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अंतर्राष्ट्रीय वित्त और 2022-23 के केंद्रीय बजट का संकुचनकारी समष्टि अर्थशास्त्र

केंद्र सरकार आखिरकार केंद्रीय बजट में ठहरे/गिरते सरकारी राजस्व व्यय और पूंजीगत व्यय में स्पष्ट वृद्धि के बीच में अंतर क्यों कर रही है?
union budget

2022 के केंद्रीय बजट में कहा गया है कि संशोधित अनुमानों के मुताबिक सरकार का कुल खर्च 2021-22 के स्तर की तुलना में 2022-23 में बढ़कर 39,44,909 करोड़ रूपये तक हो जायेगा। सांकेतिक संदर्भ में कहें तो यह राशि 4.6% की वृद्धि के बराबर है। यदि मुद्रा स्फीति की दर मौजूदा 2021-22 की प्रचलित दर से अधिक हो जाती है तो इसका परिणाम 2022-23 में कुल सरकारी व्यय के वास्तविक रूप में गिरावट होगी। मुद्रा स्फीति की दर कई कारकों की वजह से बढ़ सकती है, उदहारण के लिए अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि (जिसके लिए आंशिक तौर पर बजट में प्रावधान किया गया है) के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी (यदि उन्हें घरेलू उपभोक्ताओं के उपर डाल दिया जाता है) के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। 

हालाँकि, केंद्र सरकार ने दावा किया है कि सरकारी पूंजीगत व्यय में नियोजित वृद्धि (एक ऐसी दर पर जो किसी भी कल्पित मुद्रास्फीति की दर से अधिक होगी) को निजी निवेश के जरिये आकर्षित किया जा सकता है। क्या यह तर्कसंगत बात है?

यदि सरकार का कुल व्यय वास्तविक अर्थों में गिर जाता है, तो इसकी वजह से क्षमता उपयोग में कमी आ जाएगी। क्षमता उपयोग संभावित उत्पादन के लिए मांग निर्धारित उत्पादन का अनुपात तय करता है। संभावित उत्पादन भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में पूंजीगत स्टॉक के समानुपात में है, क्योंकि यहाँ पर पहले से ही महत्वपूर्ण रूप से श्रम अधिशेष मौजूद है। यदि बाकी चीजें समान बनी रहती हैं, जैसा अनुमान लगाया गया है तो क्षमता उपयोग में यह गिरावट नतीजे के रूप में निजी निवेश (घरेलू और विदेशी दोनों प्रकार के) को प्रभावित करने का काम करेगी। इतना ही नहीं, इसके अलावा पेट्रोलियम/डीजल जैसे सार्वभौमिक मध्यवर्ती वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष करों में नियोजित वृद्धि (जिसे निकट भविष्य में उल्लेखनीय रूप से देखा जा सकता है) के चलते कुल उत्पादन में मजदूरी का हिस्सा घटा देगा। 

ऐसा इसलिए होगा क्योंकि अधिकांश श्रमिक या तो असंगठित असंगठित क्षेत्र में अनौपचारिक रूप से कार्यरत हैं या बेरोजगार हैं। कीमतों में होने वाली इस वृद्धि की भरपाई के लिए वे मोलभाव करने और ऊँची मजदूरी हासिल कर कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। उत्पादन में मजदूरी के हिस्से में इस प्रकार की गिरावट का अर्थ है, क्षमता से अतिरिक्त बढोत्तरी होगी, जो कि श्रमिकों के विपरीत कॉर्पोरेट क्षेत्र को आने मुनाफे के एक महत्वपूर्ण हिस्से को बचा लेने के लिए प्रेरित करेगी। अतिरिक्त क्षमता में यह वृद्धि निजी निवेश पर अतिरिक्त प्रतिकूल प्रभाव डालने का काम करेगी। 

हालाँकि, इन सभी कुप्रभावों से प्रभावी तौर पर निपटा जा सकता है यदि सरकारी पूंजीगत व्यय पर्याप्त मात्रा में निजी निवेश को आकर्षित कर लेता है। इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि सरकारी पूंजीगत व्यय का निजी पूंजी निवेश पर दोहरा प्रभाव पड़ता है। इसमें से एक प्रत्यक्ष चैनल है जो क्षमता उपयोग के जरिये संचालित होता है और दूसरा उपाय कुछ परियोजनाओं की भविष्य की लाभप्रदता को पर्याप्त मात्रा में बढ़ाता है जिसे वर्तमान में निजी (और खासकर कॉर्पोरेट) क्षेत्र द्वारा अव्यवहार्य मानकर हाथ डालने से झिझकता है। चूँकि कुल सरकारी खर्च में वृद्धि संभव नहीं होने पर, इसमें प्रत्यक्ष प्रभाव काम नहीं आएगा, ऐसे में दूसरे चैनल पर विचार करने की जरूरत है।

सरकार के द्वारा पूंजीगत व्यय के जरिये शुरू की गई विनिर्माण परियोजनाओं में लंबे समय तक विलंब होना संभव है, जो कोविड-19 महामारी की एक और लहर की पुनरावृत्ति या अंतर्राष्ट्रीय तेल के दामों में वृद्धि जैसे प्रतिकूल कारकों के कारण इसके परिणाम में और भी विलंब हो सकता है। ऐसे में सरकारी पूंजीगत व्यय द्वारा निजी निवेश में अपेक्षित पूंजी जुटाने की संभावना के भाप बनकर उड़ जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। यदि किसी प्रकार ऐसा होता भी है, तो इसका परिणाम इतना बड़ा नहीं होने जा रहा है कि यह कुल सरकारी खर्च में गिरावट के करण अतिरिक्त क्षमता में वृद्धि के दुष्प्रभावों को पूरी तरह से मिटा दे (जो कि संभवतः कुल उत्पदान में मजदूरी के हिस्से में गिरावट से बढ़ सकता है)। इसके अलावा, अतीत के अनुभव भी इस बात के संकेत मिलते हैं कि वार्षिक सरकारी पूंजीगत व्यय में वास्तविक वृद्धि बजटीय अनुमान से कम हो सकता है, जो संकुचनकारी व्यापक आर्थिक नीति की धड़कन को और भी बढ़ाने में सहायक साबित हो सकती है।

केंद्र सरकार आखिर 2022 के केंद्रीय बजट में एक ठहराव/गिरते सरकारी राजस्व व्यय और पूंजीगत व्यय में स्पष्ट वृद्धि के बीच में अंतर क्यों कर रही है? दूसरे शब्दों में कहें तो, केंद्र सरकार के राजस्व और पूंजीगत व्यय दोनों में ही वृद्धि क्यों संभव नहीं है? भारत में नीति निर्माण अंतर्राष्ट्रीय वित्त के सामने किसी गुलाम की तरह है। पूंजी नियंत्रण के अभाव में, सकल घरेलू उत्पाद में राजकोषीय घाटे के अनुपात में “स्वीकार्य स्तर” से अधिक की वृद्धि का नतीजा क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के द्वारा रेटिंग्स में डाउनग्रेडिंग को ट्रिगर कर सकती है। इस डाउनग्रेड का नतीजा पूंजी पलायन में देखने को मिल सकता है, और इसलिए इसके परिणाम में मिलने वाले आर्थिक झटके, जिसका भारत में नवउदारवादी परियोजना सामना नहीं कर सकती है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्त के भरोसे को बनाये रखने के लिए “निवेशकों की भावनाओं” को लगातार खाद-पानी देते रहना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। 2022 के केंद्रीय बजट में “विजन”, “नीतिगत स्थिरता” और इसके अलावा भी कई घोषणाएं की गई हैं, जो असल में अंतर्राष्ट्रीय वित्त एवं कॉर्पोरेट क्षेत्र को आश्वस्त करने के उद्देश्य से ही की गई हैं। इसके बावजूद, इनमें सरकारी व्यय शामिल नहीं है। चूँकि मौखिक आश्वासन से कुछ ही कदम चला जा सकता है, ऐसे में इन नीतिगत घोषणाओं में कॉर्पोरेट क्षेत्र के लिए करों में कटौती और सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की ओर कहीं अधिक जोर दिया गया है। हालाँकि, इसके उपरांत होने वाले व्यापक संकुचनकारी आर्थिक नीति के चलते बढ़ती बेरोजगारी और अनिश्चित रोजगार का संकट, बढ़ती असमानता और कृषि संकट की समस्याओं के लिए स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। 

इस नीतिगत का एक व्यवहार्य विकल्प पूंजी नियंत्रण की संस्था से शुरू किया जाना चाहिए। पूंजी नियंत्रण की संस्था तार्किक रूप से देश की सामरिक स्वायत्तता को मजबूत करने की ओर ले जायेगी। सामरिक स्वायत्तता का ऐसा रुख तेल की आपूर्ति के विविधिकरण को सक्षम बनाने के लिए ईरान और वेनेजुएला जैसे देशों की ओर ले जाने में सक्षम बनाएगा। यह अंतर्राष्ट्रीय तेल की कीमतों में किसी भी वृद्धि से घरेलू प्रभाव को स्थिरता प्रदान देने में सहायक साबित होगा।

हालाँकि, इसके बाद कोविड-19 संकट से जूझ रही नीतियों के लिए एक स्थायी पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम के वित्त पोषण को संभव बनाने के लिए अति-धनाड्य लोगों पर संपत्ति कर लगाना होगा। इस प्रकार के कार्यक्रम में सरकार द्वारा राजस्व और पूंजीगत व्यय में वृद्धि को शामिल करने की आवश्यकता होगी। इस वृद्धि को ग्रामीण रोजगार गारंटी में विस्तार जैसी नीतियों पर केंद्रित किये जाने की आवश्यकता है जिसे शहरी क्षेत्रों में भी विस्तारित करने से लेकर, फसल खरीद की गारंटीशुदा न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के जरिये किसानों की आय को सुरक्षित करने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सार्वभौमिकरण (एवं इसमें मुहैया कराए गए उपभोग के साधनों की संख्या में वृद्धि करके) और सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं सार्वजनिक शिक्षा को उन्नत करने जैसे उपायों को अपनाना होगा।  

इन नीतियों को सार्वजनिक क्षेत्र की छत्रछाया में नवशक्ति संचार किये जाने की आवश्यकता होगी। सिर्फ इसी प्रकार की परिस्थितियों में ही सार्वजनिक निवेश प्रमाणिक रूप से निजी निवेश के लिए साधन जुटा सकता है।

सी सरतचंद दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कालेज में अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफेसर हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

International Finance and the Contractionary Macroeconomics of Union Budget 2022-23

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