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क्यों वरवरा राव को ज़मानत भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है?

सामूहिक भावना के बिना सामूहिक अधिकार कायम नहीं रह सकते हैं। बम्बई उच्च न्यायालय ने प्रदर्शित किया है कि भारत में ऐसी संवेदना अभी भी जीवित है।
Varvara Rao
चित्र साभार: टेलीग्राफ इंडिया

यह बात न्यायपालिका में विश्वास को बहाल करती है और भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है कि बम्बई उच्च न्यायालय ने मेडिकल आधार पर क्रांतिकारी कवि वरवरा राव को जमानत दे दी है। वर्तमान व्यवस्था और एक मायने में वरवरा राव राजनीतिक परिदृश्य के दो विपरीत ध्रुवों पर हैं।

किसी को कैद करना निश्चित रूप से एक राजनीतिक कदम है, उस पर लगाए गए आरोपों की सत्यता चाहे जो भी हो। इसी संदर्भ में वरवरा को जमानत देना और उनके मौलिक अधिकारों को स्वीकार करना, लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत है। उन्हें रिहा कर देना अभिव्यक्ति की आजादी और कई अन्य नागरिकों, जो सामाजिक कार्यकर्ता हो सकते हैं और क्रांतिकारी नहीं हैं, के विरोध करने के अधिकार का भरोसा दिलाता है। वरवरा को मेडिकल आधार पर जमानत दी गई है, यह तथ्य, खास कर ऐसे समाज, जिसे बार-बार उन्माद की तरफ धकेला जा रहा है, उसमें संतुलन की एक भावना को भी बहाल करता है। 

न्यायालय ने आदेश पारित करते हुए टिप्पणी की,  “अपनी पूरी विनम्रता के साथ, मानवीय विचारों को ध्यान में रखते हुए, आरोपित की अधिक उम्र, उसके गंभीर बीमारियों से ग्रसित होने, तजोला केंद्रीय कारा से संबंधित अस्पताल में पर्याप्त सुविधाओं के न होने, अभियोगाधीन की गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सहायता प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों को देखते हुए, हमारा विचार है कि यह राहत मंजूर करने का एक वास्तविक और सटीक मामला है, अन्यथा हम अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने तथा मानव अधिकारों के रक्षक होने के रूप में कार्य करने और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा जीने के अधिकार के तहत प्रदान किए गए स्वास्थ्य के अधिकार का त्याग कर रहे होंगे।

वरवरा जिसके प्रतीक हैं, उससे भले ही पूरी तरह असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इससे उनके विचारों को रोका नहीं जा सकता और उनके मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता है, जिसका प्रत्येक लोकतांत्रिक समाज समर्थन करता है। रुकना और प्रदर्शित करना एक आवश्यक नागरिक कार्य है और यह नागरिकों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी स्वतंत्रता को महत्व दें। जैसा कि मार्टिन लुथर किंग ने हमें याद दिलाया है, “किसी एक जगह का अन्याय सभी जगहों के लिए एक खतरा है।चीजों को हमेशा अधिक क्रमबद्ध तथा अधिक बारीक तरीके से देखने की आवश्यकता है। यह भी लोकतंत्र की एक पूर्व शर्त है और समाजों को खुलने में सहायता करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वरवरा राव की राजनीति से असहमत होने से लोगों को उस भावना, जिससे वे प्रेरित हैं, तथा उनके आदर्शों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, की प्रशंसा करने से रोका नहीं जा सकता।

वह भावना और ईमानदारी, भले ही उसके पीछे की कोई भी राजनीति हो, उस एकजुटता की गहरी अभिव्यक्ति हैं, जो सामूहिक अस्तित्व के लिए आवश्यक है। वे हममें से बाकी लोगों के लिए सोचने तथा सांस लेने के लिए अमूर्त तरीके से मार्ग सृजित करते हैं। इन्हीं तरह के प्रयासों ने इतिहास का निर्माण किया है। यह वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन के समानांतर है, वे बिना इसे अभिव्यक्त किए, लोकतंत्र और निर्बल सामाजिक समूहों तथा व्यक्ति-विशेषों के सुने जाने के अधिकार की रक्षा कर रहे हैं। 

ऐसी जगहों का निर्माण किस प्रकार हो रहा है, वह तुरंत भले ही न दिखे लेकिन वे उस बात के एक जबरदस्त प्रतिनिधि हैं, जो दार्शनिक वोल्टेयर ने एक बार कहा था, “मैं आपकी कही गई बात से असहमत हूं, लेकिन मैं इसे कहने के आपके अधिकार का मरते दम तक बचाव करुंगा।” 

एक सामूहिक भावना और परस्पर संवेदना को प्रभावी बने रहने के अधिकार के लिए आवश्यक है। ये ऐसी बिना कही गई पूर्व शर्तें हैं, जो सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती हैं। सभी लोकतंत्र अस्थिर होते हैं और उन्हें प्रतिदिन बनाने तथा पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता हे। सांस्कृतिक समाजवादी जेफ्री एलेक्जेंडर ने इसे सिविल रिपेयरके नाम से उल्लेखित किया था।

समाजों का क्षय होता है और वे विभाजित होते हैं तथा उनके क्षयकारी होने की प्रवृत्तियों की मरम्मत करने की आवश्यकता होती है। ऐसी मरम्मत सांकेतिक हाव-भावों द्वारा होती हैं, जो गहरी एकजुटता का आह्वान करती हैं जैसा कि अदालत में दिशा रवि द्वारा दिए गए वक्तव्य में दिखा, “अगर किसानों के विरोध को उजागर करना राजद्रोह है, तो अच्छा है कि मैं जेल में ही रहूं।उसने इस तथ्य को रेखांकित किया कि गिरफ्तार होना मानव स्थिति का केवल एक घनीभूत और केंद्रीभूत रूप है, जो कारागारों के बाहर भी हमारे सामाजिक अस्तित्व में उत्पन्न किया जा सकता है। यह हमें जीवन का स्मरण कराता है, न कि केवल अस्तित्व का। 

जिनकी राजनीति या नीति-निर्माण की बारीकियों में दिलचस्पी नहीं है, उनकी सहानुभूति भी उन वयोवृद्ध किसानों के साथ रही है जो दिल्ली की सीमाओं पर कष्ट भोग रहे हैं।  ठीक उसी प्रकार, जिन्होंने सीएए का समर्थन कर रही शाहीन बाग की उम्रदराज दादियों के प्रति करुणा जाहिर की थी। चाहे वह वरवरा हों, या स्टैन स्वामी, उम्र और बीमारियां ऐसी चीजें हैं जिनकी समाज अनदेखी नहीं कर सकता है  अगर वह जीवन और दुनिया के प्रति उदासीन बन जाने की बात न सोचे।

वरवरा को जमानत देना जीवन तथा हमारी पहचानों, विचारों तथा संस्कृतियों के गंभीर अंतरों के बावजूद एक साथ रहने की क्षमता में हमारे भरोसे का उत्सव है। अगर हम सामने दिखने वाले अंतरों के कारण इन अंतर्निहित समानताओं को नजरअंदाज करते हैं तो हम इन अंतरों के साथ जीने के लिए आवश्यक स्थान को भी खो बैठेंगे। स्पष्ट रूप से, तब हम एक जैसे पिण्ड-समूह बन जाएंगे। समाजों में अंतर तथा संघर्ष हमेशा बने रहेंगे लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि हम उनसे किस प्रकार निपटते हैं। होलोकॉस्ट (यहूदी  नरसंहार) अभी तक की शायद सबसे डरावनी सामूहिक विफलता की सच्चाई है, इतिहास के साथ-साथ जिस प्रकार भी हम कल्पना करें, दूसरों के लिए जीने की क्षमता और भावना वरवरा राव और चाहे जैसी भी विचारधारा हो, उन जैसे लोगों की अब भी सबसे बड़ी ताकत है। जीवित रहने और अपने अस्तित्व को इतिहास में जिंदा रखने की लड़ाई और दूसरों के लिए जीने की इच्छा और भावना वरवरा राव और उन जैसे कई अन्य लोगों की, चाहे वो किसी भी विचारधारा से आते हों, विशेष पहचान हैं।

आधुनिकता का अभिशाप यह है कि इसने मशीनी तर्क-वितर्क को प्रोत्साहित किया है, लेकिन इसकी उलट नागरिक एकजुटता है। जहां गंभीर मतभेद दिख रहे हों, वहां एकजुटता बनाए रखने की क्षमता ही मानवता को उसका हक वापस दिलाती है।

 

लेखक दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल साइंस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why-Bail-Vara Vara-Rao-Augurs-Well-Indian-Democracy

 

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