होने वाले विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार उतारने की तैयारी कर रही हैं। भाजपा के पुराने सहयोगी जनता दल (यू) के अलावा चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और जीतन राम मांझी के हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा ने चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है। मांझी ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी झारखंड में पांच से छह सीटों पर चुनाव लड़ेगी। मांझी की जाति का असर कुछ सीटों पर है और खास तौर से बिहार से सटे जिलों में कई सीटों पर वे असर डाल सकते हैं। इसी तरह जमशेदपुर पूर्व से निर्दलीय विधायक सरयू राय हाल ही में जनता दल (यू) में शामिल हो गए। इससे जनता दल (यू) का दावा जमशेदपुर पूर्वी सीट पर तो बन ही गया। इसके अलावा भी पार्टी 10 सीटों पर लड़ने की तैयारी कर रही है। चिराग पासवान ने अभी स्पष्ट नहीं किया है कि उनकी पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी लेकिन पार्टी के जानकारों का कहना है कि बिहार की राजनीति का असर झारखंड पर पड़ता है और इसलिए भाजपा को प्रतीकात्मक रूप से कम से कम एक सीट देकर लोजपा के साथ तालमेल करना चाहिए। मांझी और पासवान दोनों दलित वोटों में भाजपा को फायदा पहुंचा सकते हैं। हालांकि भाजपा का कहना है कि दलित सीटों पर उसका अपना प्रदर्शन भी बहुत अच्छा है और वह पिछली बार नौ में से छह सीटों पर चुनाव जीती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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