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भारत
राजनीति
विभाजनकारी चंडीगढ़ मुद्दे का सच और केंद्र की विनाशकारी मंशा
इस बात को समझ लेना ज़रूरी है कि चंडीगढ़ मुद्दे को उठाने में केंद्र के इस अंतर्निहित गेम प्लान का मक़सद पंजाब और हरियाणा के किसानों की अभूतपूर्व एकता को तोड़ना है।
इंद्रजीत सिंह
05 Apr 2022
chandigarh
फ़ोटो: साभार: एडब्ल्यूई

मोहाली में आयोजित एक विशाल संयुक्त संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) के विरोध प्रदर्शन में पंजाब और हरियाणा के किसानों की एकजुट आवाज़ 25 मार्च को भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (BBMB) को लेकर दो राज्यों के अधिकारों के अतिक्रमण के ख़िलाफ़ बुलंद हुई। चंडीगढ़ में यथास्थिति बहाल करने की मांग को लेकर राज्यपालों के ज़रिये भारत के राष्ट्रपति को संबोधित एक ज्ञापन सौंपा गया। लेकिन, हैरत है कि केंद्र ने न सिर्फ़ एसकेएम की उस याचिका को नज़रअंदाज़ कर दिया, बल्कि बीबीएमबी के सभी कर्मचारियों को केंद्रीय सेवा नियमों के तहत लाने के लिए गृह मंत्रालय की ओर से जारी एक और विनाशकारी अधिसूचना जारी कर दी गयी। इससे चंडीगढ़ में राज्यों की हिस्सेदारी कम हो जाती है और उस पर केंद्र का वर्चस्व बढ़ जाता है। यह क़दम चंडीगढ़ की स्थिति को बदलकर रख देगा और ऐसे में इससे प्रभावित होने वाले तमाम पक्षों की ओर से इसका विरोध किया जाना ज़रूरी हो जाता है। इस मुद्दे से पंजाब और हरियाणा के उन लोगों के बीच विभाजन हो सकता है, जिन्होंने ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दौरान शानदार जीत हासिल की है। किसानों की यही वह एकता है, जिसे मोदी सरकार कॉर्पोरेट समर्थक नव-उदारवादी एजेंडे को सुचारू रूप से आगे बढ़ने की राह में रुकावट मानती है और इसे किसी तरह तोड़ना चाहती है।

इस लिहाज़ से सम्बन्धित इतिहास पर फिर से विचार कर लेना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा। पिछले कुछ दशकों में नदी के पानी के बंटवारे, चंडीगढ़ सहित ऐसे कई क्षेत्रों पर दावा आदि जैसे मुद्दों को लेकर बहुत बड़ी राजनीतिक लामबंदी देखी जाती रही है। चंडीगढ़ तभी से हरियाणा और पंजाब दोनों की संयुक्त राजधानी रहा है, जिसमें इस केंद्र शासित प्रदेश की एक अजीब स्थिति बनी रही है, लेकिन इसकी परिसंपत्तियां क्रमशः पंजाब और हरियाणा के बीच 60:40 के अनुपात में विभाजित है। यहां तक कि इन परिसंपत्तियों में हिमाचल प्रदेश का भी कुछ हिस्सा बताया जाता है।

दोनों तरफ़, यानी पंजाब और हरियाणा के राजनीतिक दलों ने लोगों,  ख़ासकर किसानों के भावनात्मक क्षेत्रीय जुनून का इस्तेमाल करते हुए धर्म-युद्ध और न्याय-युद्ध का नाम देकर आंदोलन किया है। 1980 के दशक के मध्य में प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई में अकालियों और चौधरी देवीलाल के नेतृत्व में लोक दल ने इन आंदोलनों का नेतृत्व किया था। इससे पहले, यानी राज्यों के पुनर्गठन से पहले और बाद में भी हिंसक घटनायें हुई थीं।

हालांकि, दोनों दल भारी चुनावी लाभ हासिल करने में कामयाब रहे, लेकिन इससे उस अंतर्राज्यीय विवाद को खुला छोड़ दिया, जो दशकों तक जारी रहा। तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की 30 अक्टूबर, 1984 को उनके आवास पर तैनात सिख सुरक्षा गार्डों ने हत्या कर दी,उसके बाद दिल्ली और दूसरी जगहों पर मासूम सिखों के ख़िलाफ़ निर्मम हिंसा और नफ़रत फैलायी गयी, जिसमें हज़ारों लोग मारे गये और घायल हुए। इसके बाद पंजाब के मुख्यमंत्री एस.बेअंत सिंह की 1995 में चरमपंथियों ने गोली मारकर उस समय हत्या कर दी थी, जब वह चंडीगढ़ में सचिवालय से निकल रहे थे। पंजाब में आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों के 200 से ज़्यादा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

आधे दर्जन आयोगों का गठन किया गया और लंबित विवादों को हल करने के लिए समय-समय पर राजनीतिक समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये। लेकिन, उन आयोगों और उन समझौतों की सिफ़ारिशों को कभी लागू नहीं किया गया और इन समझौतों ने उन्हें हल करने के बजाय मामलों को और ज़्यादा पेचिदा बना दिया। इस सिलसिले में एकमात्र व्यापक प्रयास तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के नेता हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच 24 जुलाई 1985 को हस्ताक्षरित वह राजीव-लोंगोवाल समझौता था, जिसमें नदी जल वितरण, सतलुज यमुना लिंक (SYL) नहर का पूरा होना, चंडीगढ़ का भाग्य और अन्य क्षेत्रीय दावों और प्रतिदावों पर व्यापक स्वीकार्य रूपरेखा थी। यह समझौता शांति बहाल करने और राष्ट्रीय एकता को मिलने वाली अंदरूनी और बाहरी दोनों ही चुनौतियों का मुक़ाबला करने में सफलता का मार्ग प्रशस्त कर सकता था। इसमें मुख्य रूप से ऐसे विचार शामिल थे, जिस वजह से वाम दलों ने भी इस समझौते का समर्थन किया था और इसे लागू करना चाहते थे। लेकिन, विडंबना है कि इसे न सिर्फ़ हरियाणा में कथित न्याय युद्ध का नेतृत्व करने वाले नेताओं ने ख़ारिज कर दिया था, बल्कि इसे 'राज्य के हितों के ख़िलाफ़' भी क़रार दिया था। यहां तक कि पंजाब में चरमपंथियों ने भी समझौते को गद्दारी क़रार दिया था। उस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले संत हरचंद सिंह लोंगोवाल की छवि व्यापक रूप से उदार थी और इसके लिए उन्हें अपना जीवन तक क़ुर्बान करना पड़ा था, क्योंकि ख़ालिस्तानी आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी।

आतंकवाद और उग्रवाद के उन स्याह दिनों ने भारत के सबसे दिलेर और गतिशील सूबों में से एक यानी पंजाब को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हर तरह से तबाह कर दिया था। शहीदों के सर्वोच्च बलिदान और विरोध करने वाले आम लोगों ने चरमपंथियों को अलग-थलग कर दिया था और आतंकवाद को थाम लिया था, लेकिन जान गंवाने और बेशुमार सामाजिक नतीजों के लिहाज़ से देखा जाये, तो इससे भारी नुक़सान हुआ था।

मगर, अपने-अपने राज्यों के हितों के समर्थक के रूप में ख़ुद को पेश कर रहे दोनों ही तरफ़ के लोगों को आख़िरकार यह एहसास हो गया उनका आम लोगों के वास्तविक हितों से शायद ही कोई लेना-देना था। इसके बजाय, वे नदी के पानी और विवादित क्षेत्रों के बंटवारे जैसे अंतर्राज्यीय मुद्दों का इस्तेमाल राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने के लिए कर रहे थे और इसके लिए दोनों तरफ़ से सांप्रदायिकता और क्षेत्रीय अराजकवाद को हवा दी जा रही थी। मसलन, जहां पंजाब और हरियाणा की भाजपा इकाइयां विरोधाभासी रुख़ अपना रही थीं, वहीं कांग्रेस पार्टी के बारे में भी यही सच था।

हाल ही में ख़त्म हुआ साल भर का वह ऐतिहासिक किसान संघर्ष ही था, जिसने दोनों ही सूबों के किसानों के बीच मज़बूत होती शानदार एकता को प्रदर्शित किया। इसके बाद उसी भावना के अनुरूप पंजाब में पड़ने वाले चंडीगढ़ के सिस्टर टाउन मोहाली में 25 मार्च को विरोध प्रदर्शन किया गया। इस विरोध प्रदर्शन में बीबीएमबी के नियमों में संशोधन करके राज्यों के अधिकारों पर केंद्र के उस अतिक्रमण के ख़िलाफ़ कड़ा विरोध दर्ज किया गया, जिसने अंततः बतौर स्थायी सदस्य इस बोर्ड में पंजाब और हरियाणा की स्थिति को बदल दिया। इसी तरह, संसद से अधिनियमित बांध सुरक्षा अधिनियम, 2021 एक और ऐसा प्रतिगामी क़ानून था, जो राज्यों के विशिष्ट अधिकारों पर नकारात्मक असर डालता है। इसके अलावे, केंद्र का एक अन्य कार्य चंडीगढ़ में तैनात कर्मचारियों की कुल संख्या में हरियाणा और पंजाब के हिस्से को कम करना था।

राज्यों के अधिकारों की बहाली को लेकर किसानों के मामले को सुनने के बजाय केंद्र इस मामले में ढीठाई के साथ आगे बढ़ गया। केंद्र ने चंडीगढ़ के सभी कर्मचारियों को अपने नियंत्रण में लेकर इस केंद्र शासित प्रदेश की स्थिति को बिना किसी का साथ लिए एकतरफा बदल दिया।

यह वास्तव में मोदी सरकार का एक ऐसा सख़्त क़दम था, जिसका विरोध किये जाने और उस पुराने विवाद को फिर से खोलने के बजाय यथास्थिति बहाल किये जाने की ज़रूरत थी कि चंडीगढ़ को किस राज्य में स्थानांतरित किया जाना चाहिए। पंजाब में आप सरकार ने 1 अप्रैल को एक दिन के लिए ख़ास तौर पर बुलायी गयी पंजाब विधानसभा में एक प्रस्ताव के ज़रिये यही तो किया है। हालांकि, विधानसभा के इस प्रस्ताव की कोई क़ानूनी वैधता तो नहीं है, लेकिन इससे एक निश्चित राजनीतिक मंशा तो दिखती ही है।

इसके विपरीत, हरियाणा के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के इस क़दम का स्वागत करते हुए यूटी कर्मचारियों को लेकर अपमानजनक रुख़ अपनाया है।

जहां इस बात की संभावना नहीं है कि पंजाब के मुख्यमंत्री सर्वदलीय बैठक बुलायें, वहीं पंजाब के उलट यह मांग हरियाणा में कांग्रेस ने उठायी है। इस तरह की चीज़ें विभाजनकारी स्वरों से भरी होती है, जिसका इस्तेमाल अक्सर विभिन्न रंगों की प्रतिक्रियावादी ताक़तों की ओर से किया जाता है।

वहीं एसवाईएल नहर का मामला हरियाणा में गरमाता जा रहा है। ऐसा लगता है कि भाजपा ने किसान आंदोलन का मुक़ाबला करने के लिए इसका जमकर इस्तेमाल किया है, लेकिन वह नाकाम रही है। हरियाणा को आवंटित नदी के पानी के अधिशेष कोटा को ले जाने के लिए यह ज़रूरी है कि इस एसवाईएल नहर को पूरा किया जाये, जो कि फिर से एक विवाद में फंस गया है, क्योंकि पंजाब की तमाम सरकारें सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इसे पूरा करने के ख़िलाफ़ रही हैं।

ये कुछ ऐसे विवादास्पद मुद्दे हैं, जो ख़ासकर क्षुद्र अवसरवादी राजनीति के चलते पिछले 50 से ज़्यादा सालों से लंबित पड़े हैं। यह सच है कि उन्हें निपटाये जाने की ज़रूरत है, लेकिन जटिल, आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए और बेहद संवेदनशील प्रकृति के होने के कारण इन मुद्दों को लापरवाही और अलग-अलग तरीक़े से नहीं लेना चाहिए। उन्हें व्यापक तरीक़े और उचित समय सीमा के भीतर देखा जाना चाहिए।

पंजाब में भगवंत मान की नवगठित आप सरकार को इस चंडीगढ़ मुद्दे से निपटने में अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए थी। यह दरअस्ल शासन की हमारी संवैधानिक योजना के संघीय चरित्र को कमज़ोर करके सत्ता के अति-केंद्रीकरण की मोदी सरकार की नीतियों का ही नतीजा है। यह सत्तावादी हमला ही तो है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार अपने ज़्यादतर फ़ैसलों की समीक्षा किये जाने को लेकर एलजी के शत्रुतापूर्ण रवैये को पहले ही पर्याप्त रूप से महसूस कर चुकी है। ऐसे में चंडीगढ़ की स्थिति के सिलसिले में केंद्र की ओर से उठाये गये इन प्रतिगामी क़दमों को वापस करने की ज़रूरत है। पंजाब की आप सरकार से लोगों को काफ़ी उम्मीदें हैं।

इस बात को समझ लेना ज़रूरी है कि चंडीगढ़ मुद्दे को उठाने में केंद्र की अंतर्निहित गेम प्लान का मक़सद पंजाब और हरियाणा के किसानों की उस अभूतपूर्व एकता को तोड़ना है, जिसने आंदोलन का आधार दिया था और इसी चलते मोदी सरकार को तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इस एकता को आगे भी क़ायम रखना होगा।

सभी किसान संगठन और लोकतांत्रिक ताक़त इस क़दम को इसी गेम प्लान के नज़रिये से देखें और अपनी एकता बनाये रखते हुए इसे नाकाम करें और बाक़ी सभी विवादास्पद मुद्दों को केंद्रीय मुद्दा बनाने से कुछ समय के लिए बचें।

सभी मेहनतकश तबक़ों को यह विचार करने को लेकर कड़ी मेहनत करनी चाहिए कि रोज़ी-रोटी के असली मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालने की इजाज़त नहीं दी जाये, क्योंकि इससे सिर्फ़ कॉर्पोरेट एजेंडे की कामयाबी आसान हो जायेगी, जिसके लिए भाजपा सरकार लोगों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करती रही है। यह इसकी रणनीतिक कोशिश का एक अनिवार्य घटक है।

लेखक एआईकेएस हरियाणा के उपाध्यक्ष हैं और संयुक्त किसान मोर्चा के साथ काम करते हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Seeing Through the Chandigarh Issue and Centre’s Intentions

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