दलित और आदिवासी महिलाओं के सम्मान से जुड़े सवाल
यूं तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस हर वर्ष 8 मार्च को मनाया जाता है। और इसमें कुछ महिलाएं जो सफलता के शिखर छू चुकी होती हैं वो इस दिन को जश्न के रूप में मनाती हैं। अनेक जगहों पर कार्यक्रम होते हैं। गोष्ठियां होती हैं। चर्चाएं होती हैं। महिला अधिकारों की बात की जाती हैं। स्त्री-पुरुषों की बराबरी की बात की जाती है। महिलाओं को उनके मानवीय अधिकारों के लिए जागरूक किया जाता है। कुछ नारे भी उछाले जाते हैं जैसे हम भारतीय नारी हैं, फूल नहीं चिंगारी हैं।
क्या है इतिहास
इस सन्दर्भ में बता दें कि साल 1910 में कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं द्वारा एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इसी सम्मेलन में हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाने का सुझाव दिया गया। यहीं से 8 मार्च के दिन दुनिया भर में अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का जश्न मनाया जाने लगा। सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने न्यूयॉर्क में महिला श्रमिकों की हड़ताल के सम्मान में इसे समर्पित किया, जहां महिलाओं ने कठोर कामकाजी परिस्थितियों का विरोध किया था।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन एक श्रम आंदोलन था, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने सालाना आयोजन के तौर पर स्वीकृति दी। इस आयोजन की शुरुआत का बीज 1908 में तब पड़ा, जब न्यूयॉर्क शहर में 15 हज़ार महिलाओं ने काम के घंटे कम करने, बेहतर वेतन और वोट देने की माँग के साथ विरोध प्रदर्शन किया था।
दलित और आदिवासी महिलाओं की सुरक्षा का सवाल
हाल ही में (3 मार्च 2022) को उत्तर प्रदेश में सहारनपुर में एक 16 वर्षीया दलित स्कूली छात्रा का उसी के स्कूल के वरिष्ठ छात्र ने दुष्कर्म किया और उसे जबरन जहर पिला कर मार दिया। जाहिर है कि लॉ एंड आर्डर की दुहाई और महिलाओं की सुरक्षा का दम्भ भरने वाली उत्तर प्रदेश सरकार के शासन काल में दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं है। समाज की जो पितृसत्ता और जातिवादी मानसिकता है उसके कारण दबंगों के लिए दलित महिलाएं इजी टारगेट होती हैं। दलित महिलाओं का जाति, लिंग और गरीबी के कारण तिहरा शोषण होता है।
इसी प्रकार आदिवासी महिलाओं के साथ दुष्कर्म और अन्य अत्याचारों की ख़बरें आती रहती हैं। उन्हें भी आसान शिकार समझा जाता है। आखिर क्यों सुरक्षित नहीं हैं दलित और आदिवासी महिलाएं?
दलित आर्थिक आधिकार आन्दोलन-राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान (DAAA-NCDHR) की महासचिव बीना पालिकल कहती हैं कि –“देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुए 7 दशक से अधिक हो गए पर लैंगिक असमानता के कारण दलित महिलाएं जाति के चंगुल और भेदभाव से मुक्त नहीं हुई हैं। हम सभी क्षेत्रों में बराबरी की मांग करते हैं। हम अपने गरिमा से जीने के अधिकार की मांग करते हैं।"
लेक्चरर, दलित लेखिका और कवियत्री पूनम तुषामड कहती हैं कि – “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को हमने विदेश से अडॉप्ट किया है। ये वहां की श्रमिक महिलाओं का क्रांतिकारी कदम था। वे काम के घंटे कम करना चाहती थीं। लेकिन हमारे यहां जो महिला दिवस मनाया जाता है तो उसमे श्रमिक महिलाओं का योगदान नगण्य होता है। जो यहाँ का उभरता हुआ एलिट वर्ग है उसी ने इसे पूरी तरह से अडॉप्ट किया है। साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा और सामजिक स्ट्रक्चर पर भी। एलिट वर्ग की महिलाओं ने इसे मनाना शुरू किया – अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए।
एलिट वर्ग का फेमिनिज्म है वह बहुत हद तक इससे उभर चुका है। क्योंकि उसके पास साधन हैं। वे अपने हक़ –अधिकारों के लिए कोर्ट में जा सकती हैं।
श्रमिक महिलाओं तक शिक्षा बहुत देर से पहुँची। हमारे दलित समाज में तो दो-तीन परसेंट महिलाएं ही ऐसी हैं जो शिक्षित हैं और अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। अगर वो असर्ट करें तो वो बड़ी बात नहीं है। सही मायने में अगर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाना चाहते हैं तो जमीनी स्तर पर जो महिलाएं हैं वहां तक शिक्षा और संविधान में उनके क्या अधिकार हैं उनको वहां तक लाना होगा। जब वह अपने अधिकारों को जानेगी और जिन अधिकारों की प्राप्ति वह नही कर सकी है चाहे वह सामजिक कारण से हो या आर्थिक कारण से चाहे पैट्रियाकी के कारण या फिर पैसे का अभाव, वह कोर्ट में नहीं जा सकती है। एप्लीकेशन दायर नहीं कर सकती है। शिक्षा का अभाव है। पारंपरिक जो रूढीवादी समाज है, जो सबसे निचला तबका है, जिसे कथित सवर्णवादी समाज सबसे नीचे रखता है वहां तो महिलाओं को कई स्तरों पर लड़ना पड़ता है। क्योंकि वे साधन-संपन्न नहीं है। चेतनाशील नहीं हैं। उनको चेतना के अभाव में रक्खा जाता है। इस माइंड-सेट को चेंज होने की भी जरूरत है। जो पितृसत्ता से आ रहा है। पितृसत्ता केवल ऊपर के वर्ग तक ही असर नहीं करती। जिसे उपेक्षित समाज कहा जाता है जहां तक शिक्षा नहीं पहुँची है चाहे वह आदिवासी समाज हो, ग्रामीण क्षेत्रों में हो या शहरों में हो, शहरों में भी जो मजदूर वर्ग या श्रमिक समाज है वो कौन है। ये सारे श्रमिक दलित उपेक्षित वर्ग से ही आते हैं। वहां तो पुरुषों के पास शिक्षा नहीं हैं फिर महिलाओं की क्या बात की जाए। श्रमिक वर्ग की महिलाएं किसी तरह संघर्ष करके पढ़ भी जाती हैं तो भी उन्हें बहुत सारी चीजें चाहिए होती हैं। साधन चाहिए होते हैं। यही कारण है कि यदि हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को देखें तो एक विशेष वर्ग द्वारा उसका सेलिब्रेशन किया जाता है। एक हद तक चलो ठीक है वह फैशन बन गया है। उसे हम वहां तक देख सकते हैं फैशन के तौर पर।
वैसे तो मेरी जैसी दलित वर्ग की शिक्षित महिलाएं जो ऊंगलियों पर गिनी जा सकती हैं। हम लोग भी वूमेंस डे को सेलिब्रेट करती हैं। लेकिन सही मायने में इसे सेलिब्रेट करना तब होगा जब श्रमिक महिलाओं तक वह चेतना पहुंचाई जाए। और ये काम केवल सरकार पर थोप कर हम अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते। कथित उच्च वर्ग की जो पढी-लिखी चेतनाशील महिलाएं हैं उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि समाज को समानता के स्तर पर लेकर आना। एक लेवल पर लेकर आना। सिर्फ बात करने से या महिला दिवस सेलिब्रेट करने से बात नहीं बनेगी। उन महिलाओं को जमीनी स्तर पर आकर श्रमिक, दलित, आदिवासी और अन्य हाशिये की महिलाओं को उनके लोकतांत्रिक अधिकार बताने होंगे। जब ये महिलाएं शिक्षित होंगी। जागरूक होंगी। तब इन महिलाओं के साथ महिला दिवस मनाना सही अर्थों में सार्थक होगा।"
सफाई कर्मचारी आन्दोलन की मानसी कहती हैं कि एक तो समाज की महिलाओं में जागरूकता की कमी है। लेकिन जो महिलाएं अपने अधिकारों के बारे जानती भी हैं वो उन्हें अपने जीवन में अपने अधिकारों की मांग नहीं करती हैं। हमारे समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है कि महिलाएं अपने अधिकारों को अपाने के लिए पहल ही नहीं करतीं।
मानसी आगे कहती हैं कि घर में पति-पत्नी को अपने बच्चों के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए कि बच्चों में ऐसे संस्कार आएं कि वे घर और बाहर महिलाओं की इज्जत करें। उनके प्रति कोई गलत या बुरा विचार न रखें। उनमे इस तरह की विचारधारा बने की लड़का-लड़की स्त्री-पुरुष दोनों को इज्जत से जीने का समान अधिकार है। यदि ऐसा होगा तो निश्चित ही भविष्य में स्त्री-पुरुष गैर बराबरी का भाव समाप्त हो जाएगा। लेकिन इसकी शुरुआत घर से ही करनी होगी।
ऐसा भी नहीं है की सिर्फ गरीब और अनपढ़ महिलाएं ही अपने अधिकारों से वंचित हैं या समाज में बराबरी के अधिकार से महरूम हैं। उच्च शिक्षित दलित-आदिवासी महिलाओं के साथ शिक्षा संस्थानों में, खेल, मेडिकल क्षेत्र में, सरकारी और निजी क्षेत्रों में, कहीं भी उन्हें उनका हक नहीं मिलता। हर जगह उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है। कई जगह तो उन्हें “कोटे वाली” कहा जाता है।
आख़िर क्यों है ऐसा?
हमारे देश की सामाजिक संरचना इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। समाज में जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर, भाषा के आधार पर, नस्ल के आधार, क्षेत्र के आधार पर, संस्कृति के आधार काफी विषमता है। भले ही हमारा संविधान सारी विभिन्नताओं से पहले देश के सभी नागरिकों को बराबरी के अधिकार देता है। पर संविधान के बारे में समाज के बड़े वर्ग को पता ही नहीं होता है। इसके लिए हम कह सकते हैं कि सही शिक्षा का अभाव भी एक बड़ा कारण होता है। हमारे पाठ्यक्रमों में भी इन बुराइयों के प्रति आगाह नहीं किया जाता। हालांकि आजकल कुछ जगह समाज विज्ञान में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य हाशिए के लोगों के बारे में पढाया जाने लगा है। पर ये काफी नहीं है।
हमारे संविधान की जो प्रस्तावना है उसकी छठी कक्षा से बारहवीं तक अच्छे से व्याख्या की जानी चाहिए। संविधान की इस उद्देशिका में ही पूरे संविधान का सार समाहित है। इससे काफी हद तक लोगों की मानसिकता बदलेगी।
सम्मान और गरिमा हर महिला का हक़
महिलाएं आधी दुनिया हैं। सम्मान और बराबरी की हकदार हैं। पर हमारे यहां सामान्य वर्ग की महिलाओं को भी बराबरी का अधिकार प्राप्त नहीं है तो फिर दलित आदिवासी और अन्य हाशिए की महिलाओं को बराबरी के अधिकार मिलना आसान नहीं हैं। लेकिन इसके लिए जागरूकता बहुत जरूरी है। जागरूकता के लिए वैज्ञानिक शिक्षा बहुत जरूरी है। जिससे समाज की महिलाओं में चेतना जाग्रत हो और वे अपने हक़-अधिकारों के लिए लड़ना सीखें। और वर्षों से जिस पितृसत्ता ने उन पर कब्ज़ा कर रखा है, पितृसत्ता जो लैंगिक गैर-बराबरी में विश्वास रखती है, उसका खात्मा हो सके। इसी प्रकार समाज से जाति समाप्त हो जिससे जातिगत भेदभाव समाप्त हो सके।
यदि हमारे भारतीय समाज से लैंगिक-गैर बराबरी और जातिवाद का खात्मा हो जाए, जो कि वैज्ञानिक शिक्षा से संभव है, तभी इस देश की दलित और आदिवासी महिलाओं पर अत्याचार समाप्त हो सकेगा। उन्हें गरिमा से जीने का अधिकार मिलेगा और वे भी ससम्मान अपना जीवन जी सकेंगी। सही अर्थों में तभी महिला दिवस मनाना सार्थक होगा।
लेखक सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुड़े हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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