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क्या यौन उत्पीड़कों का पीड़िता से राखी बंधवाना या शादी करना पीड़िता के लिए इंसाफ़ है ?

बलात्कार को अंजाम देने वाले को पीड़िता से शादी करने या उससे राखी बंधवाने के अदालती निर्देश सही मायने में पीड़िता की उस इच्छा का अनादर है, जिसके ज़रिये वह अपने सम्मान की रक्षा करना चाहती है और यह क़दम क़ानून की प्रगतिशील नैतिकता के भी उलट है।
क्या यौन उत्पीड़कों का पीड़िता से राखी बंधवाना या शादी करना पीड़िता के लिए इंसाफ़ है ?

मेघा कठेरिया का कहना है कि बलात्कार को अंजाम देने वालों को पीड़िता से शादी करने या उससे राखी बंधवाने के अदालती निर्देश सही मायने में पीड़िता की उस इच्छा का अनादर है, जिसके ज़रिये वह अपने सम्मान की रक्षा करना चाहती है और यह क़दम क़ानून की प्रगतिशील नैतिकता के भी उलट है।

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पिछले हफ़्ते मद्रास उच्च न्यायालय ने एक नाबालिग़ से बलात्कार के एक आरोपी को उसकी ज़मानत की शर्त के तौर पर पीड़िता से शादी करने का आदेश दिया था।

इसी साल अगस्त में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने यौन उत्पीड़न के एक आरोपी को ज़मानत दिये जाने की शर्त के तहत पीड़िता से राखी बंधवाने का आदेश दिया था। इस आदेश ने सोचने-विचारने वालों के बीच झटके की लहर पैदा कर दी थी और महिला अधिकारों के पैरोकारों की ओर से इसकी तीखी आलोचना की गयी थी।

लेकिन, हैरत की बात तो यह है कि इस तरह के आदेश का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है, जहां अदालतों ने पीड़ित से राखी बधवाकर या शादी करके यौन उत्पीड़क को पीड़िता के साथ औपचारिक सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश दिया हो।

अदालतों की तरफ़ से अभियुक्तों को उन लड़कियों से शादी करने का आदेश अक्सर सुर्ख़ियां बनते हैं,जिनका अभियुक्त यौन शोषण करते हैं या बलात्कार करते हैं।

अदालती फ़ैसलों में इस तरह के स्त्री विरोधी रवैये  की आलोचना करते हुए महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली मशहूर वक़ील, वृंदा ग्रोवर ने द लिफ़लेट को बताया कि वैधानिक संशोधनों के बावजूद, 'सम्मान' की ये प्रतिगामी धारणायें महिलाओं की इंसाफ़ तक पहुंच में रुकावट पैदा करती हैं।

महिलाओं की स्वायत्तता पर सम्मान की रक्षा की बोली

किसी महिला की स्वायत्तता के लिए यह बात बहुत अहम है कि वह अपने सम्बन्धित मामलों पर ख़ुद ही नियंत्रण रख पाने में सक्षम हो। यह ख़ुद पर महिलाओं स्वतंत्रता के सवाल का बुनियादी हिस्सा है और इस तरह महिलाओं के ख़ुद के शरीर को लेकर उनका अपना फ़ैसला भी उनका बुनियादी मामला है। उनकी ख़ुद की स्वायत्तता और स्वतंत्रता उनके समानता के अधिकार को पाने के लिए बेहद अहम हैं।

एक पितृसत्तात्मक समाज महिला की इच्छाओं को लेकर आंखें मूंद लेता है और महिला को ख़ुद के लिए फ़ैसले लेने की अनुमति नहीं देता है। इसके बजाय, महिलाओं के उन पुरुष रिश्तेदारों द्वारा उनके लिए फ़ैसले लिये जाते हैं, जिन्हें उनके वजूद में होने और उनके सम्मान के संरक्षक के तौर पर देखा जाता है।

मद्रास उच्च न्यायालय के जिस फ़ैसले का पहले ज़िक़्र किया गया है, उसमें कहा गया था कि "याचिकाकर्ता पीड़ित लड़की से शादी करने के लिए तैयार है और वह ऐसा चाहता है।" उस फ़ैसले में यह भी दर्ज है कि लड़की ने अपने बयान में उससे प्यार किये जाने की बात क़ुबूल की है। हालांकि, इस बात का कोई ज़िक़्र नहीं है कि वह उससे शादी करने के लिए तैयार है भी या नहीं। इसके अलावा, सवाल यह भी है कि क्या बौतर नाबालिग़ वह शादी करने का फ़ैसला ले सकती है?

अदालत ने इस पर बात करने के बजाय ज़मानत की एक शर्त रख दी है कि माता-पिता को इस शादी के लिए अपनी ’सहमति’ के साथ संयुक्त हलफ़नामा देना होगा। अगर लड़की के माता-पिता इस तरह के हलफ़नामे देने से इनकार कर देते हैं, तो फिर क्या होगा, इस बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं है। सवाल है कि अगर माता-पिता अपनी गर्भवती बेटी की शादी करवाने से इंकार कर देते हैं, तो क्या यौन उत्पीड़क की ज़मानत रद्द हो जायेगी ? या फिर लड़की के 18 साल की उम्र पूरी होने पर वह शादी से इंकार कर दे, तो क्या पिछली घटनाओं या स्थितियों के मद्देनज़र उसकी ज़मानत रद्द कर दी जायेगी ?

बहुत संभव है कि ये सवाल अदालत के सामने भी अबूझ हों। घूम-फिरकर बात अभियुक्त की गर्भवती पीड़िता से शादी करने की इच्छा पर आकर अटक जाती है।

इसके बजाय, अदालत पीड़िता को अपने ही उत्पीड़क को अपना भाई या पति के तौर पर क़ुबूल करने के लिए मजबूर करती है। यह उसके वजूद के होने को लेकर उसके फ़ैसले की स्वतंत्रता को खारिज करने वाली बात है। पीड़िता अपनी सहमति के उल्लंघन के ख़िलाफ़ इंसाफ़ पाने के लिए अदालत पहुंचती है, लेकिन अदालत उसके ज़ख़्मों पर नमक छिड़क देती है और इससे भी आगे जाते हुए अदालत उसकी सहमति के सवाल को सिरे से ख़ारिज कर देती है।

स्त्री-विरोधी फ़ैसले का ख़ौफ़नाक असर

मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति देवदास ने 2015 में बलात्कारी को यौन उत्पीड़न की पीड़िता से शादी करने का निर्देश दिया था और इसके लिए बातचीत करने के लिए कहा था। किये गये अपराध के समय पीड़िता नाबालिग़ थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया था। सीएनएन के साथ एक साक्षात्कार में उसने कहा था, “मैं उससे बात करने या उससे शादी करने के लिए तैयार नहीं हूं। अदालत मुझसे सात साल बाद बात करने के लिए क्यों कह रही है?”

आलोचना के बीच अदालत के उस आदेश को ‘क्षतिपूर्ति करने वाले न्याय’ के नाम पर क़ानूनी बिरादरी में कुछ समर्थन ज़रूर मिला था।

डेक्कन क्रॉनिकल से बात करते हुए एडवोकेट ए.सिराजुद्दीन ने कहा था, “बलात्कार के मामले में मुजरिम को सज़ा देना एक सामाजिक ज़रूरत है। लेकिन, अगर पीड़ित और अभियुक्तों के बीच ख़ास मामलों में मेल-मिलाप की कोई संभावना है,तो अदालत उन संभावनाओं पर नज़र रख सकती है। कुछ मामलों में इस तरह की चीज़ें बलात्कार पीड़ित पर बलात्कार के पड़ने वाले असर को भी ख़त्म कर सकती हैं।”

उन्होंने कहा कि अदालत ने आरोपियों को सुलह करने की सिर्फ़ सलाह दी है और पीड़िता को इस सुलह-सलाह को क़ुबूल करने का निर्देश तो नहीं दिया है न।

बहरहाल, 'क्षतिपूर्ति करने वाले इस तरह के न्याय' के तहत किसी भी प्रकार की बातचीत स्वैच्छिक है। अपराध का मनोवैज्ञानिक आघात ऐसी प्रक्रियाओं में पीड़िता की सहमति को ज़रूरी बना देता है, जो इस मामले में साफ़ तौर पर ग़ैर-मौजूद थी।

"सलाह" होने के बावजूद और एक दिशा नहीं होने के चलते इस आदेश का पीड़िता पर ख़ौफ़नाक असर पड़ा।

न्यायमूर्ति ए सेल्वम ने अक्टूबर में उस शख़्स की सज़ा और उस पर लगाये गये जुर्माना को ख़ारिज कर दिया। उन्होंने उस मामले को उस शख़्स द्वारा दायर अपील पर फिर से मुकदमा चलाने के लिए कडलूर की अदालत में वापस भेज दिया, जिसका दावा था कि लड़की उस समय "बालिग़" थी, जब उन दोनों के बीच "सहमति" से सम्बन्ध बना था, यह एक ऐसा तकनीकी मामला था,जिसकी जांच ख़ुद उच्च न्यायालय कर सकता था।

पीड़िता के भाई ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि पीड़िता उच्च न्यायालय के दूसरे आदेश के बाद "बेबस" हो गयी थी। पीड़िता के भाई ने बताया, “उच्च न्यायालय द्वारा उस मामले को वापस कडलूर भेजे जाने के बाद, अदालत ने अधिकारियों को पीड़िता के जन्म प्रमाण पत्र की प्रामाणिकता सत्यापित करने के लिए बुलाया। कई दिनों तक कार्यवाही चलती रही। एक दिन वह अपने बच्चे को अदालत ले आयी और कहा कि वह उससे शादी करेगी और उसके साथ जायेगी। हाई कोर्ट के पिछले आदेश ने उसकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी,लेकिन मैं इसके लिए संघर्ष कर रहा था, और मेरी बहन को लगा कि वह मेरे ऊपर एक बोझ है, मुझ पर निर्भर है। उसे पता था कि वह (आरोपी) सज़ा से बचने के लिए उससे शादी करने की कोशिश कर रहा था। इसमें वह कामयाब रहा।” 

इस तरह के फ़ैसले पीड़िताओं के सम्मान के अतिक्रमण को लेकर समाज के मसले को तो हल कर देते हैं। लेकिन,यह पितृसत्तात्मक समाज पीड़िताओं की सहमति के अतिक्रमण को लेकर बहुत कम चिंतित होता है।

यह विडंबना ही है कि आरोपी को महिला के सम्मान के संरक्षक के रूप में देखा जाता है।

क़ानूनी सिद्धांत इस तरह के अपराध को सहमति के चश्मे से देखते हुए किसी महिला के ख़ुद के सम्मान को मान्यता दे देता है। इसकी ही भाषा में यह एकदम साफ़ है कि सहमति का उल्लंघन यौन हमले और उत्पीड़न के लिए आधार बनाता है। यह उस सज़ा को लेकर भी स्पष्ट है,जिसे उक्त उल्लंघन के लिए दिया जाना चाहिए।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के जिस मामले का ज़िक़्र पहले किया जा चुका है,उस मामले में अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ की गयी अपील में उच्चतम न्यायालय के सामने पेश होते हुए न्यायाधीशों को ज़मानत की शर्तों के संदर्भ में सीआरपीसी के प्रावधानों के साथ बने रहने की सलाह दी थी।

मप्र राज्य बनाम मदनलाल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बलात्कार के मामलों में समझौते या सुलह के इस तरीक़े को 'तमाशेदार कमी' क़रार देते हुए फटकार लगायी थी। अदालत ने कहा, "कभी-कभी इस बात का ढांढस दिया जाता है कि अपराध करने वाले अपराधी पीड़िता के साथ विवाह करने के लिए तैयार है,लेकिन यह चालाकी से दबाव बनाने के अलावे और कुछ भी नहीं है।"

न्यायाधीश क़ानून से क्यों भटक जाते हैं ?

मद्रास उच्च न्यायालय 2015 के उस फ़ैसले की आलोचना करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता, आर वैगई ने कहा था, "ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि न्यायाधीशों के दिमाग़ नैतिकता और शर्म की अवधारणाओं से ढक जाते हैं।"

इस तरह के मामलों में फ़ैसले देने के दौरान न्यायिक दिमाग़ का अनुप्रयोग ही फ़ैसले का आधार होता है। न्यायाधीशों को निष्पक्ष रूप से इंसाफ़ करने के लिए मामले के दांव-पेंच से ख़ुद को अलग रखना चाहिए। उन्हें निर्पेक्ष और निष्पक्ष होना चाहिए।

लेकिन,सवाल है कि जब कोई मामला सामाजिक या व्यक्तिगत क़ानून से जुड़ा हो, तो इस निर्पेक्ष तटस्थता की सीमा क्या होगी? आख़िरकार, न्यायाधीश भी तो उसी समाज से आते हैं, जिसका नैतिक क़ानून, चुनौती और परिवर्तन चाहता है।

लॉ जूडिथ रेसनिक के प्रोफ़ेसर कहते हैं, "क़ानून निर्लिप्तता की बात करता है, लेकिन उस हद को लेकर बात नहीं करता है, जिसमें न्यायाधीश भी संलग्न, निर्भर और जुड़े हुए होते हैं।" इस तरह, लैंगिक अधिकारों के पैरोकारों ने लिंगगत फ़ैसले लिखते समय न्यायाधीशों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देशों की मांग की है। भारत के अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने भी सुप्रीम कोर्ट से मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद जजों के लिए लिंग संवेदीकरण कार्यक्रम (Gender Sensitisation Programs) लागू करने के लिए कहा था।

क़ानून के पास सामाजिक परिवर्तन को लागू करने की शक्ति है। सामाजिक परिवर्तन के एक साधन के तौर पर क़ानून की भावना पुरातन सामाजिक मानदंडों को चुनौती देती है। सामाजिक परिवर्तन उस भारतीय संविधान का सार है, जिसमें प्रगतिशील नैतिकता यानी संवैधानिक नैतिकता की परिकल्पना की गयी है।

लेकिन, क़ानून की यह शक्तिशाली क्षमता तब किसी काम की नहीं रह जाती है, जब न्यायाधीश अपनी व्यक्तिगत नैतिकता को लागू कर देते हैं और संवैधानिक नैतिकता को बनाये रखने में नाकाम होते हैं।

शर्म और बेइज़्ज़ती के सवालों में फ़ंसना या शादी कराने वाली की भूमिका निभाना अदालतों का काम नहीं है।

न्यायपालिका को कोशिश करनी चाहिए कि वह न सिर्फ़ कानून के सिद्धांत का पालन करे, बल्कि लैंगिक न्याय पर भी अपनी भावना को लागू करे।

(मेघा कठेरिया एक शोधकर्ता और द लिफ़लेट में उप-संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लिफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Is Tying a Rakhi or Marrying the Sexual Assaulter Justice for the Victim?

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