समान नागरिक संहिता के बारे में हर भारतीय को पूछना चाहिए 'मसौदा' कहां है?
भारत के विधि आयोग की अधिसूचना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लेकर की जा रही मजबूत वकालत ने इस विभाजनकारी विषय पर बहस को फिर से पुनर्जीवित कर दिया है। इतिहास में यह भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा रहा है। पार्टी के 1996 के घोषणापत्र में नारी शक्ति (महिला शक्ति) शीर्षक के तहत यूसीसी का उल्लेख किया गया था। बावजूद इसके, पार्टी ने कभी भी यूसीसी के मसौदे की सामग्री पर काम नहीं किया है।
किसी भी समान संहिता में तलाक, गुजारा भत्ता, विरासत के अधिकार और बच्चों की कस्टडी से जुड़े कानून कौन से होंगे? अब तक इस पर सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और इसका विरोध करने वाले अन्य स्थापित अल्पसंख्यक संगठनों की ओर से आई है। इस बार, यूसीसी प्रस्ताव को, आदिवासियों और सिख समूहों सहित अन्य लोगों के द्वारा कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
केंद्रीय सरना समिति के एक पदाधिकारी संतोष तिर्की ने कहा कि, "यह (यूसीसी) विवाह, तलाक, विरासत और भूमि हस्तांतरण के हमारे पारंपरिक कानूनों का उल्लंघन करेगी...।" एक अन्य आदिवासी समूह के नेता, झारखंड के रतन तिर्की ने कहा कि “हम न केवल विधि आयोग को ईमेल भेजकर अपना विरोध दर्ज कराएंगे बल्कि जमीन पर भी विरोध प्रदर्शन करेंगे। हम रणनीतियां तैयार करने के लिए बैठकों के आयोजन की योजना बना रहे हैं।' यूसीसी संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची के प्रावधानों को कमजोर कर देगा।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के एक घटक दल और पूर्वोत्तर के कुछ भाजपा नेताओं ने दावा किया है कि वे भी इसका विरोध करेंगे। भाजपा के सुशील मोदी, जो कानून और न्याय पर संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष हैं, ने पूर्वोत्तर सहित आदिवासी इलाकों में समान संहिता की व्यवहार्यता पर सवाल उठाया है।
शिरोमणि अकाली दल (SAD) के नेता गुरजीत सिंह तलवंडी ने शीर्ष सिख धार्मिक संस्था, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति से कहा है कि वे यूसीसी को खारिज न करें, बल्कि विधि आयोग के साथ बातचीत शुरू करें- जिसे यूसीसी पर उनकी स्वीकृति के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि प्रास्ताव के खिलाफ एक समझदार विरोध समझा जाना चाहिए।
यह दोहराना महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत और पारिवारिक कानून, नागरिक और आपराधिक कानूनों से भिन्न होते हैं। भारत के ब्रिटिश शासकों ने प्रत्येक धर्म के धर्मावलंबियों/मौलवियों के परामर्श से व्यक्तिगत कानून बनाए थे। उदाहरण के लिए, हिंदू कानूनों की मिताक्षरा और दयाभागा धाराएं मौजूद हैं। इसलिए, हिंदुओं में भी नागरिक कानूनों की एकरूपता नहीं है। प्रथम प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू, व्यक्तिगत कानूनों के भीतर अंतर्निहित लैंगिक अन्याय के बारे में चिंतित थे, उन्होंने पहले कानून मंत्री डॉ. बीआर अंबेडकर से हिंदुओं के लिए कोड में सुधार शुरू करने को कहा था। अंबेडकर ने पूरी निष्पक्षता और समानता की बिना पर, हिंदू व्यक्तिगत कानूनों को महिलाओं की पूर्ण अधीनता से भरा हुआ पाया था। उन्होंने एक हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया, जिसका विचार बहुसंख्यक धर्म में सुधार के साथ शुरुआत करना और फिर अन्य समुदायों के लिए समान प्रक्रियाएं लाना था।
भारत की आज़ादी के तुरंत बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार नहीं किया गया, इसका कारण यह था कि विभाजन के दंगों की छाया में, भारत ऐसा नहीं दिखाना चाहता था जैसे कि बहुसंख्यक अपनी इच्छा अल्पसंख्यक समुदाय पर थोप रहे हों। मुस्लिम कानूनों का संहिताकरण बाद में किया गया, और तत्काल तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करके मुस्लिम कानून में सुधार भी किया गया है (हालांकि भाजपा सरकार ने इस प्रथा को अनावश्यक रूप से अपराधीकरण करके लोगों का ध्रुवीकरण किया है और मुस्लिमों को कानून तोड़ने वाले की तरह दिखाने का काम किया है)। यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि कुछ प्रगतिशील मुस्लिम समूहों जैसे कि इंडियन मुस्लिम फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी ने अतीत में भी धर्म-तटस्थ व्यक्तिगत कानूनों का आह्वान किया है।
लैंगिक समानता के आधार पर अंबेडकर द्वारा लाए गए हिंदू कोड बिल में कानूनों का विरोध इतना भारी था कि बिल को कमजोर करना पड़ा और कई चरणों में पेश करना पड़ा। हिंदू राष्ट्रवादी ताकतों द्वारा समर्थित रूढ़िवादी हिंदुओं ने अंबेडकर के इस्तीफे की मांग की, जो इस प्रतिक्रिया से दुखी हुए और उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था।
अपने मूल रूप में, गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका, जिसे वर्तमान व्यवस्था द्वारा गांधी शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया है, ने हिंदू कोड बिल के विरोध में आवाज उठाई थी: “अब तक, हिंदू जनता उनकी बातों को गंभीरता से ले रही थी, लेकिन अब यह पुष्टि हो गई है कि अंबेडकर द्वारा लाया गया हिंदू कोड बिल, हिंदू धर्म को नष्ट करने की उनकी साजिश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यदि उनके जैसा व्यक्ति उनका कानून मंत्री बना रहेगा तो यह हिंदुओं का बड़ा अपमान और शर्म की बात होगी और हिंदू धर्म पर कलंक होगा।
यूसीसी की मांग उभरते महिला आंदोलन की तरफ से भी आई थी, और सत्तर के दशक की शुरुआत में मथुरा बलात्कार मामले के बाद इसे और अधिक मजबूती से व्यक्त किया गया था। महिला आंदोलन के कुछ वर्गों की धारणा यह थी कि कानून में एकरूपता से न्याय मिलेगा।
इसके विपरीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने 23 अगस्त 1972 को ऑर्गेनाइजर के लिए केआर मलकानी को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि यूसीसी भारत की विविधता को नुकसान पहुंचाएगी।
इस तर्क में कोई दम नहीं है कि यूसीसी राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा। अधिकांश महिला समूह भी लैंगिक न्याय की दिशा में एकरूपता के विचार से दूर चले गए हैं। वे पूछते हैं कि तलाक, विरासत और बच्चों की अभिरक्षा में लैंगिक न्याय कैसे हो सकता है। क्या विभिन्न मौजूदा संहिताओं से कानूनों को हटाने से यह लक्ष्य हासिल हो जाएगा?
दूसरा सवाल यह है कि क्या यूसीसी को सिर्फ एक आदेश द्वारा लागू किया जा सकता है? क्या यूसीसी लागू करके पारंपरिक प्रथाओं को ख़त्म किया जा सकता है? यह लाख टके का सवाल है। समुदायों के भीतर बदलाव लाने और लैंगिक न्याय के लिए काम करने की जरूरत है। विविध समुदायों के तथाकथित प्रवक्ता समग्र रूप से समुदाय की राय और विशेष रूप से महिलाओं की राय को प्रतिबिंबित नहीं कर रहे हैं। पुरुषों ने सामुदायिक नेतृत्व की भूमिका निभाई है, जबकि हम लैंगिक न्याय पर सवाल उठा रहे हैं, इस पर भी सवाल उठाने की जरूरत है। विभिन्न समुदायों के भीतर महिलाओं में बढ़ते असंतोष को पहचानने की जरूरत है और कानूनों को संशोधित करने में या बदलने के लिए उस असंतोष को केंद्रीय कारक के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है।
भाजपा का दावा है कि वह यूसीसी के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाएगी, यह सभी मामलों में एक खोखला दावा है। यह अपने शासन के नौ वर्षों में विभिन्न समुदायों के भीतर सुधारों की शुरुआत कर सकती थी। विभिन्न समुदायों की महिलाएं अपनी चिंताओं को उजागर करती रही हैं, लेकिन उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। कुल मिलाकर, अल्पसंख्यकों के बीच बढ़ती असुरक्षा और रूढ़िवादी तत्वों की बढ़ती सामुदायिक ताक़त, स्वस्थ कानूनी सुधारों पर एक मजबूत ब्रेक लगाती है।
भाजपा का लक्ष्य धार्मिक आधार पर समुदायों का ध्रुवीकरण करना है; इसलिए, यह यूसीसी के बारे में बात कर रही है। किसी भी ईमानदार प्रयास के लिए दोहरे प्रयासों की जरूरत होगी: इसलिए, इसमें सभी सामाजिक समूहों में समुदाय के नेतृत्व में होने वाले सुधार और लैंगिक न्याय शामिल हैं। हां या ना कहने की बजाय यूसीसी के मसौदे को सार्वजनिक रूप से पेश करने की जरूरत है। उम्मीद है कि मुस्लिम समुदाय के बीच की आवाजें कानूनी बदलावों का आंख मूंदकर विरोध करने के बजाय, इस मसौदे को सार्वजनिक करने की मांग करें।
दरअसल, गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने वाली भाजपा को महिलाओं को सशक्त बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन वह इस बात को अच्छी तरह से जानती है कि मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन यूसीसी का विरोध करने के नाम पर खूब चिल्लाएंगे। इससे आगामी लोकसभा चुनाव से पहले चुनावी लाभ को बढ़ाने के लिए समुदायों का ध्रुवीकरण करने की उसकी योजना को मदद मिलेगी। राजनीतिक ताकतों को एक साथ खड़े होने और इस पर राय देने से पहले, सरकार से यूसीसी के मसौदे के बारे में पूछने की जरूरत है कि आखिर मसौदा कहां है?
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में मूल रुप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
Uniform Civil Code Question Indians Must ask: Where is the Draft?
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।