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बढ़ती बेरोज़गारी पर इतनी ख़ामोशी क्यों है, मोदी जी?

बेरोज़गारी दर फिर से 8 प्रतिशत को पार कर गई है, और युवा बेरोज़गारी नियंत्रण से बाहर जाती दिख रही है।
unemployment

नई दिल्ली: बेरोज़गारी पर सरकार और उसके हाँकने वाले नेताओं की ओर से खामोशी है। न तो कर्मकांड के दावे और न ही कोई वादे किए जा रहे हैं – तब कोई भी यह सोचेगा कि भारत में नौकरियों का कोई संकट ही नहीं है! फिर भी बेरोज़गारी की निरंतर दर, विशेष रूप से युवाओं में, परिवारों को तबाह करना जारी रखे हुए है। इस साल अगस्त में, बेरोज़गारी एक बार फिर 8 प्रतिशत के स्तर को पार कर गई है, जो पिछले एक साल अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के नवीनतम अनुमानों के अनुसार, शहरी बेरोजगारी 9.6 प्रतिशत को छू चुकी है जो पहले 8.3 प्रतिशत थी। दो साल से अधिक समय पहले यानि महामारी शुरू होने से पहले, हर महीने बेरोज़गारी औसतन 7-8 प्रतिशत  की सीमा में बनी हुई है। यह वह बहुत भारी कीमत है जो भारत के लोग हर साल लाखों नौकरियों का वादा करने वाली सरकार को चुनने के एवज़ में चुका रहे हैं।

नियोजित या नौकरीशुदा व्यक्तियों की कुल संख्या 40 करोड़ से नीचे के दायरे में बनी हुई है। अगस्त में इसका अनुमान 39.5 करोड़ था, जो पिछले महीने के 39.7 करोड़ से कम है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है। दो साल पहले, सितंबर 2020 में, जब देश अभी भी महामारी से जूझ रहा था, नियोजित व्यक्तियों की संख्या 39.8 करोड़ थी। ऐसा लगता है कि जहां तक नौकरियों का सवाल है, महामारी के बाद तथाकथित रिकवरी या बाउंस-बैक यानि अर्थव्यवस्था का ऊपर चढ़ना नाटकीय रूप से विफल हो गया है।

इस वर्ष की स्थिति मौसम की अनिश्चितता के कारण अतिरिक्त नाजुकता से भरी है। सबसे पहले, एक अभूतपूर्व गर्मी की लहर थी और फिर खरीफ के लिए बुवाई में देरी का होना था - जो बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार देती है - बारिश में देरी और बाढ़ के कारण से बाधित हुई है। लेकिन, अगर कोई इन उतार-चढ़ावों को छोड़ भी दे, तो यह तथ्य कि कुल रोज़गार अभी भी लगभग 40 करोड़ के दायरे में अटका हुआ है, बहुत चिंताजनक मसला है।

युवाओं के लिए लुप्त होती नौकरियां

नीचे दिया गया चार्ट, सीएमआईई के आंकड़ों पर भी आधारित है, जो एक चौंकाने वाली तस्वीर प्रस्तुत करता है कि कैसे बहुप्रतीक्षित 'जनसांख्यिकीय लाभांश' बेरोज़गारों के समुद्र में बिना किसी निशान के डूब गया है। 15 से 24 वर्ष के आयु वर्ग के मामले में, मार्च 2017 में नियोजित व्यक्तियों की संख्या निर्णायक रूप से लगभग 21 प्रतिशत से घटकर मार्च 2022 में 10 प्रतिशत से कुछ अधिक ही रही है, जो पांच वर्षों में आधी हो गई है।

बेशक, इस आयु वर्ग का एक काफी बड़ा वर्ग श्रम शक्ति में बिल्कुल भी नहीं है - वे छात्र भी हैं। इसलिए इन नंबरों की तुलना वृद्धावस्था समूहों से नहीं की जानी चाहिए। लेकिन इस चेतावनी के बावजूद, रोजगार दर में लगातार गिरावट नौकरी की गंभीर स्थिति को दर्शाती है। ध्यान दें कि यह गिरावट महामारी से पहले शुरू हुई थी और इसलिए, इसे केवल लॉकडाउन और प्रतिबंधों के प्रभावों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। यह अर्थव्यवस्था में नौकरियों की कमी के कारण है।

वास्तव में, सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है कि हाल के वर्षों में जिन लोगों ने अपने को छात्रों के रूप में रिपोर्ट किया है उनकी संख्या बढ़ी है, फिर भी यह इन युवाओं के लिए काम में भारी कमी के लिए जिम्मेदार नहीं है। 2016-17 और 2021-22 के बीच, कामकाजी उम्र की आबादी में छात्रों की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत हो गई है। इनमें से ज्यादातर 15-24 आयु वर्ग के होंगे।

श्रम बल में युवाओं की गिरती हिस्सेदारी

इसी अवधि में, श्रम बल में युवाओं की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत से गिरकर 13 प्रतिशत हो गई है। दूसरी ओर, 40-59 वर्ष आयु वर्ग के व्यक्तियों की हिस्सेदारी 42 प्रतिशत से बढ़कर 57 प्रतिशत हो गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में श्रम शक्ति युवा होने के बजाय वृद्ध होती जा रही है! यहां तक कि अन्य युवा आयु वर्ग में भी गिरावट दिखाई दी हैं: 30-39 वर्ष आयु वर्ग के व्यक्तियों की हिस्सेदारी इसी अवधि में 25 प्रतिशत से घटकर 21 प्रतिशत हो गई है।

इन सबका मतलब यह है कि घातक रोजगार संकट युवा लोगों को श्रम बल से पूरी तरह बाहर जाने के लिए मजबूर कर रहा है। यह एक गंभीर स्थिति है और नौकरियों के संकट की गंभीरता का सूचक है। अधिकांश युवा व्यक्ति वृद्ध व्यक्तियों की तुलना में अधिक शिक्षित हैं। इस शिक्षा के साथ, वे कम वेतन वाली, असुरक्षित नौकरियां करने को तैयार नहीं हैं जो वर्तमान में उपलब्ध हैं। वे कुछ समय बाद, बेहतर नौकरी पाने की उम्मीद में इंतजार करना पसंद करेंगे। इस बीच, वे शायद अपने परिवार की आय पर निर्भर हैं। कुछ नौकरी के लिए बेहतर तरीके से तैयार होने की उम्मीद में खुद को शैक्षिक या कौशल विकास पाठ्यक्रमों में दाखिल कर सकते हैं। यह छात्रों की हिस्सेदारी में वृद्धि की व्याख्या करता है।

सरकार हुई लक़वाग्रस्त 

नरेंद्र मोदी सरकार ने नई उत्पादक क्षमता या बुनियादी ढांचे में निवेश करके रोज़गार पैदा करने के लिए अपना पूरा विश्वास बड़े व्यवसायों या बड़े पूँजीपतियों में रखा था। यह दावा किया गया था कि व्यवसायों को आसान ऋण, उन्हें कर रियायतें देने और ऋण माफ़ करने से व्यवसाय के विकास में सुविधा होगी। सार्वजनिक निवेश को पीछे हटना चाहिए ताकि निजी निवेशक आगे आ सकें - यही इसका तर्क था। सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि यह घातक तर्क विभिन्न देशों में बार-बार गलत साबित हुआ है। और भारत में यह एक बार फिर गलत साबित हो गया है। महामारी से पहले औद्योगिक विकास धीमा था, जो गैर-काल्पनिक लॉकडाउन के कारण करीब-करीब समाप्त हो गया था, और महामारी प्रतिबंधों को हटाने के बाद भी और सरकारी समर्थकों के बीच जश्न मनाने के बावजूद भी यह आज तक उठ नहीं पाया है। 

मोदी सरकार जिस विचारधारा के पिंजड़े में फंसी हुई है, उसके अलावा उसके पास रोजगार पैदा करने का और कोई विजन नहीं है। वह ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी राहत के मामले में भी आवंटन बढ़ाने में काफी सावधान है। नौकरियों की बेताब तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन करने वाले बेरोजगारों की फौज के बावजूद शहरी बेरोज़गारी को छुआ तक नहीं गया है।

शायद, इस शानदार विफलता को छिपाने के लिए ही सत्ताधारी दल और उसके सहयोगी, विशेषकर युवाओं के बीच बढ़ते असंतोष को शांत करने और मोड़ने के लिए छद्म राष्ट्रवादी बयानबाजी, कट्टरता और सैन्यवाद का तेजी से सहारा ले रहे हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Why This Silence on Unemployment, Mr Modi?

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