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भारत की महामारी के बाद की आर्थिक रिकवरी अस्थिर है

2021-22 की दूसरी तिमाही में जीडीपी की 2019-20 की दूसरी तिमाही के स्तर पर बहाली होने के पीछे उपभोग की बहाली नहीं, बल्कि निवेश में बढ़ोतरी कारण है।
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चित्र साभार: दि फाइनैंशियल एक्स्प्रेस

खेद का विषय है कि महामारी अब भी खत्म नहीं हुई है। फिर भी चालू वित्त वर्ष में लॉकडाउनों या मजदूरों की काम में गैर-हाजिरियों जैसी कोई आर्थिक रुकावट नहीं है। इसलिए, अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन के लिए अब महामारी को जिम्मेदार नहीं ठहराया  जा सकता है। जैसी भी आर्थिक स्थिति है, आर्थिक कारकों का ही नतीजा है।

सरकार  के प्रवक्ता इसके दावे करने में व्यस्त हैं कि अर्थव्यवस्था में तंदुरुस्त बहाली हो रही है और चालू वित्त वर्ष में दो अंकों में आर्थिक वृद्घि दर हासिल होने जा रही है। लेकिन, चालू वित्त वर्ष में दो अंकों की वृद्घि दर कोई मायने नहीं रखता है क्योंकि पिछले वित्त वर्ष में देश के जीडीपी में भारी शुद्घ गिरावट जो दर्ज हुई थी। वास्तव में भारत के मामले में यह गिरावट तो दुनिया के सभी देशों में सबसे ज्यादा ही रही थी क्योंकि भारत में सरकार ने, दुनिया के और सभी देशों से ज्यादा सख्त लॉकडाउन लगाया था। इसका नतीजा यह हुआ था कि  2020 की अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी में पूरे 24 फीसद गिरावट दर्ज हुई थी। जाहिर है कि अर्थव्यवस्था के ऐसे रसातल में जा लगने के बाद, उसे वहां से ऊपर तो उठना ही था। इसमें अपनी पीठ ठोकने वाली क्या बात हुई? असली सवाल यह है कि चालू वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन, महामारी से पहले वाले वित्त वर्ष यानी 2019-20 की तुलना में कहां बैठता है? और उनकी तुलना करने पर हम पाते हैं कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी, 2019-20 की पहली तिमाही के मुकाबले काफी नीचे रहा है। दूसरी तिहाई का जीडीपी भी, 2019-20 की दूसरी तिमाही के करीब-करीब बराबर ही है और ठीक-ठीक कहें तो उससे सिर्फ 0.3 फीसद की बढ़ोतरी दिखाता है। दूसरे शब्दों में, पिछले साल के जीडीपी में, उससे पहले के साल की तुलना में 7.3 फीसद की जो गिरावट हुई थी उसेे देखते हुए, चालू वित्त वर्ष में अगर 10 फीसद की वृद्घि दर्ज भी हो जाती है, जबकि यह आंकड़ा भी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसी सरकारी एजेंसियों के 9.5 फीसद की वृद्घि दर के अनुमान से बढक़र ही है, तब भी 10 फीसद की वृद्घि दर का मतलब, 2019-20 के मुकाबले जीडीपी में 1.97 फीसद की बढ़ोतरी होना ही होगा। इसे किसी भी तरह से अर्थव्यवस्था में किसी धनात्मक रुझान का इशारा तो नहीं ही कहा जा सकता है।

बहरहाल, और भी महत्वपूर्ण यह है कि यह बहाली भी टिकाऊ नहीं है। यह सच इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि दूसरी तिमाही में भी, उपभोग तो 2019-20 की इसी तिमाही के मुकाबले 3.5 फीसद नीचे ही बना हुआ था। 2021-22 की दूसरी तिमाही में जीडीपी के समग्रता में बहाल होकर, 2019-20 की दूसरी तिमाही के स्तर पर पहुंच जाने के पीछे उपभोग की बहाली का नहीं बल्कि निवेश में बढ़ोतरी का ही हाथ है। यह शायद इसलिए हुआ है कि जो निवेश पहले से पाइपलाइन में थे या जिनका निर्णय पहले ही लिया जा चुका था, उन्हें अब अंजाम मिल रहा है। लेकिन, इसका अर्थ तो यही हुआ कि चालू वित्त वर्ष में उत्पादन क्षमता में तो, चालू निवेशों के चलते इजाफा हो रहा होगा, लेकिन उत्पाद तो करीब-करीब 2019-20 के जीडीपी के स्तर पर ही बना रहेगा और इसका मतलब होगा, स्थापित उत्पादन क्षमता के उपयोग के अनुपात में गिरावट। इसके चलते, अगले वित्त वर्ष में निवेश गिर जाएंगे और इसके साथ ही जीडीपी भी नीचे आ जाएगा।

संक्षेप में यह कि यह जो आर्थिक बहाली नजर आ रही है, यह भी जाहिर है कि टिकने वाली नहीं है। आर्थिक बहाली तो तभी टिक सकती है, जब उपभोग में बहाली हो, अन्यथा आर्थिक बहाली बीच में ही बैठ जाएगी। इसकी वजह को इस प्रकार समझा जा सकता है। उदाहरण की सरलता के लिए, अगर हम शुद्घ निर्यातों को अनदेखा कर दें, जो कि वैसे भी हमारी अर्थव्यवस्था में काफी मामूली कारक ही हैं, किसी भी अर्थव्यवस्था का जीडीपी, उसके निजी उपभोग तथा निजी निवेश और सरकारी खर्चे के योग के बराबर होता है। और चूंकि निजी निवेश बाजार यानी मांग के आकार में वृद्घि से ही संचालित होता है, जिसके लिए जीडीपी में वृद्धि संकेतक का काम करती है, आर्थिक वृद्घि के टिकाऊ होने के लिए यह जरूरी होता है कि या तो निजी उपभोग में या सरकार के खर्चे में या दोनों में बढ़ोतरी हो रही हो। बहरहाल, सामान्यत: उन सरकारी प्रवक्ताओं के बीच, जो इस नुक्ते को पहचानते हैं, आमतौर पर राय यही है कि सरकार द्वारा किया जाने वाला ढांचागत निवेश, इस समस्या को हल कर देने वाला है।

लेकिन, जब सरकार खुद ही ढांचागत क्षेत्र को, औने-पौने दाम पर बिक्री यानी निजीकरण के जरिए या लंबी अवधि के पट्टों के रास्ते से ‘मोनिटाइजेशन’ के जरिए, निजी क्षेत्र के हवाले करने में लगी हुई है, उससेे ढांचागत क्षेत्र मेें कोई खास निवेश करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। सच तो यह है कि मोदी सरकार ने तो अभी हाल में ही, सार्वजनिक धन से निर्मित ढांचागत सुविधाओं के बड़े-बड़े हिस्से, निजी हाथों में सौंपने की ही नीति का एलान किया है।

इसके अलावा, ढांचागत निवेश के लिए सामान्य रूप से भूमि के अधिग्रहण की जरूरत होती है और ऐसे भूमि अधिग्रहण का प्रतिरोध होना तय है। यही नहीं, इस तरह के निवेश के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक हद तक सहयोग होना भी जरूरी है और नरेंद्र मोदी के राज ने ऐसा सहयोग तो एक तरह से असंभव ही बना दिया है। इसलिए, ढांचागत निवेश के अर्थव्यवस्था में बहाली को उत्प्रेरित करने का कारगर उपाय साबित होने के कोई आसार ही नहीं हैं।

इसके बाद, दो ही विकल्प रह जाते हैं। पहला तो यह कि सरकार ही, साधारण परिवारों के हक में हस्तांतरणों के जरिए, सीधे निजी उपभोग को उत्प्रेरित करने का काम करे। अर्थशास्त्रियों, राजनीतिक पार्टियों तथा नागरिक समाज के संगठनों द्वारा पिछले काफी समय से इसकी मांग की जाती रही है, जिससे महामारी तथा उससे निपटने के लिए सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन से पैदा हुए संकट को कम किया जा सके। शुरूआत में इसकी मांग इसलिए की जा रही थी कि लॉकडाउन के चलते अचानक लोगों की आय के स्रोत बंद हो गए थे। हालांकि, वह समय अब निकल चुका है, फिर भी ऐसे हस्तांतरणों की जरूरत में जरा भी कमी नहीं आयी है। इसकी वजह यह है कि लोगों ने उस संकट के वक्त में कर्ज लेकर गुजारा चलाया था और जब तक यह कर्ज उनके सिर पर लदा रहेगा, कर्ज से संबंधित भुगतानों के लिए उन्हें अपने उपभोग में से ही कटौती करनी पड़ रही होगी। इसलिए, ये प्रत्यक्ष हस्तांतरण यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो गए हैं कि लॉकडाउन के बाद के दौर में उपभोग, इसके बिना जितना रहा होता, उस स्तर पर लौट आए। गैर-आयकरदाता परिवारों को कई महीने तक 7,500 महीना केंद्र सरकार द्वारा हस्तांतरित किए जाने की मांग, उपभोग में इस गिरावट की भरपाई कर सकती थी।

इसके अलावा, इस तरह के प्रत्यक्ष हस्तांतरणों का एक अतिरिक्त लाभ यह है कि उनसे पैदा होने वाला उपभोग, ज्यादातर ऐसे मालों की मांग उत्पन्न करेगा, जो लघु उत्पादन या लघु-पूंजीवादी क्षेत्र मेें ही बनते हैं। इससे न सिर्फ इस क्षेत्र में नयी जान पड़ेगी, जो इस समय नोटबंदी तथा जीएसटी जैसे कदमों की मार से बेदम हुआ पड़ा है, बल्कि इससे अर्थव्यवस्था में कहीं ज्यादा रोजगार भी पैदा होगा। यह अतिरिक्त रोजगार, उपभोग खर्च के तीसरे तथा चौथे चक्रों को भी पैदा करेगा।

हस्तांतरणों के इस तरह के कार्यक्रम का एक कुछ भिन्न रूप यह हो सकता है कि मनरेगा जैसे रोजगार कार्यक्रमों के लिए हस्तांतरणों में भारी बढ़ोतरी की जाए।  लेकिन, मनरेगा के दायरे को चूंकि बहुत सीमित कर के रखा गया है और इसमें एक परिवार मेें एक व्यक्ति को ही रोजगार देने का प्रावधान रखा गया है और वह भी साल में सिर्फ 100 दिन के लिए। जबकि वास्तव में तो इतना रोजगार भी मिलना दुर्लभ ही है। सिर्फ इस योजना का सहारा लेना बिल्कुल ही अपर्याप्त होगा और इसके साथ ही सीधे हस्तांतरणों का सहारा लेना होगा। चूंकि जीडीपी में 55 फीसद हिस्सा उपभोग का ही होता है, उपभोग में जीडीपी के 1 फीसद के बराबर बढ़ोतरी के लिए भी, करीब 2 लाख करोड़ रुपए के खर्च की जरूरत होगी। लेकिन, नवंबर के आखिर में मनरेगा के लिए बजट प्रावधान में तो सिर्फ 22,000 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी का एलान किया गया है, जो आवश्यक खर्च का मुश्किल से दसवां हिस्सा होता है। इस तरह, जब तक मनरेगा के दायरे का ही विस्तार नहीं किया जाता है, इस योजना पर खर्च में बढ़ोतरी के जरिए, उपभोग को सहारा देने की कोशिश बिल्कुल अपर्याप्त ही रहेगी।

एक और उपाय यह हो सकता है कि स्वास्थ्य रक्षा, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक सेवाओं पर, सरकार द्वारा किए जाने वाले खर्चों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की जाए। भौतिक बुनियादी ढांचे पर किए जाने वाले दूसरे कई खर्चों के मुकाबले, इन मदों में खर्च में बढ़ोतरी का आम जनता भी स्वागत करेगी। और इनसे आम तौर पर कल्याणकारी व्यवस्थाओं का भी स्तर बेहतर होगा। लेकिन, इस मामले में भी तो मोदी सरकार शिक्षा व स्वास्थ्य आदि का निजीकरण करने में ही लगी हुई है। अब इसका तो करीब-करीब सवाल ही नहीं उठता है कि यह सरकार, इन क्षेत्रों के संबंध में अपनी नीतियों की दिशा बदलेगी और अचानक इन क्षेत्रों पर सरकारी खर्चे में बड़ी बढ़ोतरी करेगी।

इसलिए, ऐसा लगता है कि इस समय अर्थव्यवस्था की जो सबसे पहली मांग है, कि जनता के हाथों में प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरणों के जरिए तथा शिक्षा व स्वास्थ्य रक्षा जैसी सामाजिक सेवाओं पर और ज्यादा खर्च करने के जरिए, सरकार के खर्चों में बढ़ोतरी की जाए, वह मांग मोदी सरकार पूरी कर ही नहीं सकती है। इतना तो तय है कि चुनावों को नजर में रखकर, यहां-वहां कुछ सांकेतिक खर्चे करने के सिवा, यह सरकार उक्त मदों में से किसी में भी अपने खर्चे में खास बढ़ोतरी नहीं करने वाली है। लेकिन, इसका मतलब यह है कि आर्थिक बहाली अजन्मी ही रह जाएगी।

इस मामले में सरकार के रुख की मूल भ्रांति यह है कि उसे लगता है कि कार्पोरेट क्षेत्र को सब्सीडियों व कर रियायतों के रूप में प्रलोभन देकर, वह इस क्षेत्र को निवेश बढ़ाने के लिए पटा सकती है और इस तरह से आर्थिक बहाली को उत्प्रेरित कर सकती है। लेकिन, कोई भी कार्पोरेट खिलाड़ी तब तक निवेश में बढ़ोतरी नहीं करता है, जब तक उसे मांग में ही बढ़ोतरी होने की प्रत्याशा नहीं हो। अगर मांग में बढ़ोतरी की उसकी प्रत्याशा शून्य है, तो वह निवेश में भी शून्य बढ़ोतरी ही करेगा यानी अपनी उत्पादन क्षमता में कोई बढ़ोतरी नहीं करेगा। इसलिए, अगर मांग में ही बढ़ोतरी नहीं होती है, तो सरकार की तरफ से कॉर्पोरेटों को कितनी भी सब्सीडियां तथा कर रियायतें क्यों न दी जाएं, वे उन्हें बस हजम कर जाएंगे और एक पैसे का अतिरिक्त निवेश नहीं करेंगे। इसलिए, कार्पोरेटों को सब्सीडियां तथा कर रियायतें देेने के बजाए सरकार को निजी उपभोग में बढ़ोतरी करने के कदमों पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। लेकिन, मोदी सरकार इस सच्चाई को समझने में ही असमर्थ है।

लेखक भारतीय अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

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