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क्या न्यायपालिका अपनी ज़िम्मेदारी की अनदेखी कर सकती है?

भारत का संविधान मतभेदों के साथ समानता का समर्थन करता है और न्यायपालिका को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का अधिकार देता है। न्यायपालिका को इसी भूमिका में आगे बढ़ना चाहिए।
क्या न्यायपालिका अपनी ज़िम्मेदारी की अनदेखी कर सकती है?
Judiciary logo. Image Courtesy: Wikimedia Commons

भारतीय समाज अखंड बहुसंख्यकवाद की ओर बड़े पैमाने पर बदलाव के दौर से गुजर रहा है। यह तेजी से निरंकुशअनुदार और प्रतिगामी होता जा रहा हैजो धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए अपमानजनक स्थिति को बढ़ावा दे रहा है। धार्मिक आधार पर अत्यधिक ध्रुवीकृत भारत अपने मूलभूत मूल्यों के विपरीत हो रहा है। पहले कानून मंत्री और भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष बीआर अंबेडकर ने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की कल्पना की थी जो महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत और रवींद्रनाथ टैगोर के सार्वभौमिकता के दृष्टिकोण को सम्मिलित करता है। संविधान की प्रतिज्ञा थी कि हर समुदायखासकर अल्पसंख्यकों सेउनके खान-पानविवाह और रिश्तेदारी प्रथाओंकपड़ों के पसंद-नापसंदप्रार्थना और धार्मिक सभा के मानदंडों के लिए सवाल नहीं किया जाएगा।

हालांकिभारतीय अल्पसंख्यकों को हर दिन घृणाधमकी और अपमान का सामना करना पड़ता हैयहां तक कि उनके नागरिकता अधिकारों को भी अक्सर चुनौती दी जाती है। यह भूल जाने जैसा है कि कोई भी समुदाय लंबे समय के बाद प्राप्त अनुभवों से अपनी प्राथमिकताओं को आंतरिक रूप से मूल्यवान और पोषित पाता है। अति-वैश्वीकरण के दौर मेंसूचनाकला और संस्कृति और उपभोक्ता उत्पादों के मुक्त प्रवाह के साथसीमा पार प्रवास का उल्लेख न करने के साथ-किसी भी समुदाय को विशिष्टता के बिना कल्पना करना मुश्किल है। वास्तव मेंजो लोग अन्य समुदायों का विरोध करते हैं वे भी अपने ही जीवन जीने के तरीके और मूल तत्व को संरक्षित करना चाहते हैं।

ऐसा नहीं है कि जीवन की प्राथमिकताएं हमेशा के लिए तय होती हैं या हमें उनका मुकाबला या सुधार नहीं करना चाहिए। जबकि प्रबुद्ध सामाजिक परिवर्तन और विचारों के लिए संघर्ष आवश्यक है और बुरे इरादे का बहुसंख्यकवाद अवांछनीय है। जब स्पष्ट राजनीतिक हित बाद वाली चीजों को मदद करते हैं तो यह सांस्कृतिक-आर्थिक भय और मनोवैज्ञानिक अपमान को बढ़ावा देता है। ऐसी स्थिति में हमें "ज्ञान-मीमांसा की जिम्मेदारीके महत्व को याद रखना चाहिए। भारतीय न्यायपालिका की ज्ञान-मीमांसा बेहतर है। दूसरे शब्दों मेंइसकी स्मृतिकल्पनाधारणातर्कसमझ और ज्ञान समान क्षमता वाले एक सामान्य नागरिक से कहीं अधिक हैं। भारत में जो कुछ हो रहा हैउसके लिए न्यायपालिका को संविधान के रक्षक के रूप में कार्य करने की आवश्यकता है।

संविधान मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के तहत इन्हें सुरक्षित करने के लिए राज्य कर्तव्यबद्ध है। कानून के समाजशास्त्र के एक प्रख्यात विद्वान मार्क गैलेंटर जिन्होंने 1998 की प्रसिद्ध पुस्तक 'हिंदूइज्मसेक्युलरिज्म एंड द इंडियन ज्यूडिशियरीलिखी। उन्होंने पाया कि "भारत में दंड कानून धार्मिक संवेदनाओं का असाधारण तरीके से चिंताशील है और अपराध से उनकी रक्षा करने का वचन देता है। चुनावी कानून प्रचार प्रसार में धार्मिक अपीलों को खत्म करने का प्रयास करता है।"

इसके अलावाभारत में यह सामान्य बोध है कि धर्मनिरपेक्षता हर समुदाय के समय के अनुसार प्राप्त जीवन के तरीकों की रक्षा करती है। इसमें साहित्यकलासांस्कृतिक प्रथाओंशिक्षाखेल गतिविधियोंआर्थिक आदान-प्रदानसामाजिक संपर्कराजनीतिक भागीदारीमित्रताविश्वास और बंधुत्व के साथ लोगों की सहज भागीदारी शामिल है। जाहिर हैन्यायपालिका इस बात से अवगत है कि नागरिकों को पता है कि राज्य के कर्तव्यों और न्यायपालिका की जिम्मेदारियों के साथ-साथ उसके मौलिक अधिकार क्या हैं। हालांकिसंवैधानिक मूल्यों को सुदृढ़ करने के लिए न्यायपालिका में निहित क्षमता और अधिकार आनुपातिक नहीं हैं। यह क्षमता न्यायपालिका के सदस्यों का एक विशेषाधिकार है जो अधिकांश आम नागरिकों (और राज्य समकक्षोंसे मेल नहीं खा सकता है। संवैधानिक प्राधिकरणों के रूप में मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अदालतें अधिक जिम्मेदार स्थिति में हैं।

मौलिक अधिकारों से समझौता करके और निर्देशक सिद्धांतों की अवहेलना करके अपने स्वार्थ से प्रेरित बहुसंख्यक समुदायों या राज्य सत्ता के अपने लाभ के लिए प्रयास करने की पूरी संभावना है। हालांकिन्यायपालिका ऐसे समझौतों के परिणामों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती है। और न्यायपालिका में नागरिकों के विश्वास का एक अंतर्निहित कारण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह भविष्य को देखते हुए निर्णय ले सकती है जो कि कानून की अदालतों से न्याय मांगने वालों की क्षमता से कुछ परे है। इस भरोसे को हल्के में नहीं लेना चाहिए। इसके बजाययह अदालतों पर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को पूरा करने और अपने निर्णयों के माध्यम से इसकी गारंटी को मान्य करने के लिए निर्भर है।

न्यायपालिका नागरिकों के निरंतर विश्वास का दावा कर सकती है जब अल्पसंख्यक समुदाय सहित समाज के सभी सदस्य जब निर्णय लेने के लिए जाएं तो आशान्वित महसूस करें। यह निर्णयों का पालन करने की लोगों की इच्छा के जरिए भी जारी रहता हैतब भी जब स्थिति उनके खिलाफ हों। हालांकिअगर यह भावना फैलती है कि नागरिकताया किसी पेशे को अपनानेकिसी के खान पानकपड़े के पसंद नापसंद या पर्सनल लॉ को मानने जैसे अधिकारों से समझौता किया जा रहा हैतो यह भरोसा बिखरना शुरू हो जाता है। संवैधानिक प्राधिकारियों के विशेषाधिकार-उनकी ज्ञान-मीमांसा की श्रेष्ठताऔर भारतीय न्यायपालिका की नैतिक शक्ति को देखते हुएयह कम होते आत्मविश्वास का संकेत देगा। यह सच है कि मुसलमान जिनकी आलोचना हर नागरिक की निगाह में हो रही है।

यूनाइटेड नेशन्स स्पेशल रैपर्चर ऑन ह्यूमन राइट्स ने अप्रत्यक्ष रूप से कानून के शासन को सुनिश्चित करने और अल्पसंख्यकों के लिए न्याय को कायम रखने में न्यायपालिका की भूमिका पर इशारा किया है जब उसने सरकार को ऐसा करने में उसकी विफलताओं के बारे में सीधे सचेत किया था। इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। भरोसा उतना ही अर्जित किया जाना चाहिए जितना दिया जाता है।

लेखक हैदराबाद स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

https://www.newsclick.in/can-

 

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