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अलीगढ़ के एमएओ कॉलेज में औपनिवेशिक ज़माने की सत्ता का खेल

अलीगढ़ आंदोलन और औपनिवेशिक उत्तर भारतीय मुस्लिम अभिजात वर्ग के इतिहास पर मौजूदा साहित्य में इफ़्तिख़ार आलम ख़ान का अहम योगदान।
 Aligarh
फ़ोटो: साभार: पीटीआई

सामाजिक-राजनीतिक इतिहास भारतीय शैक्षणिक संस्थानों का एक ऐसा विषय है, जिस पर अकादमिक शोध अपेक्षाकृत कम ही हुआ है। डेविड लेलीवेल्ड की अलीगढ़ की 1978 वाली पहली पीढ़ी इसका उत्कृष्ट अपवादों में से एक है। लेलीवेल्ड ने जिन स्रोतों की खोज की है, उनकी गहरी अंतर्दृष्टि, और आगे के शोध के लिए उनके सुझाये कई पहलू शोधकर्ताओं के लिए आज भी ऐसी रौशनी का काम करते हैं, जो उनका मार्गदर्शक बनी हुई है।

प्रोफ़ेसर इफ़्तिख़ार आलम ख़ान उन विरले विद्वानों में से हैं, जिन्होंने लेलीवेल्ड और उनके कार्यों से ज़बरदस्त फ़ायदा उठाया है। 1998 से 2001 तक उन्होंने सर सैयद अकादमी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मानद निदेशक के रूप में कार्य किया है। विज्ञान के शिक्षक होने के बावजूद वह सर सैयद, उनके साथियों, संस्थानों और उनके निजी और सार्वजनिक जीवन और उनके दौर पर उत्कृष्ट कार्यों को लगातार सामने लाने को लेकर अभिलेखीय दस्तावेज़ों को खंगालते रहते हैं। इफ़्तिख़ार का प्राथमिक स्रोतों, विश्लेषणात्मक क्षमताओं और अद्भुत उर्दू गद्य के साथ जो जुड़ाव है, वह सराहनीय है। वह उस दौर के विशद विवरण और मिज़ाज को पकड़ते हैं, जिस पर वह लिखते रहते हैं। अपने इस सतर्क ऐतिहासिक शोध में उस शास्त्रीय इतिहास-लेखन की सख़्ती से पालन करते हैं, जिसमें एक ग़ज़ब की साहित्यिक महक अपनी अभिव्यक्ति पाती है।

उनकी उर्दू ज़बान पर लिखी गयी हालिया किताब, रूफ़ाक़ा-ए-सर सैयद: रफ़ाक़ात, रक़ाबत व इक़्तिदार की कश्मकश समीक्षाधीन है। सर सैयद पर लिखी गयी एक श्रृंखला की यह उनकी तेरहवीं किताब है।

इस पतले खंड में सर सैयद के तीन साथियों- समीउल्लाह (1834-1908), मेहदी हसन मोहसिन-उल-मुल्क (1837-1907) और मुश्ताक़ हुसैन विक़र-उल-मुल्क (1841-1917) के प्रोफ़ाइल शामिल हैं। लेकिन, इसमें इस प्रोफ़ाइल से कहीं ज़्यादा और भी कुछ है, जैसे कि लेखक सर सैयद के साथियों के विरोधाभासी विश्वदृष्टि, औपनिवेशिक आधुनिकता के साथ उनकी प्रतिबद्धता और जुड़ाव, और उनकी शख़्सियत की ख़ुसूसियत का एक तरह का मनोविश्लेषण आदि। उनमें कुछ ख़ास हैं-सत्ता का खेल, साज़िश और वह डाह, जिसमें वे शामिल थे, और ख़ास तौर पर उस एमएओ कॉलेज के मामलों में उनके आचरण और इरादे के उजले और स्याह, दोनों तरह के पहलू, जिस पर सर सैयद आवासीय आधुनिक शिक्षा कॉलेज का निर्माण कर रहे थे।

दिलचस्प बात यह है कि यह खंड सर सैयद के साथ उन तीन साथियों के अहम मतभेद को सामने लाता है, जो एमएओ कॉलेज पर नियंत्रित करने को लेकर चल रहे सत्ता संघर्ष के जटिल और अबतक सामने नहीं आये पहलुओं का एक हिस्सा है। इन साज़िशों के बावजूद, इफ़्तिकार दिखाते हैं कि सर सैयद ने उल्लेखनीय नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया था और उन सभी को अपने साथ लेकर चले थे। इस किताब में ऐसी कोई टिप्पणनी नहीं है, जो विश्वसनियता के लिहाज़ से बिना साक्ष्य और संदर्भ के हों। इस किताब से समीउल्लाह, मोहसिन-उल-मुल्क और विक़ार-उल-मुल्क में आधुनिकता और परंपरा के बीच कश्मकश और अंतर्विरोधों के साथ-साथ औपनिवेशिक आधुनिकता और सुधारवादियों की सीमाओं का पता चलता है। उनमें से हर एक की मानवीय कमज़ोरियों को बिना किसी लाग-लपेट के सामने रख दिया गया है।

लेखक ने अपनी इस किताब में वर्ग चरित्र, क्षेत्रीय विशिष्टता और समग्र औपनिवेशिक संदर्भ को छोड़े बिना नये अभिलेखीय दस्तावेज़ों, निजी और आधिकारिक पत्राचारों, संस्मरणों और अन्य साक्ष्यों को शामिल किया है। मसलन, यह किताब तीनों की ओर से शुरू किये गये सैयद महमूद, सर सैयद के बेटे और कॉलेज सचिव पद के उत्तराधिकारी के ख़िलाफ़ बदनाम करने वाले अभियानों को उजागर करती है। ऐसा अक्सर एमएओ कॉलेज के यूरोपीय सदस्यों की मिलीभगत से हो रहा था। सैयद महमूद की शख़्सियत की कुछ कमज़ोरियों और सनक का फ़ायदा उठाते हुए उन्होंने कॉलेज मामलों पर अपनी पकड़ बनाने को लेकर उन्हें बाहर कर दिया था। सैयद महमूद के दुखद जीवन के आख़िरी कुछ सालों के दौरान उनकी शख़्सियत और चाल-चलन पर इन साज़िशों का ख़ास तौर पर नुक़सानदेह असर पड़ा था।

सैयद महमूद और सर सैयद की ज़िंदगी के व्यापक पहलुओं पर उनका जीवन-वृत्तांत का लिखा जाना तो अब भी बाक़ी। हालांकि, 2004 में मैक गिल यूनिवर्सिटी के एलन एम गेंथर के डॉक्टरेट शोध प्रबंध, "सैयद महमूद एंड द ट्रांसफ़ॉर्मेशन ऑफ़ मुस्लिम लॉ इन ब्रिटिश इंडिया" उनकी जीवन पर लिखा गया एक उत्कृष्ट और विस्तृत अध्याय है। यह अध्याय और भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा पर महमूद के लेखन पर गेंथेर का लिखा गया 2011 का निबंध हमारी जानकारी में बहुत इज़ाफ़ा करते हैं। हालांकि, प्रोफ़ेसर इफ़्तिख़ार कॉलेज प्रबंधन से महमूद को हटाये जाने को लेकर किये जा रहे दुर्भावनापूर्ण प्रचार और बदनाम किये जाने वाले उस अभियान को सामने लाते हुए उनकी जीवनी के ब्योरे से बाहर चल जाते हैं। मिसाल के तौर पर, मोहसिन-उल-मुल्क ने यह अफवाह फ़ैला दी थी कि महमूद नहीं, बल्कि उन्होंने ख़ुद मार्च 1898 में अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए 50 रुपये ख़र्च किये थे। इफ़्तिख़ार ने इस कहानी का खंडन करते हुए दिखाया है कि महमूद ने अपने पिता के चिकित्सा उपचार पर कहीं ज़्यादा रक़म का भुगतान किया था। इफ़्तिख़ार ने मोहसिन-उल-मुल्क का हवाला देते हुए 50 रुपये की इस रक़म पर सवाल उठाकर इस जानकारी को दुरुस्त कर दिया है। अगर हम घटनाओं के उनके इस ब्योरे पर भरोसा करने को लेकर ख़ुद को राज़ी भी कर लें, तो सवाल उठता है कि क्या सार्वजनिक क्षेत्र में परोपकार के इन कृत्यों की आत्मस्वीकारोक्ति को सामने लाना अशोभनीय नहीं है ?

बाक़ी दो के मुक़ाबले सत्ता के खेल (हालांकि वित्तीय मामलों में नहीं) के मामले में ज़्यादा जोड़-तोड़ वाले, चालाक और अनैतिक रहे मोहसिन-उल-मुल्क ने कॉलेज की बड़ी शैक्षिक चिंताओं पर राजनीति को प्राथमिकता देने के लिहाज़ से ख़ास तौर पर नुक़सानेदह भूमिका निभायी थी। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ मिलकर शिमला शिष्टमंडल में अमह भूमिका निभायी थी। क़रीब दस बड़ी मांगों वाले उनके चार्टर की पहली मांग एमएओ कॉलेज को एक ऐसे आवासीय विश्वविद्यालय बनाने को लेकर थी, जो इस उपमहाद्वीप के दूसरे कॉलेजों को संबद्ध कर सके। हालांकि, इस मांग को मांगों के आख़िरी पायदान पर रख दिया गया था।इस मांग का अनुरोध बिना किसी संबद्ध किये जाने के क्षेत्राधिकार के 1920 में जाकर पूरा हुआ। सत्ता में हिस्सेदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी और शैक्षणिक संस्थानों के नेटवर्क के विस्तार को प्राथमिकता सूची के आख़िर में रखा गया।इस इलाक़े और इस क्षेत्र के मुसलमानों पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ा।

राजनीतिक सत्ता में हिस्सा लेने की इस हड़बड़ी में प्रतीकात्मक रूप से चिह्नित किये जाने वाले अलीगढ़, बुलंदशहर और मुरादाबाद वाले पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में मुस्लिम ज़मींदार अभिजात वर्ग और "कचहरी तबके" की यह एक स्थायी चिंता थी। इस इलाक़े और इसके आसपास के कई मुस्लिम अभिजात वर्ग का आधुनिकतावादी एमएओ कॉलेज परियोजना के साथ एक मिली-जुली भावना या लगाव-दुराव वाला रिश्ता था। ऐसे में इन तीन शख़्सियतों ने पूर्व और पश्चिम के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को मिलाने के सर सैयद के स्पष्ट लक्ष्य के उलट, पारंपरिक प्रतिगामी तत्वों को संरक्षित किये जाने की मांग की।यही वजह है कि प्रोफ़ेसर इफ़्तिख़ार अब उस इलाक़े के मुस्लिम अभिजात वर्ग की ख़ासियत पर "अतरफ़-ए-सर सैयद" नाम से प्रस्तावित शीर्षक से एक किताब पर काम कर रहे हैं।यह वही इलाक़े हैं, हां सर सैयद ने काम किया था।

लेखक उस शैक्षिक सम्मेलन में सर सैयद के इन तीन साथी-उत्तराधिकारियों की भूमिका को लेकर विस्तार से नहीं बताते हैं, जो अफ़सोसनाक़ तरीक़े से एक राजनीतिक संगठन में बदल गया था। दुख की बात यह रही कि सर सैयद की मौत के बाद देश में कहीं भी एक भी आवासीय महाविद्यालय स्थापित नहीं हो सका। (जामिया मिलिया इस्लामिया, जो 1920 में स्थापित हुआ था, जो कि अलीगढ़ से जुड़े उन्हीं लोगों की कोशिश का नतीजा था, जिनके पास उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी विश्वदृष्टि थी। एक और अपवाद वह कॉलेज है, जिसे इस समय एएमयू का महिला कॉलेज कहा जाता है, जो कि इस शैक्षिक सम्मेलन में जुड़ा एकलौता अहम कॉलेज है)।

ख़ास तौर पर ग़लत प्राथमिकताओं और इस कॉलेज और अलीगढ़ आंदोलन के मूल लक्ष्यों से भटकाव ने सैयद महमूद को नाराज़ कर दिया था। लेखक का कहना है कि 1880 के दशक तक सर सैयद का क़द बेहद ऊंचा हो गया था। इसलिए, उनके क़रीबी साथियों पर कॉलेज को लेकर उनके नज़रिये के ख़िलाफ़ असंतोष व्यक्त करने को लेकर पहरा बिठा दिया गया था और उन्हें संयमित किया गया था। उनके सभी साथियों में से उनके बेटे ने अकेले ही अपना दृष्टिकोण रखा था और पूरी तरह सहमति जतायी थी। हालांकि, प्रोफ़ेसर इफ़्तिख़ार ने पाया कि इन तीनों योग्य पात्रों को महमूद बतौर कॉलेज सचिव स्वीकार्य नहीं हुए। सर सैयद के निधन के दो साल बाद 1900 तक महमूद न सिर्फ़ कॉलेज प्रबंधन, बल्कि अलीगढ़ से भी बाहर हो गये थे। उन्हें सीतापुर चले जाना पड़ा था, जहां वे अपने एक चचेरे भाई के साथ रहे।

इस लेखक के मुताबिक़, विक़ार-उल-मुल्क तीनों में कहीं ज़्यादा रूढ़िवादी और परंपरावादी और सच्चे थे, हालांकि उनकी ईमानदारी उनके अहंकार का शिकार हो गयी। फ़्रांसिस रॉबिन्सन ने 1974 में लिखी गयी अपनी किताब, ‘सेपरेटिज़्म अमॉंग इंडियन मुस्लिम्स: पॉलिटिक्स ऑफ़ द यूनाइटेड प्रोविंसेस’ में विकार-उल-मुल्क पर सर सैयद की एक टिप्पणी के हवाले से कहा है, "मेरा मानना है कि मुश्ताक़ हुसैन अपनी राय नहीं बदलेंगे, भले ही ऊपर वाला इनके सामने खुद ही प्रकट क्यों न हो जाये।"

जाति और लिंग के मामले में काफी प्रतिक्रियावादी होने के बावजूद अपनी विधवा ब्रिटिश बहू शेली के साथ विक़ार-उल-मुल्क का बर्ताव बेहद सम्मानजनक था। प्रोफ़ेसर इफ़्तिख़ार इस पहलू पर विस्तार से विचार करते हैं। इससे पहले, "ह्यूमेनिज़्म ऑफ़ ऐन अल्ट्राकन्ज़र्वेटिव" नामक किताब में सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी नावेद मसूद ने लिखा है, "हमें सर सैयद के (विक़ार-उल-मुल्क को लेकर) फ़ैसले पर सवाल उठाने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि मानव व्यक्तित्व की बहुस्तरीय प्रकृति पर हमें ग़ौर करना चाहिए। यहां एक पूरी तरह से एक अलग स्तर पर वर्णित यह तथ्य इस गंभीर विद्वान से 'मुस्लिम रूढ़िवाद' के मानवीय पक्ष की जांच-पड़ताल करने की मांग करते हैं और यह भी कि यह अपने सख़्त विश्वदृष्टि के साथ मौजूदा ख़ुद-पसंद रूढ़िवादियों के लिए सबक़ है, या फिर कम से कम विचार करने वाला मुद्दा मुहैया कराता है। किसी भी स्थिति में मुस्लिम कुलीन वर्ग के सामाजिक जीवन में नयी अंतर्दृष्टि देने वाले इस प्रकरण को व्यापक रूप से प्रचारित-प्रसारित किया जाना चाहिए।”

कुछ प्रूफ़ की त्रुटियों और कुछ पुनरावृत्तियों को छोड़ दें, तो यह खंड क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। यह बेहद ख़ुशी की बात है कि इस तरह की शुद्ध रूप से अकादमिक किताबें उर्दू में प्रकाशित हो रही हैं, जबकि चारों तरफ़ से घिरी हुई यह ज़बान अपने हाशिए पर धकेले जाने के ख़िलाफ़ जंग लड़ रही है। हो सकता है कि इस संक्षिप्त समापन नोट ने इस खंड के मूल्य में इज़ाफ़ा कर दिया हो।मानविकी और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहे अंग्रेज़ी भाषा के शिक्षाविदों को इस किताब के सतर्क शोध के सख़्त अनुशासन से सीखने की ज़रूरत है।जहां यह किताब भारत में अन्य प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों के सामाजिक इतिहास पर शोध करने वाले इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित करती है, वहीं अलीगढ़ आंदोलन और औपनिवेशिक उत्तर भारतीय मुस्लिम अभिजात वर्ग के इतिहास पर मौजूदा साहित्य के लिए यह एक अहम संस्करण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह किताब ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुंचे, इसके लिए इस किताब का अनुवाद शीघ्र ही अंग्रेज़ी में किया जा सकेगा।

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Colonial Era Power Play in MAO College, Aligarh

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